तप, दोषों की निवृत्ति के लिए परम रसायन है। मिट्टी भी तपकर ही पूज्य बनती है। अग्नि की तपन को पार करके ही वह पात्र के रूप में उपयोगी बन जाती है।
भारत भूमि का एक-एक कण तपस्वियों की पद-रज से पुनीत बन चुका है। तप की प्रशंसा केवल इन महर्षियों, योगियों और तपोभूत पुरुषों द्वारा ही नहीं गायी गयी। अन्य पुरुषों, कवियों ने भी तप की यशोगाथा गायी है। राष्ट्रकवि स्वर्गीय 'मैथिलीशरण गुप्त' ने लिखा-
हैनारायणा नारायणा धन्य है नर साधना |
इन्द्रपद ने की है जिसकी शुभाराधना ||
भोगासक्त देवों ने भी इस तप-साधना की प्रशंसा की है। वे स्वर्गों से उतरकर उनका कीर्तन-पूजन करने के लिये आते हैं जो नर से नारायण बनने की साधना में लगे हैं। तप, दोषों की निवृत्ति के लिये परम रसायन है। मिट्टी भी तपकर ही पूज्य बनती है। जब वह अग्नि की तपन को पार कर लेती है तब पक्के पात्र घड़े आदि का रूप धारण कर लेती है और आदर प्राप्त करती है। कहा भी है-‘पहले कष्ट फिर मिष्ट'। पदार्थ की महत्ता वेदना सहकर ही होती है।
आप दुखी होने पर सुख का रास्ता ढूँढ़ते हैं और साधु समागम में आते हैं। साधु-समागम में सुख मानकर भी यदि कुछ प्राप्त नहीं करते तो आपका आना व्यर्थ ही होगा। जिस भू-तल पर हम रहते हैं वह एक प्रकार का जंक्शन है। प्रत्येक दिशा में यहाँ से मार्ग जाते हैं। यहाँ से नरक की ओर यात्रा की जा सकती है, स्वर्ग जाया जा सकता है, पशु-योनि को पाया जा सकता है मनुष्य भी पुनः हुआ जा सकता है और परमात्मा पद की उपलब्धि भी की जा सकती है। जहाँ भी जाना चाहें, जा सकते हैं। साधना स्वाश्रित है।
गृहस्थी में आतप है, कष्ट है, छटपटाहट है। जैसे पूड़ी कड़ाही में छटपटाती है, वही दशा गृहस्थ की होती है। तप द्वारा उस कष्ट का निवारण संभव है। एक बार गृहस्थ अवस्था में मेरी बाँह मोच गयी थी, मैंने स्लोन्स बाम लगायी। उससे सारा दर्द धीरे-धीरे जाता रहा। इसी तरह संसार की वेदना को मिटाने के लिये तप रूपी बाम का उपयोग करना होगा। कार्य सिद्धि के लिए तप अपनाना ही होगा। लोहे की छड़ आदि जब टेढ़ी हो जाये तो केवल तपाकर ही उसे सीधा बनाया जा सकता है अन्यथा सभी साधन व्यर्थ हो जाते हैं। उसी प्रकार विषय और कषाय के टेढ़ेपन की निवृत्ति के लिये आत्मा को तपाना ही एकमात्र अव्यर्थ साधन है।
इच्छा का निरोध कौन करें? वानर? नहीं नर, केवल नर। वानर तो पशु है। नारकी भी नहीं कर सकते। देव भी नहीं कर सकते। ये सब तो अपनी गलती का प्रायश्चित कर सकते हैं। साधना तो केवल नर ही कर सकता है। धन्य है नर साधना ! नर-पद एक ऐसा मैदान है जहाँ पर नारायण बनने का खेल खेला जा सकता है। अभी कुछ दिन पहले एक सज्जन कह रहे थे‘धन्य है हमारी यह सुहाग नगरी! फिरोजाबाद! इसने आचार्य महावीरकीर्ति जैसी मूर्ति को उत्पन्न किया है।” ठीक है महावीरकीर्ति महाराज यहाँ पैदा हुए और उन्होंने साधना द्वारा अपना कल्याण किया, किन्तु आपको क्या मिला? आप भी महावीरकीर्ति महाराज जैसे बने