समाजवाद से आशय है-सबके साथ वात्सल्य रखना, प्रेममय व्यवहार करना, सबका हित देखना, अनुभव करना, हिल-मिलकर चलना। इस संसार में प्रत्येक प्राणी भोग-लिप्सा के पीछे एक मृग-मरीचिका की भाँति दौड़ रहा है। उसे ध्यान नहीं, ज्ञान नहीं है कि इससे क्या फल मिलेगा, तथापि वह प्रयास कर रहा है, आशा रखता है, आशा एक खतरनाक वस्तु है, आशा-तृष्णा, मिथ्यात्व पर्यायवाची शब्द हैं, एक ही शब्द को लिये हुए हैं, बड़े-बड़े दार्शनिक हुए, उन्होंने अपनी अनुभूति को, प्रत्येक पदार्थ के अध्ययन को लेखनी के माध्यम से उड़ेल दिया। तृष्णा को महान् भूल बताते हुए उन्होंने कहा-तृष्णा अनादिकाल से हमारे जीवन में भरी है, जो रग-रग से फूट-फूटकर बाहर आ रही है। संसार के प्रत्येक प्राणी के आत्म-प्रदेशों से वह तृष्णा फूट रही है, वह इतना भयंकर रूप धारण कर लेती है कि सभी प्रकार के अन्न-ज्ञान को देने वाली कर्ण-इन्द्रिय और ज्ञान-इन्द्रियाँ बन्द हो जाये, इसके उपरान्त भी तत्वज्ञों ने तृष्णा को ज्वालामुखी की उपमा दी है, ज्वालामुखी फूटने पर वातावरण विषाक्त बन जाता है। उस वातावरण में श्वास लेने पर मृत्यु भी सम्भावित है, वह ज्वालामुखी जिस समय लावा उगलता है और भी विकराल रूप धारण कर लेता है, जिस प्रकार लोग कुत्ते, बिल्ली, जानवरों को पालते हैं उसी प्रकार हमने तृष्णा पाल रखी है, इस तृष्णा के कारण जीवन मिटता चला जा रहा है, जीवन में आनन्द के फूल विकसित और सुवासित नहीं हो पा रहे हैं, उस तृष्णा को आप सुरक्षित रख रहे हैं, यह एक अनिष्ट अहितकारी बात है, इसी से आपका मणिमय जीवन अन्धकारमय है।
इसमें सन्देह नहीं जहर से आप डरते हैं, किन्तु तृष्णा को आप जहर नहीं समझते; जब कि जहर की उपमा तृष्णा के लिए स्वीकार करते हैं। तृष्णा विष भी है और नागिन भी। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आप तृष्णा से भयभीत नहीं हैं। विश्व के समस्त पदार्थ स्वतन्त्र होते हुए भी काल की चपेट में आ जाते हैं किन्तु काल किसी की पकड़ में नहीं आता, उसका नाम ही काल नाग है। वह विकराल है काल-द्रव्य। प्रत्येक द्रव्य, में परिवर्तन लाता है। पर, उसमें परिवर्तन लाने में कोई भी द्रव्य सक्षम नहीं। काल अन्तिम दण्ड देने वाला अधिनायक है, काल कहीं जाता नहीं है, वह तो सदा उपस्थित रहता है उदासीन निमित्त के रूप में किन्तु आपमें जो विकास की क्षमताएँ थी वह स्फुटित नहीं हुई, क्योंकि आपने पुरुषार्थ नहीं किया, इसलिए आप काल को मूर्त समझकर उसकी चपेट में आते चले जा रहे हैं। तू उस सत्य को पाना चाहता है पर केवल चिन्तन द्वारा यह तेरी भ्रान्ति है, पुरुषार्थ और साधना की महिमा क्या बताऊँ किसी कवि ने लिखा है-
भावना पाषाण को भगवान् बना देती है |
साधना अभिशाप को वरदान बना देती है ||
विवेक के स्तर से नीचे उतरने पर |
भावना इंसान को शैतान बना देती है ||
