इस संसारी प्राणी को दुख जो हो रहा है, उसका अभाव करना है। यह प्राणी मान रहा है कि खाने-पीने, धन वैभव, सत्ता आदि में सुख है, लेकिन इनमें सुख नहीं है। इसके द्वारा तो दुख का ही अनुभव करना पड़ता है।
दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णा वश धनवान।
कहीं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥
आचार्य महोदय जीवन में खूब अध्ययन कर, सिद्धान्त का मंथन कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ‘कहीं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान'। इसको जीवन में उतार, संसार की असारता के लिए खूब अध्ययन किया और सार वस्तु के लिए जीवन समर्पित किया। आक्रमण दूसरों पर और प्रतिक्रमण अपने पर होता है। आक्रमण आत्मा को दुख में डालने वाला, आत्मा की निधि खोने वाला होता है। प्रतिक्रमण इससे उल्टा होता है। आक्रमण और प्रतिक्रमण दोनों शब्द क्रम को लेकर हैं। क्रम अर्थात् प्राप्त करना। उपसर्ग है और प्रति भी उपसर्ग अपने पर है। दोनों का खेल देखो। एक तरफ सिकन्दर बादशाह जो अनेक देशों को जीत कर भारत को जीतने का प्रयास कर रहा है और एक तरफ कल्याण मुनि हैं। जीत किसकी होती है, उसके पीछे आप को लगना है। हार की तरफ कोई नहीं होता है। जो जीतता है समीचीन उतरता है, उसकी ओर देखना है। सिकन्दर देश-विदेश को जीतकर दंभ से आगे बढ़ रहा है, उसकी इच्छा है कि सब पर राज करूं, सब मेरे अधिकार में रहें। बहुत कुछ कत्ल-विनाश हो रहा है। उसने सुन रखा है कि भारत में धन व धर्म की कमी नहीं है, वह भारत की ओर बढ़ा, पर वहाँ धर्म की विजय हो गई। वहाँ जाता है, जहाँ व्यक्ति प्रतिक्रमण में संलग्न है। वहाँ जाकर कहता है कि क्यों दुख उठा रहे हो, जो मांगना चाहो सो मांगो। तो दूसरी ओर वाले कहते हैं, जो स्वयं भीख मांगता है, जो आक्रामक है, वह दूसरों के दुख को नहीं मिटा सकता ।
प्रतिक्रमण जहाँ है वहाँ दया, अनुकम्पा विद्यमान है। निभीक होकर भी व्यक्ति कुछ न कुछ बोध दे सकता है। एक तरफ सिकन्दर बादशाह और दूसरी तरफ कल्याणमुनि। आज टोटल में एक जीरो और बढ़ जाने पर चाल टेढ़ी हो जाती है। जैसे-जैसे धन बढ़ता है, व्यक्ति ऊपर देखने लगता, नीचे नहीं। सिकन्दर कल्याण मुनि को देखता है और सोचता है कि वास्तविक जीवन यही है। आत्मा की उत्कर्षता के लिए काम करे। शरीर, मकान नाम की उत्कर्षता के लिए नहीं। काल द्रव्य हरेक को अपनी चपेट में ले लेता है, उसे पुराना बना देता है। हम अपनी आत्मा को जो मटमैली है, उसे राग-द्वेष से सुरक्षित रख सकते हैं।
सिकंदर ने दुनियाँ को नहीं मारा, अपने आप को मारा। ज्यों ज्यों परिग्रह बढ़ता चला जाता है तो वह व्यक्ति स्वतन्त्र विचरण नहीं कर पाता है। दो पैरों से चलने में सुविधा है, चार पैरों से चलने में गतिरोध, छ: पैर से चलने में कम गति और आठ पैरों से चलने में तो बहुत बाधा आती है। सिकंदर ज्यों ज्यों देश जीतता है, त्यों त्यों उसकी इच्छा बढ़ती जाती है, चिंता बढ़ती चली जाती है, वह रात दिन प्रयास करता है। पर बोध होने पर अन्तिम समय में वह कहता है, कि दुनियाँ यह शिक्षण ले ले, ऐसा कार्य न करे। और जब मेरे शव को ले जावे तब मेरे दोनों हाथ खाली बाहर रहे, ताकि जनता जाने कि बादशाह खाली हाथ जा रहे हैं। आते वक्त मुट्ठी बन्द पर जाते वक्त खाली हाथ, कुछ नहीं। आप सोचते हैं कि आते समय वह दरिद्र थे, जाते वक्त साहूकार है। यही भ्रम है। जाते वक्त दिगम्बर ही जाते हैं, घर वाले सब छीन लेते हैं। दिगम्बर जाना पड़ता है। आप स्वयं जीवन में अगर दिगम्बर नहीं बनोगे तो अंत में बना दिए जाओगे।