क्या? महावीरकीर्ति महाराज जैसे तपस्वी आपके लिये आदर्श तो बन सकते हैं आपकी कालिमा का संकेत दे सकते हैं किन्तु वे स्वयं आपकी कालिमा मिटा नहीं सकते। दर्पण आपके मुख पर लगे धब्बे को दिखा सकता है लेकिन वह धब्बा जब भी मिटेगा आपके प्रयास से ही मिटेगा। आपको यह मनुष्य जीवन मिला है तो साधना करनी ही चाहिए, अन्यथा आप जानते ही हैं कि ‘तप' का विलोम 'पत' होता है अर्थात् गिरना। साधना के अभाव में पतन ही होगा।
इच्छाएँ प्रत्येक के पास हैं किन्तु इच्छा का निरोध केवल तप द्वारा ही संभव है। यदि इच्छाओं का निरोध नहीं हुआ, तो ऐसा तप भी तप नहीं कहा जायेगा।‘तपसा निर्जरा च' अर्थात् तप से निर्जरा भी होती है। यदि तप करने से आकुलता हो और निर्जरा न हो तो वह तप भी तप नहीं है। साधन वही है जो साध्य को, दिशा/लक्ष्य/मंजिल दिला दे सके, कारण वही साधकतम है जो कार्य को सम्पन्न करा दे। औषधि वही है जो रोग की निवृत्ति कर दे। तप वही है जो नर से नारायण बना दे।
गृहस्थ भी घर में थोड़ी-बहुत साधना कर सकता है किन्तु आज तो वह भी नहीं होती। आज का गृहस्थ तो राग-द्वेष और विषय-कषाय में अनुरक्त रह कर उपास्य की मात्र शाब्दिक उपासना कर रहा है। एक राजा था। वह अपने राज्य में दुष्टों का निग्रह करता था और शिष्ट प्रजा का पालन करता था। एक बार लोगों ने राजा से शिकायत की- महाराज, आपके राज्य में एक व्यक्ति ऐसा पैदा हो गया है जो आपकी आज्ञा का पालन नहीं करता और न ही आपका राज्य छोड़ना चाहता है। उसे राजा ने बुलाकर बड़े प्रेम से उसकी आवश्यकताओं की जानकारी ली। एक-एक करके उसने अपनी ढेरों आवश्यकताएँ राजा के सामने रखी। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह व्यक्ति इतनी इच्छाएँ तो रखता है परंतु पुरुषार्थ कुछ भी नहीं करना चाहता। आवश्यकता आविष्कार की जननी है, परंतु आज तो आविष्कार जितने अधिक हो रहे हैं उतनी ही अधिक आवश्यकताएँ बढ़ रही हैं। राजा को उस व्यक्ति की इतनी प्रबल इच्छाएँ देख कर उसे अपने राज्य से निकल जाने का आदेश देना पड़ा। इच्छाओं के कारण उस व्यक्ति को हमेशा दुख झेलना पडा।
अत: केवल आवश्यकता की वस्तुएँ रखी, शेष से नाता तोड़ लो। उपासना वासना नहीं है। उपासना में तो वासना का निरोध है। वासना के निरोध से ही उपास्य से सम्बन्ध स्थापित हो सकता है।
कुछ समयसार पाठी सज्जन मेरे पास आते हैं कहते हैं, महाराज, हमें तो कुछ इच्छा है ही नहीं। न खाने की इच्छा है, न पीने की इच्छा है और न कोई अन्य इच्छा होती है। सब कुछ सानंद चल रहा है। उनकी बात सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। अगर खाने की इच्छा नहीं है तो फिर लड्डू आदि मुँह में ही क्यों डाले जा रहे हैं, कान में या और किसी के मुँह में क्यों नहीं डाल देते। बिना इच्छा के ये सब क्रियाएँ कैसे चल सकती हैं। प्रवृत्ति इच्छा के बिना नहीं होती। प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति के मार्ग पर जाना ही श्रेयस्कर है।