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मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता प्रारंभ ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आदर्शों के आदर्श 10 - शंखनाद

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    "भावना भवनाशिनी" इस बात को मैं आस्था के साथ स्वीकार तो करता हूँ लेकिन यह/ वह और बलवती बने इस विश्वास के साथ आप लोगों के सामने रख रहा हूँ।

     

    बीच में एक व्यक्ति ने कहा था कि चाबी के पास ऐसी शक्ति रहती है कि जो हथौड़े में भी नहीं होती लेकिन कभी-कभी जब चाबी गुम जाती है तो हथौड़े का प्रहार भी करना पड़ता है। चाबी गुमने के बाद ताला तोड़ना अपराध नहीं है। ताला जब खुलता नहीं तब तोड़ा ही जाता है।

     

    हिंसा को रोकने के लिये कोई प्रतिहिंसा करता है तो उसे हिंसा की संज्ञा नहीं दी जाती। व्यवहार में जैसे पुलिस हिंसात्मक दंगे के लिए गोली फायर भी करती है लेकिन हिंसक नहीं मानी जाती। लगती है उसमें हिंसा सी लेकिन अहिंसा को जगाने के लिये वही एक काम आती है। यदि तेज आवाज के साथ बोलने से हिंसा होती है तो सबसे ज्यादा दिव्यध्वनि में हिंसा होनी चाहिए थी लेकिन होती नहीं। शंखनाद किया जाता है तो उस नाद में हिंसा नहीं होती। हिंसा को हिंसा की वृत्ति से दूर करने के लिये वह शंखनाद किया जाता है तभी सामने वाला व्यक्ति भयभीत होता है अन्यथा नहीं। जब दुर्योधन ने अपनी नीति नहीं छोड़ी तब पाण्डवों को मजबूरन युद्ध का शंखनाद करना पड़ा। आज भारत की राजनीति में जो दुनीति आ गई है तब महाभारत को याद कर लेना चाहिए।

     

    आज भारत भूमि रक्त से ओतप्रोत हो रही है। ऐसी स्थिति में परीक्षा की घड़ी है भारतवासियों की। एक बार कृष्ण के हाथ में चोट लग गई, उस समय सत्यभामा एवं रुक्मणी पास में थीं। दोनों ने पूछा क्या हो गया? ओ हो! हाथ में खून बह रहा है, बहुत कष्ट है? सत्यभामा कहती है रुको, मैं कपड़ा लाती हूँ बांधने के लिए। वह कपड़ा लेने चली जाती है खून बहता रहता है। वहीं पर रुक्मणी थी, क्या हो गया? ये देखो धारा बह रही है वह कपड़ा लेने नहीं दौड़ी उसने सोचा कपड़ा लेने जाऊंगी तब तक तो कितना खून वह जायेगा। अत: उसने पहनी हुई साड़ी के पल्ले को फाड़कर बाँध दिया। वह बहुत बढ़िया साड़ी थी। उसको उसने फाड़ दिया और उसको बाँध दिया। तब तक सत्यभामा आ जाती है कपड़ा लेकर के लेकिन वह पुराना कपड़ा ले आती है।

     

    जहाँ पर जीवन का सवाल है वहाँ पर जड़ वस्तुओं का महत्व नहीं होता है। हम लोग जहाँ पर हैं वहीं पर जीवन का संहार हो रहा है लेकिन सत्यभामा जैसे प्लानिंग बना रहे हैं, योजनाएँ बन रही हैं और कागज के पत्रों के ऊपर हम कुछ लिखकर के कुछ भेज रहे हैं और नेता लोग बड़े-बड़े चश्मा लगाकर के पढ़ेंगे विधानसभा में। पढ़ने वाले व्यक्तियों की आँखों में वे अक्षर लाल-लाल नजर नहीं आ रहे हैं क्योंकि उनके आँखों पर गोगल (धूप का चश्मा) लगी हुई है इसलिए वो खून के अक्षर भी आज हरे-हरे जैसे नजर आ रहे हैं।

     

