आज यह पर्व का सातवां दिन है जो तप की ओर इंगित कर रहा है। यह आप को बहुत भयानक दिख रहा है। यह अज्ञानी जीव इष्ट को अनिष्ट और अनिष्ट को इष्ट समझ रहा है। आचार्यों ने भी यही बताने की कोशिश की है कि प्रयोजन भूत तत्व क्या है ? और अप्रयोजनभूत तत्व क्या है ? महावीर भगवान् की वाणी में कोई त्रुटि नहीं है। प्रवक्ता के वचन में कुछ राग का मिश्रण तथा श्रोता के सुनने में उल्टा अर्थ समझ में आ रहा है। पर वीतराग वाणी में कहीं त्रुटि नहीं है। जिस प्रकार पारसमणि लोहे को सोना बनाने में समर्थ है पर यदि लोहे पर कपड़े या कागज का आवरण रखकर पारसमणि को स्पर्श करायें तो वह कभी भी सोना नहीं बनेगा। इसी प्रकार भगवान् की वीतराग वाणी जो राग-द्वेष से रहित है। आज तक हमारा कल्याण नहीं हो पाया, इसमें हमारी ही गलती है, वह सजनों के हित के लिए है, दुर्जनों के लिए नहीं क्योंकि दुर्जनों के पास कालुष्य है, वह घुल नहीं सकता, वह उल्टा ही अर्थ ले लेता है। जो गुणों को देखकर हृदय में आमोद प्रमोद अनुभव करते हैं, उनके लिए भगवान् नेता हैं।
हम तप के द्वारा दुख का अनुभव करते हैं। हम आज तक समझे ही नहीं कि दुख क्या है और सुख क्या है? राग-द्वेष रूपी कालुष्य दुख का कारण और दुख रूप है, पाप रूप है। हमें नियम के अनुसार, बनाए हुए रास्ते के अनुसार ही चलना पड़ेगा, न कि नियम के विपरीत बने या चाल के अनुसार रास्ता बने पर जगत हित के लिए रास्ता नहीं बदला जा सकता। तप वीतरागमय है। वस्तु का वास्तविक अवलोकन उपसर्ग व परीषह के बिना नहीं हो सकता। तप को वही अपनाता है जो दुख का आह्वान करता है, दुख के बारे में खोज व अध्ययन करता है। हमें तप से डर है, इसी कारण हम सोचते हैं कि इतना धर्म करने पर भी कर्म पीछा नहीं छोड़ते हैं, हम डरपोक है। वीर लोग वीरत्व का अवलोकन वीरों में ही करते हैं कर्मों के उदय होने पर भी कहते हैं, वे कर्मों से, कि तू क्या कर सकता है ? वे कर्मों को पछाड़ देते हैं। आपको अपनी वीरता के बारे में ज्ञान ही नहीं है। जिनकी तप में आस्था नहीं है, तप में कष्ट समझते हैं, वे तीन काल में भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते। कर्मों को भगाने के लिए अमोघ शस्त्र तप ही है। सम्यक दृष्टि के द्वारा किया गया १२ प्रकार का तप कर्मों की निर्जरा के लिए कारण है। सुख मिलेगा तो तप से ही, यह आस्था सम्यक दृष्टि में अटूट है। कर्म की बाढ़ भी आ जाये तो भी तप को परीषह से ऊँचा रखते हैं। परीषह कर्म के आधार पर होते हैं। उपसर्ग रहे और नहीं भी रहे। तपस्वी लोग सोए हुए, नहीं आए हुए कर्मों को भी बुलाते हैं। वे आए हुए कर्मों को परीषह को और बुलाए हुए कर्मों (उपसर्ग) को, वैरियों को सहन करते हैं। उनसे लड़कर विजय प्राप्त करते हैं।
तप को साथी हमें बनाना होगा, तभी सुख की प्राप्ति होगी तभी मार्ग मिलेगा। दशलक्षण धर्म में ‘तप' एक प्रौढ़ धर्म है। इस तप के द्वारा अन्य धर्म में भी पास हो जाते है। तपाने के बाद ही सोने की परीक्षा होती है, वह सोना तभी अपने स्वभाविक गुणों को प्राप्त होता है। हेम पाषाण के समान यह आत्मा धूल के समान होने के कारण वास्तविकता को नहीं पा रहा है। इस आत्मा के साथ वर्तमान में कर्म लगा होने से इसका पूर्णरूपेण मूल्यांकन नहीं हो पा रहा है, इसे तपाकर ही जाज्वल्यमान करना होगा, तप रूपी अग्नि से तपाना होगा। कर्म के साथ जुड़ी आत्मा को कर्म मल से दूर करने के लिए दुनियाँ में कोई रसायन नहीं है, सिवाय तप के।
