जब तक इंद्रिय संपदा तथा शारीरिक स्वस्थता, मन एवं बुद्धि ठीक-ठाक है तब तक शरीर और कर्मों को आत्मा से पृथक् करने की साधना अच्छी तरह से कर लेनी चाहिए। पर की ओर नहीं बल्कि स्व की ओर देखने, लक्ष्य करने से ही अपूर्व आनंद की अनुभूति होगी। यदि भविष्य में और अवधारण करने की इच्छा नहीं है तो राग-द्वेष के चक्कर से ऊपर उठने की उत्कंठा रखकर पर्याय बुद्धि को छोड़ने तथा द्रव्य दृष्टि बनाने से ही कल्याण होना संभव होगा, शरीर को धारण करना एवं उसका जीर्ण-शीर्ण होकर छूट जाना अनादिकाल का क्रम है।
अभी तक अनेकों बार शरीर धारण करने का हमारा पुरातन इतिहास रहा। यही सबसे बड़ी बीमारी है, जो शरीर को आत्मा मानकर एवं उसे ही सुख-शांति का साधन मान अनर्थ की ओर ले जाती है। शरीर को माध्यम बनाकर अपना परिचय पाने का प्रयास नहीं किया, इसलिए आत्मा का परिचय आज तक नहीं हो सका। शरीर और इंद्रियों से आत्मा को जानने का प्रयास हमने आज तक नहीं किया है, पर शरीरातीत दशा को पाने पर ही आत्मा को जाना जा सकता है। और ऐसे लोगों ने ही सुख के भाजन बनकर हमारे सामने आदर्श प्रस्तुत किये हैं।
उस पथिक की क्या परीक्षा,
जिस पथ में शूल न हो |
उस नाविक की क्या परीक्षा,
जो धारा प्रतिकूल न हो ||
आचार्यश्री ने कहा कि इस कलिकाल में प्रतिकूलताओं की तो भरमार है पर उनके बीच में रहते हुए भी, बुद्धि के प्रयोग द्वारा प्रयत्न करने पर उन पर विजय पाई जा सकती है। शरीर को पुष्ट बनाना भी अपने आप में सहज नहीं, शारीरिक क्षमता के साथ आत्म-विश्वास और साहस ही काम करता है। ऐसी दशा में शारीरिक क्षमता भले ही क्षीण होती जाती है पर सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण की तैयारी करने में काय और कषाय को कम करने के कारण स्वरूप बाह्य और आभ्यन्तर सामग्रियों पर नियंत्रण करने रूप सल्लेखना की जाती है। अत: व्रतों का पालन करते हुए पूर्ण उत्साह पूर्वक प्रतिक्षण जागरूक रहकर समाधिमरण की साधना करने वाला अधिकतम ७ या ८ भव अथवा कम से कम २ या ३ भवों में ही मुक्ति का अधिकारी बन जाता है।
इस शताब्दी में युग प्रमुख, समाधि सम्राट्, आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज ने विधिवत् सल्लेखना धारण की थी, आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने भी वैसा ही विधिवत् समाधिमरण प्राप्त किया। यह साधना वर्षों पूर्व प्रारंभ होकर अंत में महीनों तक चल सकती है। निर्दोष रीति से ऐसे समाधिमरण की प्राप्ति हेतु बड़े-बड़े महान् संत, आचार्य भी इच्छुक रहते हैं। इस संसार में मोह के कारण ज्ञान चक्षु बंद रहते हैं पर ज्ञानी जन ऐसे होते हैं जो समाधि के समय बाहरी आँखो के साथ भीतरी आँख भी खुली रखते हैं जिससे वह मृत्यु का प्रति समय ही साक्षात्कार करते रहते है।
महावीर भगवान् की जय!
Edited by admin