    अरे बंधुओ! योजनाएँ मत बनाओ, जो पशु कट रहे हैं उनको अपने कपड़े फाड़ कर पट्टी बांधने की जरूरत है। करोड़ों की तादाद में उन पशुओं का हनन हो रहा है और हनन करके मांस का निर्यात कर रहे हैं और आप प्रार्थना कर रहे हैं उनसे । वो क्या सुनेंगे? सत्यभामा को जैसे साड़ी प्यारी थी कृष्ण के खून से अधिक, उसी प्रकार नेताओं को धन प्यारा है पशुओं के खून से अधिक। भामा के पास कितना प्यार था पति के प्रति? उन्होंने बड़ी-बड़ी साड़ियाँ और जीवन के लिये बहुत कुछ दे दिया लेकिन खून को बन्द करने के लिये उनके पास कोई कपड़ा नहीं मिला क्योंकि यह कपड़ा पहनने का है, यह खून बन्द करने का नहीं। इतनी अक्ल नहीं है, विवेक नहीं। आज जड़ की रक्षा के लिए चेतन का खून बहाया जा रहा है। विश्व की सारी संपदा को लेकर भारत में रख दो। भारत में कोई किसी प्रकार से उन्नति नहीं होनी वाली है। भारत ने जड़ सम्पदा से कभी अपना विकास नहीं किया उसकी उन्नति तो अहिंसा के माध्यम से ही हुआ करती है। द्रोपदी के सम्बन्ध में भी एक घटना आती है उन्होंने भी एक बार अपना आँचल फाड़कर बाँध दिया था श्रीकृष्ण को जिससे खून बहना बंद हो गया था। किसका पक्ष लिया, पाण्डवों का पक्ष नहीं लिया। सारी की सारी सभा देखती रही। कौरवों में महान्--महान् व्यक्ति भी रहे लेकिन सत्यभामा जैसे प्लानिंग बना रहे हैं। सबको सभा देखती रही। वह उस द्रोपदी का चीर जब खींचने लग जाते हैं। किसी को हिम्मत नहीं थी और वो कहाँ थे? सत्यनारायण! पता नहीं है लेकिन वह साड़ियाँ तो आती रहती थी। साड़ियों के ढेर लगते चले गये, पाण्डव तो देखते रह गये और वह दुर्योधन व दु:शासन पसीना-पसीना बहाते रह गये और लज्जा से नीचे झुक गये। जिसे दासी कहकर पुकारा उसके चरणों में झुक करके कहते हैं- यह हमारी गलती है। पशु कुछ समय तक देख सकते हैं आप लोगों के अत्याचार और अनाचार। यह ध्यान रखना, सती के ऊपर प्रहार होता हुआ सत्य एवं समर्थ व्यक्ति भी अगर देखता है तो वह भी सत्य एवं समर्थ का नहीं, असत्य का ही समर्थन कर रहा है।

     

    आप लोग अहिंसा के समर्थक और पुजारी हैं और आपके सामने-सामने गौ-माता के ऊपर प्रहार हो रहे हैं। माता ही नहीं महा माता है। जन्म की माँ तो साल-छह माह ही दूध पिलाती है यह गौ-माता का तो सारी जिन्दगी आप लोग दूध पीते रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की नस-नस में इस गीमाता का दूध बहता रहता है। ऐसी गौ-माता को जीवित कटता हुआ देखते हो, कितने शर्म की बात है? कितने पाप की बात है?

     

    जिस देश में कृतघ्नता पलती है उसके पास कितना भी वित्त आ जाये, कुछ काम का नहीं। आप लोगों को कहते-कहते मैं थका नहीं ये आप ध्यान रखना, लेकिन कभी-कभी वाणी का महत्व भी कम हो जाता है। क्यों कम हो जाता है? जब कान बहरे हो जाते हैं तो वाणी काम नहीं करती। काम करने के लिये आँख पर्याप्त है और ध्यान रखना कि ऑख भी चली जायें और कान भी चले जायें एक मात्र दिल और आस्था पर्याप्त है। वह बिना ऑख खोले और बिना बोले भी काम कर सकते हैं। आप लोगों को अब बोलने की आवश्यकता नहीं और देखने की भी कोई आवश्यकता नहीं। एक निष्ठा के साथ उस दिशा में पूरी शक्ति, जितनी शक्ति लगाकर काम करना है, प्रारम्भ कर दीजिये। अहिंसा उसके बिना हम जीवित देख नहीं सकते।

     