ये पंक्तियाँ गूढ रहस्य को उद्घाटित करती हैं, किन्तु उल्टी साधना द्वारा हम अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर सकते। जिसके पाँव साधना के पथ पर आरूढ़ हैं वह प्रत्येक पदार्थ में महासत्ता का दर्शन अनुभव करता है, प्रत्येक सत्ता के साथ उसका एकमेव व्यवसाय बना रहता है। वह बिना किसी क्रम (लिंक) के टूटे, धारा-प्रवाह रूप से चलती रहती है। उसमें एक प्रकार की भावात्मकता गर्भित हो जाती है। प्रत्येक पदार्थ के साथ उसका जीवन चलता रहता है, वह हर्ष और विषाद का अनुभव नहीं करता, महासत्ता का अवलोकन करने से हर्ष और विषाद गौण हो जाता है, जब जीवन सुखदुख, हर्ष-विषाद से ऊपर उठ जाता है तब एक अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है, उस समय वह उस सत्ता से एकमेव हो जाता है, व्यक्ति विषय-कषाय को छोड़कर जब आगे बढ़ जाता है, तब उसे ज्ञात होता है कि गौण तत्व क्या है, जिस प्रकार मद्यपान मस्तिष्क की क्रियाओं को अचेतन बना देता है, उसी प्रकार विषय-वासनाएँ आत्म-ज्ञान को सुप्त बना देती हैं, उस अवस्था में व्यक्ति शव और पुद्रल के समान हो जाता है, उसकी आत्मिक शक्ति क्रियाशून्य हो जाती है।
गीता में कर्मयोग और सांख्ययोग का उपदेश श्रीकृष्ण ने दिया है, सांख्ययोग का अर्थ है पूर्ण रूप से परित्याग करना, कर्मयोग का अर्थ है फल की कामना-रहित कर्म करना, कर्मयोग में क्रियाएँ लोक-हितार्थ होती हैं। समाजवाद का भी वही अर्थ है, सबके साथ वात्सल्य, प्रेम-मय व्यवहार करना, सबका हित देखना, अनुभव करना, हिल-मिलकर चलना। संन्यासी कर्म-योग के पक्ष पर चलकर लोक-कल्याण का आदर्श उपस्थित करता है।
नदी के तेज प्रवाह में यदि कोई पदार्थ गिर जाता है तो वह नदी के प्रवाह को नहीं रोक सकता है, उसे उस प्रवाह के साथ प्रवाहित होना ही पड़ेगा, पदार्थ प्रभावित होता है, परिणमित होता है, पदार्थ काल के प्रवाह की चपेट में बहता चला जाता है।
भोग समाप्त नहीं हुए इसलिए तृष्णा आज तक जीवित है, हमने तप नहीं किया किन्तु हम ही तपे गये, कुछ साधना करने की हमने चेष्टा की। पर, उस साधना के माध्यम से कुछ पाया नहीं किन्तु तृष्णा के साथ बहते गये, हम तृष्णा को जीर्ण-शीर्ण बनाना चाहते रहे पर हम जीर्ण-शीर्ण होते गये, हमारी दृष्टि दूसरों की ओर चली जाती है, जो व्यक्ति वीतरागी बनता है वह संसार की अनुभूति छोड़ना प्रारम्भ कर देता है। वह व्यक्ति दूसरे को नहीं देखता किन्तु दूसरों में अपने को देखता है। देखने के कार्य मात्र से हम यह नहीं कह सकते कि वे अपनी ओर देख रहे हैं।
अधिकांश जन कार्य, दर्शन के लिए नहीं, प्रदर्शन के लिए करते हैं। क्या आपने दर्पण में अपने मुख को देखा? उसे देखकर अपने गुण- दोषों का विचार किया? मैं आपको आज सजग करना चाहता हूँ, दर्पण को देखने का उद्देश्य क्या है, जरा इस बात का भी ध्यान रखे। प्रत्येक दिन हम दर्पण में मुख देखते हैं, पर दूसरों को दिखाने के लिए, क्या पाउडर, क्रीम, लिपस्टिक, सौन्दर्यसामग्री स्वयं की दृष्टि में अच्छा लगने के कारण लगायी जाती है? इस भौतिकता की चपेट में हमारा सम्पूर्ण जीवन ही प्रदर्शन बन गया है, कुछ भी अर्थ पूर्ण नहीं रहा, अपने लिए नहीं रहा।
