मानव का मूल स्वभाव सीधापन है, किंतु बाह्य प्रभाव से अथवा स्वार्थ के वशीभूत, स्वभाव में टेढ़ापन आ जाता है। प्रत्येक प्राणी का स्वभाव के अनुरूप आचरण होता है, किन्तु मनुष्य ही वह प्राणी है जो मूल स्वभाव सीधेपन को छोड़कर टेढ़ेपन की क्रिया करता है।
सीधापन अपना है टेढ़ापन नहीं। मनुष्य अवसर आने पर अपना उल्लू सीधा करता है किंतु स्वभाव के मूल रूप के अनुसार आचरण नहीं रखता। अपनापन त्याग कर टेढ़ेपन की किया से ही मनुष्यों में भटकन है। भटका पथिक मंजिल नहीं पा सकता। बंदरों को चना बहुत प्रिय होता है। यह उदाहरण आपको ज्ञात होगा-बंदरों का एक दल भोजन की तलाश में एक घर के निकट पहुँचा। घर के अंदर का हालचाल जानने के लिये एक साहसी चपल बंदर घर के अंदर चला गया, शेष बंदर प्रतीक्षा करते रहे। अंदर गये बंदर ने एक घड़े के अंदर देखा उसमें कुछ है। बंदर ने हाथ घड़े में डाला। सीधा हाथ आसानी से घड़े में चला गया किंतु जैसे ही उसने हाथ बाहर निकालने का यत्न किया हाथ बाहर नहीं आया बंदर चिल्लाने लगा तथा साथियों से कहा कि मेरा हाथ घड़े ने पकड़ लिया है। बंदर की आवाज सुनकर एक वृद्ध बंदर घर के अंदर आया तथा देखते ही सारी स्थिति उसकी समझ में आ गयी। उसने कहा घड़े ने नहीं पकड़ा है, पकड़ा तो तुमने है। मुट्ठी में जिसे पकड़ रखा है उसे छोड़ दो। छोड़ते ही हाथ सीधा होकर बाहर आ गया। बंधुओं! पकड़ा तो बंदर ने था किंतु चिल्ला रहा था कि घड़े ने पकड़ लिया। जब तक बंदर ने घड़े में रखी हुई वस्तु पकड़ी थी हाथ टेढ़ा था, छोड़ते ही हाथ सीधा हुआ तथा मुक्त हो गया। ऐसे ही स्वार्थवश प्रवृत्ति में आया हुआ टेढ़ापन मुक्ति में बाधक है किन्तु सीधापन मुक्ति में साधक है।
बाल्यकाल में मानव मूल स्वभाव के अनुरूप आचरण करता है किंतु बाह्य प्रभाव से टेढ़ापन आ जाता है। बच्चे को पिता जी ने प्रशिक्षित किया 'बेटा देखो अमुक व्यक्ति पूछने आये तो कहना कि पिता जी घर पर नहीं हैं।” पूछने पर बच्चे ने ज्यों का त्यों कह दिया कि ' पिताजी ने कहा है कि कह दो पिताजी घर पर नहीं हैं।” बाल्यावस्था में मूल रूप विद्यमान रहता है। बाह्य प्रशिक्षण से टेढ़ापन आ जाता है और मनुष्य का आचरण मूल स्वभाव के विपरीत हो जाता है। चने की पकड़ छूटते ही हमारा हाथ हमारे साथ, नहीं तो हमारा हाथ भी हमारा नहीं। ऐसा लग रहा था कि घड़े ने पकड़ रखा है। क्या घड़े ने पकड़ा था? या स्वयं ने घड़े को पकड़ा था।
मनुष्य स्वभाव से पृथक हो रहा है तथा यही पृथकता दृष्टि में चाल में गर्दन में, वचन में टेढ़ापन लाती है। चाल में टेढ़ापन आते ही दोषयुक्त हो जाती है। यह टेढ़ापन विकृति उत्पन्न करता हैं तथा भटकन में कारण है। टेढ़ापन तेरापन नहीं, सीधापन अपनापन है। व्यापार में भी जब बिक्री कम हो तो ग्राहक के रूप में नाती की उम्र के बालक भी देख दुकानदार प्रसन्न हो जाता है तथा अतिमान देते हुए दङ्का शब्द का भी संबोधन देता है, वहीं अधिक बिक्री पर दुकानदार सीधे मुँह बात नहीं करता तथा दङ्का के दद्धा का भी अपमान कर देता है। दोनों स्थिति टेढ़ेपन की है।
इसी सीधेपन को पाने के लिये संत आराम का जीवन छोड़ साधना के लिये जंगलों में जाते हैं। सीधेपन के लिये तप करते हैं साधना करते हैं। बंधुओं! ध्यान रखो सिर पर भार बहुत हो तो टेढ़ापन आ जाता है। जीवन में विकारों का बोझ है, इस बोझ को कम करने से ही सीधापन आयेगा तथा मुक्ति मिलेगी। इस तरह टेढ़ापन दूर कर कर्तव्य करने से हम भी सिद्ध परमेष्ठी के समान सीधे हो सकते हैं उसी सीधेपन की प्राप्ति के लिये हमें प्रयास करते रहना चाहिए।
"महावीर भगवान् की जय !"