    पुराण पोथियों में जो अहिंसा के एक मात्र वर्णन/परिभाषा है, वह वस्तुत: उसका स्वरूप नहीं है। शब्दों का हम स्वरूप देख सकते हैं ग्रन्थों में लेकिन जीवित अवस्था में अहिंसा का दर्शन देखना चाहते हैं तो आप लोगों को चाहिए मांस निर्यात और निर्यात के कारणों पर विचार कर उसे रोकें। एक व्यक्ति ने कहा निर्यात उसका भी किया जा सकता है जो मांस निर्यात कर रहे हैं अर्थात् ऐसे नेताओं का भी निर्यात हो जाना चाहिए तभी कार्य ठीक होगा। लेकिन यह सब व्यंग नहीं एक ढंग हो जाए। वस्तुत: इस समय मुस्कान की बात नहीं इस समय सिद्धान्त की बात है। यह गोष्ठी हंसने के लिए नहीं, व्यंग के लिए नहीं किन्तु एक भीतर के ढंग की। अन्तरंग को आप खोलकर सामने लाकर के रखिए और ऐसे अन्तरंग बनाईये कि निश्चत रूप से सामने वाले का हृदय परिवर्तन हो जाए। भक्ति के द्वारा कुछ समय तक काम होता है फिर बाद में युक्ति और शक्ति काम करती है। युक्ति और शक्ति के काम करते समय भक्ति काम नहीं करती है ऐसी बात नहीं है, वह रूप भी आना आवश्यक है। जिस समय अपनी ही अहिंसा की मौत होते हुए देखते हैं उस समय हम आराध्य को ही खो रहे हैं। यह भारत आराध्य को खोने नहीं देगा अन्यथा आराधना किसकी करेगा यह? ये आराधक/ये भक्त है और भगवान् यदि नहीं होगा/आराध्य नहीं रहेगा तो भक्ति हमारी अधूरी ही नहीं बल्कि समाप्त हो जायेगी। भगवान् और भत के बीच में भक्ति के अलावा दूसरा कोई आ जाता है तो वह भक्त कभी भी सहन नहीं कर सकता। वह पर्दा उसके लिये हानिकारक सिद्ध हो जाता है। 

     

    अहिंसा के सामने यदि हिंसा ताण्डव नृत्य करने लग जाती है तो उसको दूर करने के लिये शंखनाद भी आवश्यक होता है और उस समय अर्जुन को कृष्णजी ने उपदेश दिया था। अर्जुन को/ योद्धा को कायरता की बात नहीं करना चाहिए और काया की भी बात नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति काया में बैठकर भी कायरता की बात कर रहा है वह काया के भीतर जो आत्म तत्व है उसको भूल रहा है। उस आत्मतत्व को याद करने की आवश्यकता है और ऐसे अर्जुन को संबोधित करने वाले वो कृष्ण रणांगन में कह देते हैं  "जातस्य मरण ध्रुवम् ", जो जन्म लेता है उसका मरण भी निश्चत है/ध्रुव है।

     

    "ध्रुव".....जो जन्म लेता है, उसका मरण भी निश्चत है, ध्रुव है। 'ध्रुवं जन्म मृतस्य च' वह मरण होने के पश्चात् जन्म भी निश्चत होता है। किन्तु जो व्यक्ति पाप का दास बनकर के पाप की उपासना में लगा है उसको मार्ग पर लाने के लिए रणांगन में भी जाना पड़ता है। उसे धनुष बाण के माध्यम से सत्मार्ग दिखाना भी क्षत्रियता है। कोई भी व्यक्ति चाहे गुरु हो या शिष्य हो या माँ हो, पिता हो, भाई हो, बहिन हो जो व्यक्ति गलत लाईन पर चल रहा हो, उसे लाईन तक लाने के लिये उसको यह आवश्यक होता है। यह क्षत्रियों का धर्म माना जाता है। यह बनियों का धर्म नहीं है।

     

    इतना कहना पर्याप्त था, अर्जुन धनुष उठाकर रणांगन में कूद जाता है। जो गुरु द्रोणाचार्य इनको शिक्षा देने वाले हैं, दीक्षा देने वाले हैं और जो सारा का सारा पढ़ाने वाले हैं, उन्हीं गुरु के ऊपर ही शिष्य के तीर कमान चालू हो जाते हैं। आप लोंग कमान सम्हाल लो। तीर को कोई सम्हालने की आवश्यकता नहीं। तीर हाथ में नहीं रखा जाता, कमान हाथ में रखा जाता है। तीर को पीछे लेकर उसके ऊपर लगाने की आवश्यकता है।

     

    बीच में एक व्यक्ति ने बहुत अच्छा इशारा किया कि बहुत सारे तीर हैं लेकिन हाथों में कमान नहीं है। इसका अर्थ हमें तो यही समझ में आता है कि आप लोग तीर के काम आ गये हैं लेकिन नेतृत्व के अभाव में आपके पास कमान नहीं रहा। अब आवश्यकता है कि सारे के सारे तीर मिलकर एक नेतृत्व रूपी कमान को वहाँ पर भेज दो और जितने भी व्यक्ति हैं जो हिंसा के समर्थक हैं उन सारे के सारे को अलग निकाल दो। बाण से कोई भी नहीं डरता किन्तु डरता है कमान से। कमान यदि ठीक नहीं रहेगी, टूटी हुई, मुड़ी हुई कमान रहे तो बाण आगे नहीं भेजा जा सकता। इसको हम भेजेंगे भी तो कोई काम करने वाला नहीं है। ऐसे कमान की आवश्यकता है हमें कि जो कमाल करके दिखा सके। चिल्लायेंगे तो कुछ भी नहीं होने वाला।

     