दर्पण का देखना आपकी अपनी मान्यता में भले ही सच हो सकता है, लेकिन दर्पण देखने के लिए दर्पण जैसा होना पड़ेगा, जो हमें दिख रहा है, वह दर्पण नहीं प्रतिबिम्ब है। जिसने दर्पण देखा समझो उस व्यक्ति के पास कुछ न कुछ है। वास्तविक बात तो यह है कि दर्पण में प्रतिबिम्बित पदार्थ देखने के पूर्व दर्पण दिखना चाहिए। पर, दर्पण नहीं दिखता उसको पार करके उसकी दृष्टि जाती है, प्रतिबिम्बित पदार्थों से दर्शन का विषय और विषयी का सम्बन्ध हो जाता है, दर्पण देखने से पूर्व यह लक्ष्य बनाना पड़ता है कि दर्पण में प्रतिबिम्बित पदार्थ को नहीं देखना। मात्र दर्पण को देखना है। प्रतिबिम्ब तो अनादिकाल से है तथापि हमारा लक्ष्य दर्पण नहीं सदैव प्रतिबिम्ब रहा है। इसलिए हमारा जीवन आज तक दर्पण नहीं बना, दर्पण बनने के लिए उज्ज्वल जीवन का लक्ष्य जिसका बन जाता है, वही व्यक्ति सत्य पदार्थों का अवलोकन कर सकता है अन्यथा नहीं, इसके लिए बहुत परिश्रम करने की आवश्यकता है, किन्तु बिना किसी अन्य पदार्थ की आवश्यकता के उस ज्ञान की आवश्यकता है जिसके माध्यम से हम सब हेय और उपादेय, इष्ट और अनिष्ट का परिज्ञान कर सकते हैं, सम्पूर्ण पदार्थों में मूल्यवान् पदार्थ एकमात्र आत्मा है। जो कुछ भी अच्छा होगा उसी में होगा, जो कुछ उत्सर्ग आयेगा उसी में आयेगा, साधना-काल में यह शंकाएँ उठ सकती हैं कि जो आज तक नहीं मिला वह कैसे मिलेगा? जब तक हम गणित का प्रश्न कर रहे हैं, जब तक वास्तविक उत्तर नहीं मिलता है हमें परेशानी दिखती है, भूल का ज्ञान होने पर, उत्तर मिलने पर गहराई-गहराई नहीं रहती, शंकाएँ निर्मूल हो जाती हैं, हम वेगवती धारा का पानी नहीं देख सकते, गहराई नहीं नाप सकते, तैरना है, गहराई नापना है तो नदी के बीच में कूद पड़ो, गहराई का ज्ञान हो जायेगा।
कितना समय हमने व्यर्थ गवाया, सोचना और प्रयास करना आवश्यक है। अधिकांश लोग अपना बहु-मूल्य जीवन मात्र सोचने में ही लगा देते हैं, जीवन में सोचना कम, काम करना अधिक, सोचने के बाद ही कार्य आरम्भ हो जाता है, फिर भी सोचना जारी रहता है, हम भूल जाते हैं, करने से पूर्व तैयारी करनी पड़ती है, जब हम कार्य प्रारम्भ कर देते हैं तो वास्तविक तैयारी और भी महत्वपूर्ण हो जाती है।
और नहीं भी। जब हम चलते हैं तब चलने में ज्ञान, विश्वास और चारित्र तीनों समाहित हो जाते हैं, चारित्र की पूर्णता में सम्पूर्ण ज्ञान समाहित हो जाता है तथा उससे वास्तविक आनन्द प्राप्त होने लगता है। तीर्थकर महावीर ने चारित्र को अपनाया और चारित्र की सत्य के माध्यम से देखा। कर्म-योग और संन्यास-योग हमारा है, कर्म-योग में विषय-कषायों की कामना नहीं होती, कर्मयोग धर्म का सम्पादन करने वाला है, कर्मयोग का रहस्य बतलाते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं-कि अर्जुन! सोचना, विचारना घबराना नहीं है, बल्कि वह धर्म का सम्पादन करने वाला है। वह अनादिकालीन कर्मों को क्षय करने वाला है। सांख्य योग की बात है, वात्सल्य दिखाने तलवार माध्यम है। श्रीकृष्ण तलवार में रक्त नहीं देख रहे थे, भावी युद्ध में बहने वाले रत में भी वे लोक-कल्याण के दर्शन कर रहे थे। वह कहते हैं-सुनो