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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सर्वोदयसार 20 - त्याग और अहिंसा ही हमारा आदर्श

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    भारतीय संस्कृति की सुरभि से संसार की सारी दिशायें सुरभित हुई हैं। जिस गन्ध से ग्रन्थों की रचना हुई जिसने आचरण को छुआ ऐसे गन्ध के कोश तीर्थकर उनके पश्चात् केवली और बड़े-बड़े आचार्य हुए हैं। जिन्होंने मानव समाज को हमेशा दिशा निर्देश दिये हैं। अहिंसा प्रेम-करुणा भारतीय संस्कृति की मुख्य विशेषता रही है। काल का प्रभाव कहें या कहें मानव मन की विकृति, कि आज हिंसा का तांडव उसे कलुषित कर रहा है। पशु-पक्षियों की अस्थि, मल, रुधिर से निर्मित वस्तुओं तथा औषधियों के सेवन से अनजाने ही हम हिंसा में सहभागी बन रहे हैं।

     

    नया जमाना, नया विचार आ गया है। पुराने आदर्श, पुरानी अनुभूतियाँ भुलाई जा रही हैं। अनुभव के आधार पर लिखा गया पुराना साहित्य आदर्श है, सुसंस्कृत है। प्राचीन समय से ही त्याग और करुणा का बहुत बड़ा महत्व बतलाया गया है। छोटे से छोटे त्याग का भी कितना बड़ा फल होता है इस बात को बतलाने कौये का मांस खाने का त्याग करने वाले एक भील की कथा आती है। उसने अपनी परिस्थिति के अनुसार बहुत बड़ा त्याग किया था। बंधुओ? त्याग कोई छोटा बड़ा नहीं होता अपनी सामथ्र्य के अनुसार किया गया त्याग हमेशा बड़ा ही होता है। समय बीता और उसे रोग हो गया। वैद्यों ने रोग निवृत्ति के लिये उसे कौये का मांस खाने के लिये कहा किन्तु दृढ़ प्रतिज्ञ वह भील न माना। असाध्य रोग से उसकी मृत्यु हो गई किन्तु उसने अपना संकल्प अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी फलस्वरूप वह स्वर्ग में देव पर्याय को प्राप्त हुआ। उसका जीवन त्याग का आदर्श बना। यह उदाहरण तो उसका था जो भील असभ्य जंगलों में रहते हैं किन्तु हम तो सभ्य समझदार है फिर भी किस बहाव में बहते जा रहे हैं।

     

    एक पुराना जमाना वह था और एक जमाना यह है। आज अपनी सुख-सुविधाओं के लिये क्या-क्या क्रूरता नहीं बरती जा रही। पशु-पक्षियों का रक्त तक प्रासुक कर दवाईयाँ बन रही हैं, सौन्दर्य प्रसाधन की सामग्री तैयार हो रही हैं मादकतापूर्ण पेय तथा खाद्य पदार्थ बनाये जाते हैं यह सब पशुओं की हत्या कर प्राप्त किया जाता है। हैदराबाद के पास अलकबीर नाम का कत्लखाना खोला गया है। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि कत्लखाने के नाम में उस कबीर को भी जोड़ दिया गया जिसका हिन्दी साहित्य आज भी दया करुणा प्रेम की प्रेरणा देता है। जिस कबीर के साहित्य पर आज शोध हो रहे हैं उस कबीर की करुणा भरी आवाज भी सुन लेनी चाहिए। उनके दोहों को देखिये -

