भगवान महावीर के २५००वे निर्वात्सव के अंतर्गत श्रमण संस्कृति परिषद् की सभा में उद्बोधन
संस्कृति और श्रमण दो शब्द हैं। सर्व प्रथम श्रमण का अर्थ क्या है? श्रमण अर्थात् ज्ञानी, यानि केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिए जो श्रम करे वही श्रमण है। कहा भी है: श्रमेण न लाभाष्य ज्ञान लाभाय य: अहर्निश प्रयत्नं करोति श्रमणः। वह साधना को आगे बढ़ाते हुए साध्य की ओर बढ़ सकता है। अभीष्ट की प्राप्ति बिना श्रम के नहीं। कर्म भूमि में ही श्रम होता है, वहाँ के रहने वालों को श्रमण कहते हैं, वे कर्म भूमिज कहलाते हैं, कर्म भूमिज कहो या श्रमण कही एक ही बात है। भोग भूमि में रहने वाले श्रमण नहीं कहलाते। उस व्यक्ति को श्रम का अनुभव होता है जो उसके फल से वंचित हो जाता है, जब फल मिल जाता है तब वह श्रम नहीं कहलाता है, वह कहेगा कि बहुत आनन्द आया वह विश्राम की आवश्यकता नहीं समझता।
श्रम करने के उपरांत ज्ञान की प्राप्ति न हो , यह मुश्किल है। जो घड़ी की तरफ देखकर काम करने वाले हैं, उन्हें श्रम का फल तो इष्ट है पर श्रम इष्ट नहीं है। वे चाहते हैं कि पसीना तक नहीं आवे और बढ़िया-बढ़िया खाने को मिले, ऐसे लोग एक समय भी सुख का अनुभव नहीं कर सकते हैं। भारत भूमि में इस समय परिश्रम करके फल प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञान के लिए जो प्रक्रिया है, वह श्रम है, और जो श्रम करता है, वह श्रमण है। महान् आत्मा का यही प्रयत्न रहा है कि केवल ज्ञान की प्राप्ति हो, इसी के लिए उन्होंने अनेक श्रम किए।
आज श्रम को दूर रखने वाली महान्--महान् विभूतियाँ मिल जायेंगी, वे श्रम को दुख का कारण मानतीं हैं। श्रम के द्वारा जब केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तो फिर भौतिक सुख की क्या बात है? श्रम मानसिक, शारीरिक भूख को भी दूर कर देता है। अगर आप खूब खाना खाएँ और श्रम न करें, हाथ पांव न हिलाएँ तो रुधिर की गति रुक जाएगी और मरघट तक भी पहुँचने की नौबत आ सकती है। खाने में परिश्रम करना पड़ता है। इसका द्योतक खाते वक्त पसीना आता है। आज हर सेठ, विद्वान् की दृष्टि में हरेक कार्य नौकरों के द्वारा हो जाये, वही अच्छा। यहाँ तक कि नौकर ही कपड़े पहना दे यह प्रमाद की ओर अग्रसर होना है, प्रमाद की पराकाष्ठा है, यह प्रमाद सबसे भयानक है। प्रमत्त को गाली कहा है, भुभुक्ष कहा है। श्रम से मत डरो बल्कि प्रमाद से डरो। वीरों के पास श्रम पलता है, कायरों के पास प्रमाद। श्रम वीरों का आभूषण है। समंतभद्राचार्य श्रमणपुंगव थे, उन्होंने श्रमणत्व की रक्षा की है। संसारी लोग स्वार्थ परायणता में डूबकर दिन भर अपने स्वार्थ के लिए मेहनत करते हैं और रात को थक कर सो जाते हैं, अपनी जीवन रक्षा के लिए दूसरों का नाश हो जाये तो कोई बात नहीं। दिन भर यूं समाप्त कर दिया और रात सोने में समाप्त कर दी, किन्तु आज तक उस श्रमण संस्कृति की रक्षा का आप लोगों ने उपाय नहीं किया। समंतभद्राचार्य ने स्वयं के साथ-साथ पर का भी कल्याण चाहा, उन्होंने आलस्य को, प्रमाद को पैर के नीचे दबा दिया। दिव्य शक्ति की धारक आत्मा में पहले जो मल चिपकाने में परिश्रम किया, वीरों का यह काम है कि श्रम करके उसे हटावें। आप चाहते हैं कि मैं किसी से नहीं घबराऊँ, पर सब मेरे से घबरावें। प्रमादी से सब घबराते हैं, पर अप्रमत्त से कोई नहीं। क्योंकि अप्रमत व्यक्ति भय संज्ञा से दूर रहता है, और वह विश्व के साथ अपना कल्याण चाहता है।
जो पतित आत्मा को पावन बनाने की चेष्टा नहीं करता है और आत्मा पर मल ला-ला कर रखता है, उसके समान कोई पापी नहीं है। वह भले ही नर हो पर वानर बनने वाला है तथा अन्त में नरक चला जाएगा, क्योंकि उसने प्रमाद को अपना रखा है। ज्ञान की उपासना करने वाला व्यक्ति एक क्षण को भी प्रमाद को नहीं अपनाता है, क्योंकि इसको अपनाने पर वह अधोगति का कारण बन सकता है।
Duty का मतलब भी श्रम है। आज देश में Duty के समय भी काम नहीं होता। इसी कारण सबसे ज्यादा पतन हो रहा है। ८ घण्टे की Duty में भी श्रम नहीं करना, पसीना तक न आवे, यह कायरता है। इससे देश डूबता है, वह खुद डूबता है और आने वाली संतान को भी डुबोता है, वह श्रमण नहीं कहलाएगा। एक घण्टा श्रम करके वह श्रमदान करे। आज श्रम न करके वेतन बढ़ाने की बात की जाती है, हड़तालें की जाती हैं, इसका कारण श्रमण संस्कृति को भुला रखा है। आज श्रमण तो बहुत दूर है पर रमण यानि विषय वासना की पुष्टि हो रही है। विद्या, ज्ञान की प्राप्ति चाहते हो तो सुख को ही आराम दे दो, उसे भूल जाओ। परिश्रम को फूलमाला के समान अपनालो तभी अपने जीवन में कुछ उद्धार कर सकते हो। ज्ञान तथा वित्त भी न हो तो भी परिश्रम के द्वारा ख्यातिवान को भी कुछ समय के लिए नीचे बिठा सकते हो। अगर हम ज्ञान के बिना भी भगवान् महावीर के पथ के अनुरूप चलने लग जाये तो अपना कल्याण कर सकते हैं। जीवन की मौलिकता को समझो। समय की Value (कीमत) करो और अपना उद्धार करो।
जो पढ़ता है, लिखता है, बोलता है, उसके बजाय नहीं बोलने वाला भी ज्यादा उद्धार कर सकता है। ज्ञान को लेकर भी मद की प्रादुभूति हो जाती है। अत: समता, वीतरागता और ऋजुता को नहीं छोड़ना है। दूसरों के हित को ध्यान में रखना है। सिर्फ नाम से श्रमण नहीं काम से मतलब है। अत: ऐसे श्रम को अपनाओ जिससे स्व पर हित हो।