अर्जुन! प्रेम का अर्थ क्या है? प्रेम का अर्थ है-अपनी आत्मिक सत्ता के साथ अनुभूति प्रारम्भ कर देना, प्रेम के द्वारा हम उस सत्ता को देख सकते हैं, उस अविनश्वर सत्ता रूप चेतना का संवेदन करना ही सही-सही प्रेम का रूप है। (अभी-अभी किसी ने चित्र लिया, यह प्रेम नहीं हैं, यह प्रेम का फ्रेम मात्र है) सत्य, अहिंसा, प्रेम, वात्सल्य यह आत्मा की बातें हैं, जड़ की नहीं, इन सबका आत्मा से गहरा सम्बन्ध रहता है, मुझे एक कथा याद आ गयी, स्वामी विवेकानन्द विदेशा यात्रा के लिए जा रहे थे, उनकी यात्रा मनोरंजन हेतु नहीं थी, महान् व्यक्तियों की यात्रा ही यात्रा कहलाती है, महान् व्यक्ति जहाँ भी चलते हैं, वह यात्रा के रूप में परिवर्तित हो जाती है, उनकी यात्रा अहिंसा सिखाने, प्रत्येक प्राणी को सद्ज्ञान की अनुभूति कराने, प्रत्येक को सुख की अनुभूति करने के प्रयोजन से होती है।
विवेकानन्द यात्रा के पूर्व माँ-तुल्य गुरु-पत्नी शारदा के पास आशीर्वाद प्राप्त करने गये तथा बोले-'माँ! गुरु-आज्ञा, पूर्ण करने जा रहा हूँ, आपका आशीर्वाद परम आवश्यक है, विवेकानन्द ने एक शब्द भी नहीं सुना, आशीर्वाद में विलम्ब देखकर विवेकानन्द ने कहा-माँ! आशीर्वाद में विलम्ब क्यों? माँ ने कहा-विवेक! अभी आशीर्वाद देने का अवसर नहीं है, विवेकानन्द ने कहामाँ! ऐसी क्या बात है? आशीर्वाद देने में क्या परिश्रम करना पड़ता है? मात्र इतना ही तो कहना पड़ता है कि-पुत्र तेरी कामना पूर्ण हो, माँ दस मिनट तक सोचती रहीं, फिर बोलीं-‘उस आले में चाकू रखा है, उसे उठा ला।” उस समय विवेकानन्द ने विचार किया-क्या रहस्य है? समझ में नहीं आया, वातावरण बदल गया, विवेकानन्द चाकू उठा लाये और ज्यों ही माँ के हाथ में दिया त्यों ही माँ ने कहा-'तेरी कामना पूर्ण होगी, मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है, सफलता में कोई सन्देह नहीं।”
विवेकानन्द चकित रह गये, चाकू देने से आशीर्वाद मिला! इसमें क्या रहस्य है? समझ में नहीं आया, माँ ने कहा-मैंने परीक्षा ली, तुम उत्तीर्ण हुए, आले में से चाकू लाना कोई महत्वपूर्ण बात नहीं है, चाकू का फलक मैंने तुम्हारी ओर देखा और मूठ मेरी ओर, कितनी रहस्यमय बात है, किसी जीव की भावना को ठेस (धक्का) न लगे, कितनी सावधानी बरती थी विवेकानन्द ने!
प्रत्येक समय दया-धर्म को जानने वाला व्यक्ति स्वयं को कठिनाई में डालकर दूसरों को अपने द्वारा कोई कष्ट नहीं होने देना चाहता है, ये है उस परम सत्ता की अनुभूति, यह है कर्मयोग। संन्यास-योग के माध्यम से कुछ बताया नहीं जा सकता, कथन से परे है-मात्र संवेदनशील है, क्योंकि बताने में कुछ खतरा भी हो सकता है।
संन्यास-योग है मात्र देखना और जानना। कर्मयोग में देखते और जानते हुए कषायों का दमन करते हुए कुछ कर्म करना, वह कर्म भी लोकहितार्थ और जनहितार्थ होता है, यहाँ पर वात्सल्य पूर्ण रूप से मूर्तिमान हो उठता है, जब तक प्रेम जीवन में नहीं आता, व्यक्ति किसी कार्य में फलीभूत नहीं हो सकता है, किसी क्षेत्र की अनुभूति प्राप्त नहीं कर सकता है।