    अहिंसा के नारे को किनारों तक पहुँचना चाहिए। लहर को अवश्य किनारे तक पहुँचाना चाहिए। छोटी-छोटी लहर की आवश्यकता है जो अन्त तक पहुँच जाये और उनको वो जागृति प्रदान कर सके। धन्य हैं वे दिन जिस समय हम सारे के सारे नेतृत्व को सुनकर के देख करके अवश्य कहेंगे कि हे अर्जुन! हम आपके सामने कुछ कहना नहीं चाहते। तुम क्या चाहते हो वह करके दिखाता हूँ।अब बताना कुछ नहीं, अब तो बता चुके और कर चुके, अब तो समझना आवश्यक है। अभी भी यदि नहीं समझते हो तो हट जाओ वहाँ से। यह कहना आवश्यक है कि लोकतंत्र में राजनीति नहीं चलना चाहिए। राजा हो तो राजनीति चले लेकिन आज प्रत्येक राजनीति चलाना चाहता है। राजा तो होता ही नहीं प्रजातन्त्र में। राजनीति गौण होना चाहिए और प्रजा के हित में ही सारे कार्य सम्पन्न होना चाहिए तभी यह संस्कृति जीवित रह सकती है अन्यथा नहीं रहेगी।

     

    यह देश भोग प्रधान नहीं दया प्रधान है, अब ये ध्यान रखना। यदि प्यार की परीक्षा का समय है। कृष्ण का नहीं कृष्ण की गाय का खून बह रहा है। उन्हें रुक्मणी एवं द्रोपदी के समान आँचल फाड़कर बांधने की जरूरत है। इतने सारे कट रहे हैं फिर भी आप लोगों को अपने ही खून का प्यार है तो वह शाकाहार/ये अहिंसा की उपासना आप लोगों में कहाँ चली गई? समझ में नहीं आता है। संगोष्ठियों का भी प्रभाव पड़ रहा है लेकिन पढ़ाते हुए वह यहीं-यहीं तक रुक रहा है। यह सारीसारी उत्तेजना, ये सारे-सारे नारे, ये सारी-सारी तालियाँ यहीं तक ही रह रही हैं, वह बाहर तक नहीं जा पा रही हैं। कल भी, परसों भी हमने यही कहा था कि यदि अहिंसा धर्म का संरक्षण करना चाहते हो तो अहिंसा का अलख जगाओ। अब बहुत ज्यादा देर लगाना अच्छा नहीं लग रहा है। अति होने के उपरान्त इति भी हुआ करती है। निश्चत रूप से हिंसा अब अति की ओर चली गई अत: इति निश्चत है, ऐसा समझता हूँ। पत्थर जब पिघल सकता है तो आपका दिल कोई पत्थर तो नहीं। जब बड़े-बड़े क्षत्रियों के दिल भी टूट गये और पिघल गये और पानी-पानी हो गये तो क्या आप उनसे भी बढ़कर हैं क्या? नहीं।

     

    इस धरती पर अहिंसा के उपासक बड़े-बड़े क्षत्रिय भी आँखों से पानी लाये हैं क्योंकि इस पीड़ा को वे अपनी आँखों से देख नहीं सकते थे। छाती के ऊपर तीर की मार को सहन करने वाले/ वे छाती के तीर उस अहिंसा के सामने पानी-पानी हो जाते थे। ऐसे वंश में आज जन्म लिये हुए हैं और आज आपकी वह अहिंसा और वह देश का गौरव समाप्त हो गया। आज आपकी वह अहिंसा और वह देश का गौरव और वंश का एक प्रकार से स्वाभिमान आप में से कहाँ निकल गया? पता नहीं या पैसे के कारण आपकी बुद्धि दिनों-दिन भ्रष्ट ही होती चली जा रही है।


    मैं ज्यादा न कह करके समय ज्यादा हो गया है इतना समय ज्यादा लेना नहीं चाहिए था मुझे लेकिन फिर भी ले लिया क्योंकि आपने अन्त में मुझे रखा था इसलिए मैं अन्त में यही कहना चाहता हूँ- आज जिस उत्साह के साथ यहाँ पर कवि लोग आये हैं जो भिन्न-भिन्न लोग मंचों के द्वारा अपनी कविता के पाठ करने वाले भी मांस निर्यात बन्द के बारे में आस्था के साथ बहुत-बहुत दूर-दूर से आये हैं, मैं उनको बहुत ही अच्छे ढंग से आशीर्वाद देता हूँ और वो जहाँ कहीं भी जायें इस बात को पहुँचाएँ और अहिंसा के बिगुल को बजाते हुए इसमें यश और सफलता प्राप्त करते ही जायें, इस प्रकार का मेरा भाव है और आशीवाद है।


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