आज आप लोगों के लिए बहुत ही महत्व की कुछ बातें कहनी थीं, लेकिन समय का थोड़ा अभाव रहा। समय का अभाव तो नहीं है किन्तु आप लोगों में धर्म के उत्साह का अभाव है। मैं अपनी बात को बहुत ही संक्षेप में रखने की चेष्टा करूंगा। आप लोगों ने भगवान् महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के अन्तर्गत जिस उत्साह के साथ कदम बढ़ाया है, वह सराहनीय है। उनके संदेशों को जीवन में उतार कर आगे बढ़ना है। दीपावली के दिन ही महावीर ने अपना वास्तविक दिग्दर्शन किया था। महावीर उपाधि का विमोचन किया था, इसलिए निर्वाण कहते हैं और जयंती इसलिए कि इस दिन सिद्ध बने और सिद्ध बने रहेंगे, उस सिद्धत्व अवस्था में कभी विकार नहीं जाएगा। उसी दिन उन्होंने ही वास्तविक जन्म लिया है। हमारा तो वास्तविक जन्म हुआ ही नहीं। जिस जन्म के साथ मरण होता है, वह वास्तविक जन्म नहीं है। आप लोगों के लिए वह निर्वाण दिवस हो सकता है, पर उनके लिए जन्म दिवस है। आज भी महावीर भगवान् आगम चक्षु के द्वारा वास्तविक दर्शन दे रहे हैं। उनके दर्शन सेठ, साहूकार, राजा, महाराजा, चक्रवर्ती, इन्द्रधरणेन्द्र को नहीं हो सकते, बल्कि जो अपने वास्तविक स्वरूप में है, उनको दर्शन होते हैं। मुझे तो अपने सामने भगवान् महावीर दिख रहे हैं। उन्हें संसार से मुक्ति मिल गई। महावीर का जीव जो था, वह तुम्हारे से ओझल हो गया। शरीर पुद्गल है। पुद्गल का जन्म कोई जन्म नहीं। जीव का जन्म अनादि से हुआ ही नहीं। जीव का रहना आयुकर्म के बिना नहीं हो सकता, आयुकर्म से छुटकारा ही जीव का बंधन से छुटकारा है। अनादिकाल से हमारा मरण ही हो रहा है क्योंकि अनादिकाल से जीव के साथ आयु का सम्बन्ध चल रहा है। कहा भी है -
तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान,
रागादि प्रगट जे दुख देन, तिनही को सेवत गिनत चैन।
महावीर तो जिन हो गये, पर आप जैन होकर उनके उपासक होकर भी दुख का अनुभव कर रहे हैं। शरीर का जन्म हो रहा है, मिट रहा है, लेकिन जीव के जन्म होने पर आत्मा का स्वरूप जो अनन्त शक्ति का भंडार है, के दर्शन हो सकते हैं, जिससे आप वंचित हैं। वह वास्तविक वैकालिक सत्ता आँखों में नहीं आई, न आएगी। वह वास्तविक ज्ञान आत्मा के पास है, लेकिन आपने ताला लगा रखा है। महोत्सव मनाते जाओगे तो भी ताले खुलेंगे नहीं अपने आप दरवाजा बंद होने पर बाहर का प्रकाश अन्दर नहीं आ सकता। अन्दर का प्रकाश ही बाहर लाना पड़ेगा। महावीर भगवान् ने क्या काम किया, उन्होंने विचारा कि -
ना आधि-व्याधि मुझ में, न उपाधियां है,
मेरा न है मरण, ये जड़ पंक्तियाँ हैं।
मैं शुद्ध चेतन-निकेतन हूँ निराला,
आलोक-सागर, अतः समदृष्टि वाला ॥