उपवास वही कहलाता है कि जब हम आत्मा के सन्निकट रहें। तभी वास्तविक तप है। इसी से कर्मों की निर्जरा होती है। इच्छा का अभाव ही तो वास्तविक तप है। भोजन का त्याग है, शरीर के द्वारा भोजन नहीं किया, पर चौबीस घंटे खाने की इच्छा रखी, वह तप नहीं इसका उल्टा पत यानि पतन है। वह उपवास नहीं लंघन है। खाने के त्याग के साथ-साथ उसकी जो लालसा है उसका त्याग होना चाहिए। जहाँ इच्छा नहीं है वहीं अनशन है। प्रायश्चित से आगे विनय, विनय से आगे स्वाध्याय, उससे भी आगे व्युत्सर्ग आदि है। बहिरंग तपों में अनशन जघन्य तप है। क्रम-क्रम से जो लिखा गया है। क्रम क्रम से अंगीकार करता हुआ ऊपर उठता है। अनशन से भी बढ़कर अवमौदर्य है। कम खाना ही अवमौदर्य है। हाथ में आया को छोड़ना, यही महान् टेढ़ी खीर है। भूख को रखते हुए उठ जाना इससे भी ऊपर वृत्तिपरिसंख्यान है, इसमें खाने की लालसा और घटा दी। भोजन मिले नहीं, इस इच्छा से नियम लेकर जाना। इससे भी ऊपर चौथे नम्बर पर रस परित्याग बताये, इसके द्वारा ही हम पुद्गल को पहचानते हैं। थोड़ा नमक कम होने पर परिणाम देखिये, आँख लाल कर देता है। रस के साथ यह आत्मा लगा हुआ है। इस रसनेंद्रिय के द्वारा ही पाँचों इन्द्रियाँ और मन पुष्ट होता है। वह बहुत महान् इन्द्रिय है, जब यह कंट्रोल में आती है तब पाँचों इन्द्रियाँ कंट्रोल में हो जाती है। अज्ञानी जीव रस पूर्ण चीजों को छोड़ना पसन्द नहीं करता परन्तु इस रस कंट्रोल से ही कर्मों की निर्जरा होती है। तप वृद्धि के लिए रस मिश्रित पदार्थ हानिकारक हैं। इससे निद्रा ज्यादा आती है, इन्द्रियाँ कंट्रोल छोड़ती है, ध्यान से च्युत होता है, तथा समाधि से विमुख हो जाता है। कहा भी है
योगी स्वधाम तज बाहर भूल आता।
सद्ध्यान से स्खलित हो अति कष्ट पाता ॥
तालाब से निकल बाहर मीन आता,
होता दुखी, तड़पता, मर शीघ्र जाता ॥
सद्ध्यान से स्खलित होने पर कष्ट का अनुभव होता है। मद्य, मांस, मधु और रस से विहीन आहार लेना, तप की वृद्धि के लिए कारण है। ध्यान प्राप्त करने के लिए आहार लिया जाता है। इस रस त्याग से Double निर्जरा होती है। यह जीव अनादिकाल से इन ४ संज्ञाओं से दुखी हो रहा है। इसमें एक भय संज्ञा भी बताई है। मारने में भी मरने का भय बना हुआ है, इसलिए कोई कहे कि मारने में, शस्त्र रखने में तो निडर है सो यह बात नहीं। वहाँ भी डर है, विरोध में भी समता के साथ बैठे रहें इसी के उपरांत विवितशय्यासन तप बताया है। जहाँ एकांत में नींद नहीं लगती, वहीं मुनिराज तप करते हैं। उसके बाद कायोत्सर्ग जो महान् तप है, बताया है। इसमें गुप्ति पलती है, इसमें चर्या प्रधान मानी जाती है। संवर गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, परीषह विजय और चारित्र के द्वारा होता है। इसमें कर्म की लड़ियाँ इस प्रकार टूटती है जिस प्रकार २४ घंटे प्रवृत्ति करने पर भी नहीं बन्धती। पुण्य वर्गणाओं का ज्यादा आना पाप वर्गणाओं के नाश होते समय ये भी निर्जरा है। अन्तरंग तप में ध्यान और बहिरंग तप में कायोत्सर्ग मुख्य रखा गया है। अनशन तो बहुत दूर रह गया है। खाने का लक्ष्य कर जो कायोत्सर्ग करता है उससे चित्त की प्रवृत्तियाँ चंचल होती है। कुतप के द्वारा तो संसार के अनेक पदार्थ प्राप्त कर लिए पर मुक्ति नहीं। सम्यक दर्शन युक्त तप ही समीचीन तप है। सुख दुख राग द्वेष युक्त आत्मा से है। अत: जिस प्रकार भगवान् महावीर ने तप को अपनाया है, आप भी उसे अपनाओ। उन सत् तपस्वियों के लिए मेरा शत-शत प्रणाम।