जिस प्रकार ललाट पर तिलक के अभाव में स्त्री का सम्पूर्ण श्रृंगार अर्थहीन है, मूर्ति के नहीं होने पर जैसे मंदिर की कोई शोभा नहीं है, उसी प्रकार बिना संवेग के सम्यक दर्शन कार्यकारी नहीं है। संवेग सम्यक दृष्टि साधक का अलंकार है।
संवेग का मतलब है संसार से भयभीत होना, डरना। आत्मा के अनन्त गुणों में यह संवेग भी एक गुण है। पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि सम्यक दर्शन दो प्रकार का है- सराग सम्यक दर्शन और वीतराग सम्यक दर्शन। संवेग, सराग सम्यक दर्शन के चार लक्षणों में से एक है। जैसे ललाट पर तिलक के अभाव में स्त्री का श्रृंगार अर्थहीन है, मूर्ति के न होने पर मंदिर की कोई शोभा नहीं है। वैसे ही बिना संवेग के सम्यक दर्शन कार्यकारी नहीं है। संवेग, सम्यक दृष्टि साधक का अलंकार है।
संवेग एक उदासीन दशा है जिसमें रोना भी नहीं है, हँसना भी नहीं है, पलायन भी नहीं है, बैठना भी नहीं है, दूर भी नहीं हटना है और आलिंगन भी नहीं करना है। यह जो आत्मा की अनन्य स्थिति है वह सद्गृहस्थ से लेकर मोक्ष-मार्ग पर आरूढ़ मुनि महाराज तक में प्रादुभूत होती है। मुनि पग-पग पर डरता है और सावधान रहकर जीवन जीता है। वह अपने आहारविहार में, उठने, बैठने और लेटने की सभी क्रियाओं में सदैव जाग्रत रहता है, सजग रहता है। यदि ऐसा न हो तो वह साधु न होकर स्वादु बन जायेगा। साधु का रास्ता तो मनन और चिंतन का रास्ता है। उसकी यात्रा अपरिचित वस्तु (आत्मा) से परिचय प्राप्त करने का उत्कृष्ट प्रयास है। ऐसे संवेग-समन्वित साधु के दर्शन दुर्लभ हैं। आप कहते हैं कि हम ‘वीर' की सन्तान हैं। बात सही है। आप 'वीर' की सन्तान तो अवश्य हैं, किन्तु उनके अनुयायी नहीं। सही अर्थों में आप 'वीर' की सन्तान तभी कहे जायेंगे जब उनके बताये मार्ग का अनुसरण करेंगे।
संवेग का प्रारम्भ कहाँ? जब दृष्टि नासाग्र हो, केवल अपने लक्ष्य की ओर हो, और अविराम गति से मार्ग पर चले। आपने सर्कस देखा होगा। सर्कस में तार पर चलने वाला न ताली बजाने वालों की ओर देखता है और न ही लाठी लेकर खड़े आदमी को देखता है। उसका उद्देश्य इधर-उधर देखना नहीं है उसका उद्देश्य तो एकमात्र संतुलन बनाये रखना और अपने लक्ष्य पर पहुँचना होता है। यही बात संवेग की है।
सम्यक दर्शन के बिना पाप से डरना नहीं होता। संसार से ' भीति' सम्यक दर्शन का अनन्य अंग है। वीतराग सम्यक दर्शन में ये 'संवेग' अधिक घनीभूत होता है। संवेग अनुभव और श्रद्धा के साथ जुड़ा हुआ है। इस संवेग की प्राप्ति अति दुर्लभ है। वीतरागता से पूर्व यह प्रस्फुटित होता है और फिर वीतरागता उसका कार्य बन जाती है। संवेग के प्रादुभूत होने पर सभी बाहरी आकांक्षाएँ छूट जाती हैं। जहाँ संवेग होता है वहाँ विषयों की ओर रुचि नहीं रह जाती, उदासीनता आ जाती है।
भरत चक्रवर्ती का वर्णन सही रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है। उनके भोगों का वर्णन तो किया जाता है किन्तु उनकी उदासीनता की बात कोई नहीं करता। एक व्यक्ति अपने बारह बच्चों के बीच रहकर बड़ा दुखी होता है। उसकी पत्नी उससे कहती है- भरत जी इतने बड़े परिवार के बीच कैसे रहते होंगे। जहाँ छियानवे हजार रानियाँ, अनेक बच्चे और अपार सम्पदा थी। उनके परिणामों में तो कभी क्लेश हुआ हो, ऐसा सुना ही नहीं गया। वह व्यक्ति भरत जी की परीक्षा लेने पहुँच जाता है, भरत जी सारी बात सुनकर उसे अपने रनिवास में भेज देते हैं। उस व्यक्ति के हाथ पर तेल से भरा हुआ कटोरा रख दिया जाता है और कह दिया जाता है कि सब कुछ देख आओ, लेकिन इस कटोरे में से एक बूंद भी नीचे नहीं गिरनी चाहिए अन्यथा मृत्युदण्ड दिया जायेगा। वह व्यक्ति सब कुछ देख आया पर उसका देखना न देखने के बराबर ही रहा, सारे समय बूंद गिर जाने का भय बना रहा। तब भरतजी ने उसे समझाया, ‘मित्र, जागृति लाओ, सोची, समझो। ये नव निधियाँ, चौदह रत्न, ये छियानवे हजार रानियाँ, ये सब मेरी नहीं हैं। मेरी निधि तो मेरे अंतरंग में छिपी हुई है- ऐसा विचार करके ही मैं इन सबके बीच शांत भाव से रहता हूँ।
रत्नत्रय ही हमारी अमूल्य निधि है। इसे ही बचाना है। इसको लूटने के लिये कर्म चोर सर्वत्र घूम रहे हैं। जाग जाओ, सो जाओगे तो तुम्हारी निधि ही लुट जायेगी।
कर्म चोर चहुँ ओर सरवस लूटें सुध नहीं।
संवेगधारी व्यक्ति अलौकिक आनन्द की अनुभूति करता है। चाहे वह कहीं भी रहे, किन्तु संवेग से रहित व्यक्ति स्वर्ग सुखों के बीच भी दुख का अनुभव करता है और दुखी ही रहता है |