मैं कौन हूँ? महावीर कौन थे? आप कौन है? आपको शायद मालूम ही नहीं। महावीर की जय जयकार कर रहे हो, पर आपका क्या हो रहा है ? उनकी प्रशंसा से आपका क्या मतलब है ? उनका नाम ‘महावीर' आपने रखा, और आप ही जय जय बोल रहे हैं, वो तो आत्माराम हैं, महावीर आत्मा से परमात्मा हुए थे। श्रुतकेवली, मन:पर्ययज्ञान के धारी भी उस परमात्मदशा का वर्णन करने में असमर्थ हैं। वचन के द्वारा, पुद्गल के द्वारा उनका सीमित वर्णन ही होगा। यह तो अनुभवगम्य है, पर अपरंपार है। उसकी अनुभूति के लिए जो प्रयास किया, वह श्लाघनीय है। वे महावीर जिस लोक में हैं, उसमें आप भी हैं, वे अनन्त सुख का अनुभव कर रहे हैं और आप अनन्त दुख का अनुभव कर रहे हैं। उनके सामने आप घुटने टेककर नाक भी रगड़ लो, तो भी उनके द्वारा सुख का एक अंश भी आपको नहीं मिल सकता। महावीर का बल अनन्त के रूप में हो गया और आप निर्बल हो रहे। आप अपने स्वरूप का आलम्बन लेकर जड़ की प्रक्रिया छोड़कर विचार करो। महाव्रत धारण कर मुनि न बन सको तो उदासीन बन कर अपना नाम उदासीनाश्रम में लिखा दी। जो जवान हैं, वे आज मेरे साथ आ जायें। उस पथ को मूर्त रूप में दिखा दें, महावीर के सरीखे बन कर। दीक्षा कल्याण कैसे हो, इसके लिए सुन लें जिन्हें जल्दी है वे जायें, पर एक बात जरूर ले जाएं। महावीर के दिव्य संदेशों को सुनकर एक सेठ के मन में उदासीनता छा गई, उसने ज्येष्ठ पुत्र को बुलाकर अपना ताज उसके मस्तक पर रखना चाहा, वह कहता है कि मुझसे सहन नहीं होगा, उसकी आज्ञा बड़ा होकर नहीं छोटा होकर मानूँगा। आप क्यों इसे छोड़ रहे हो ? तब सेठ ने कहा कि जीवन भोग के लिए नहीं, योग के लिए है, उपयोग के द्वारा वैकालिक सत्ता का दर्शन करूंगा संन्यास लूगा, वन में विचरूंगा, भोगों में सुख नहीं, दुख ही दुख है। उसने भोगों की उपेक्षा कर दी। तब बेटा कहता है कि आपने बहुत बढ़िया बात कही है, आपने मुझे भी रास्ता बता दिया। मैं भी उसी रास्ते चलेंगा। पिताजी घर का नाम मिट जाने की चिन्ता में थे भले ही निज का नाम मिट रहा था उसकी चिन्ता नहीं, वे कहते हैं कि तेरा ऐसा कहना ठीक नहीं। बेटा कहता है कि आपके लिए ठीक है तो मेरे लिए कैसे ठीक नहीं। इसी तरह दूसरा, तीसरा, चौथा लड़का भी घर से उदासीन हो जाते हैं। पोता नादान था, उसे घर का भार सौंपकर सेठ व चारों लड़के चले गये। कुछ दिन उपरांत दीक्षा कल्याण तिथि जी आ रही है, उसी प्रकार हमारी तैयारी हो जाये तो अविनश्वर पद की प्राप्ति, वास्तविक ज्ञान का दिग्दर्शन हो जायेगा। वृद्ध होकर यदि महाव्रत को न अपना सकें तो अणुव्रत अपनाकर शेष जीवन उदासीनाश्रम में व्यतीत कर दी। त्यागी, तपस्वी जहाँ रहते हैं, वहाँ का वातावरण सुगंधमय हो सकता है। उदासीनाश्रम में लाख हजार आदि की जरूरत नहीं। लाख तो राख के समान है। अगर आप उदासीन हो गये तो बच्चों को दिक्कत नहीं होगी बल्कि वे स्वयं आपकी हिफाजत करेंगे। भगवान् महावीर स्वयं त्यागी थे, उन्होंने भोगों को ठुकराया था और दुख की निवृत्ति के लिए योग को अपनाया था, उसी त्याग को अपना कर आप उसी योग की जय-जयकार बोलें, उपासना करें।