आप लोग समय-समय पर सुख की सामग्री समझकर बाहरी वस्तुएँ बटोर रहे हैं। पर आत्म तत्व को जानने वाले निस्पृही मुनिराज जो मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा रखते, बाल के अग्रभाग पर रखने योग्य परिग्रह को भी न रखते हैं, न रखाते हैं, न अनुमोदन करते हैं। महावीर ने परिग्रह को जहर बताया, जिसे आप अमृत मान रहे हो। अमृत और जहर में जमीन-आसमान, संसार-मुक्ति, स्वभाव-विभाव, प्रकाश-अन्धकार की तरह फरक है। जिसके त्याग हैं, वही वास्तविक सुखी है। जितना परिग्रह से दूर उतना ऊपर उठेगा। तुम्बी भी कीचड़ के सम्बन्ध से भारी होकर पानी के तले बैठ जाती है। इसी प्रकार बाहरी बातों को अपनाकर यह आत्मा संसार में भटक रही है। अगर इनको नहीं छोड़ता है तो लोक के अग्रभाग तक नहीं पहुँच सकता है। अगर इसके लिए कोशिश नहीं करता है, तो इसका मतलब सिद्धान्त का मंथन नहीं किया।
जेल में रहने वाले सभी दुखी नहीं होते हैं। जेल में कैदी दुख का अनुभव करते हैं पर अधिकारी [जेलर] सुख का अनुभव करते हैं। जेल एक ही है। पर जेलर चाहता है कि जेल न छूटे वहाँ Govt. उसके वेतन बढ़ाती है, तरक्की होती है। जेल दुख के लिए तथा सुख के लिए कारण है। जेलर अपराधी नहीं पर कैदी अपराधी है। परिग्रह रूपी अपराध के अपराधी दुखी हैं तथा परिग्रह छोड़ने वाला सुखी है। जब तक अपेक्षा है, तभी तक देने की क्रिया है, जब कोई इच्छा नहीं होगी तब मुनि बन जायेंगे। सुख को अभीष्ट बना रखा है, तो विचार करो सुख क्यों नहीं मिलता? त्याग में महान् शक्ति है, झूठे त्याग करने में भी जब सुख का अनुभव होता है, तब सच्चे त्याग के सुख का तो कहना ही क्या! इससे वास्तविक आनन्द स्रोत बहने लगता है, वह सुख का ही अनुभव करता है न कि दुख का। त्याग की महिमा ही आत्मा की महिमा है। त्याग ही की महिमा सर्वोपरि है।
ग्रहण में आक्रमण है और प्रतिक्रमण में वह, जो ग्रहण किया उसका विमोचन। यहीं से धर्म की रूपरेखा बनती है। ग्रहण ही ग्रहण करना धर्म से दूर होना है। मोक्ष मार्ग का प्रथम सोपान है कि ग्रहण किए पदार्थ को छोड़कर सब से माफी मांगते हुए ऊध्र्वगमन करेंगे। पलड़ा ऊपर उठेगा, कोई दबाने वाला नहीं होगा। किन्तु दुनियाँ के लोग कीमत नीचे जाने वाले पलड़े की करते हैं, पर आध्यात्मिक दृष्टि में तो वह पत्थर की नाव के समान है। अत: हमारा पलड़ा हल्का होना चाहिए। जो मूच्छा है प्रमाद व अज्ञान के द्वारा कि बड़ा बनू, उसे दूर करो। क्रमण उपसर्ग में 'आ' नहीं ‘प्रति' लगाओ। दोषों का आह्वान सो आक्रमण और दोषों को छोड़ना सो प्रतिक्रमण है। अत: किसे अपनाना है, उसे आपको देखना है। आप लोगों ने इस पंचम काल में भी महावीर भगवान् की प्रभावना के लिए जो कदम बढ़ाया है, वह श्लाघनीय है। उसके लिए और भी प्रयास करो। हवा जिस समय चलती हो उस समय धान को साफ कर लेना चाहिए। अत: महावीर के नाम की हवा चली है। Government भी उनके उपदेशों से प्रभावित होकर इस काम में मदद कर रही है।
अत: अपनी शक्ति को इस ओर लगाकर महावीर के नाम को विश्व के सामने रख सकते हैं। शान्ति प्रस्तावित हो सकती है विश्व में। महावीर के संदेश के अनुसार पंच पापों से दूर रहकर दोषों का निराकरण कर महावीर की प्रभावना बहुत अच्छी तरह कर सकते हैं। ऐसा करने से जैनेतर समाज में भी महावीर की प्रभावना होगी। बूंद-बूंद से घड़ा भरेगा। प्रतीक्षा और प्रयास की आवश्यकता है। रुकना नहीं है। जहाँ रुके वहीं END है। समय-समय पर एकत्रित किया परमाणु भी कालान्तर में मेरु बन सकता है। बूंद-बूंद से सागर भी भर सकता है। अनेक बूंदों की समष्टि सो सागर। अत: समय-समय पर प्रयास करने पर महावीर की प्रभावना का कार्य बृहद् रूप धारण कर सकता है।