    तिलभर मछरी खाय के कोटि गऊ दे दान।

    कासी करवट ले मरे तो भी नरक निदान।

    बकरी पाती खात है ताकी काढ़ी खाल।

    जो बकरी को खात है ताको कौन हवाल।

    ये तो रही मात्र कबीर की बात किन्तु किसी भी धर्म में किसी भी धर्मगुरु या धर्मग्रन्थ ने मनुष्य के लिये मांसाहार का विधान नहीं किया। हमेशा-हमेशा सभी ने दया, प्रेम, सेवा और सदाचार आदि का ही उपदेश दिया है। परन्तु आज यह सब स्वप्न सा होता जा रहा है। एक-एक कत्लगाह में आज एक-एक दिन में हजारों पशु मारे जा रहे हैं। क्या हो गया इस मानव को? क्या करुणा बिल्कुल समाप्त हो गई है। दुनिया को दया का पाठ पढ़ाने वाला भारत कैसे इस क्रूरता का अनुकरण करता जा रहा है। आज पुन: महात्मा गाँधी जैसे व्यक्तियों की आवश्यकता है जिन्होंने अहिंसा के आधार पर ब्रिटिश हुकूमत से देश को आजाद कराया। मनुष्य तो आजाद हो गया किन्तु इन मूक दीन-हीन पशुओं की स्वतंत्रता छिन रही है। ध्यान रखो बंधुओ! पशु-पक्षी कभी भी भार नहीं हो सकते भारत में। भारतो वह होता है जो प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करता है। जानवर कभी भी प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं करते। देखिये! शाकाहारी पशु भूखा रहने पर भी मांस का भक्षण नहीं करता। किन्तु मनुष्य को प्रकृति ने तो शाकाहारी बनाया तथा विकृति ने मांसाहारी बना दिया।

     

    बूचड़खानों तक पशु पहुँच ही न सकें तो पशु हिंसा स्वयमेव रुक जायेगी। इसे सफल बनाने के लिये जिला, संभाग तथा राज्य की सीमाओं पर प्रतिबन्ध भी लगाये जा सकते हैं, किन्तु ध्यान यह भी रहे कि उन पशुओं के लिये पर्याप्त प्रबंध भी किये जाने चाहिए। जिस तरह अनाथ मनुष्यों के जीवन-यापन के लिये अनाथालय बनाये जाते हैं उसी प्रकार इन अनाथ निराश्रित पशुओं के संरक्षण के लिये स्थान बनाये जाने चाहिए। मनुष्य का स्वार्थ तो देखो, जब तक पशु काम आते रहते हैं, गाय-भैंस दूध देती रहतीं हैं तब तक उनका पालन-पोषण, इसके बाद उन्हें ऐसे ही छोड़ दिया जाता है, बेचारे भूखे प्यासे घूमते रहते हैं। वृद्ध होने पर क्या कभी अपने माता-पिता को ऐसे ही छोड़ा जाता है। यही कर्तव्य बोलता है क्या हमारा? नहीं, अब संरक्षण के इस कार्य में कमर कसकर जुटने की आवश्यकता है लेकिन चमड़े के बेल्ट से कमर नहीं कसना (हँसी)। हमारा खान-पान, बोल-चाल, बसवेश-भूषा भी शाकाहारी अहिंसक होने का परिचय देती है। तभी तो खादी की चादर में लिपटे गाँधी जी महात्मा कहलाने लगे। पर विरोधाभास तो देखिये इस भारत में कि पशुओं को मारकर उनका मांस यहाँ से निर्यात किया जाता है तथा वहाँ (विदेशों में) तैयार की गई खाद यहाँ मंगाई जाती है। हिंसा किस-किस दिशा से, कैसे हमारे जीवन में घुसती जा रही है और इस पर रोकथाम कैसे लगेगी यह सब जानकारियाँ और प्रयास दिन ढलने के पूर्व ही कर लेना जरूरी है। अन्यथा मुट्ठी बाँधकर हम आये और हाथ पसारकर हमें चले जाना है। सिर पर पाप की गठरी लादकर जाना ठीक नहीं होगा। समय रहते हम जाग जायें तथा अहिंसा एवं धर्म संस्कृति की रक्षा में जुट जायें तभी हमारा मानव जीवन सार्थक है।

    'अहिंसा परमो धर्म की जय !'


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