समय अत्यल्प रह गया है। आज अभी-अभी भगवान् की दीक्षा के उपरान्त आर्यिका दीक्षायें सम्पन्न हुई हैं। भगवान् ऋषभदेव के समय जब भगवान् का वहाँ दीक्षा-कल्याणक महोत्सव मनाया जा रहा है तो पूरी नगरी में उल्लास छाया हुआ है। सब अपने-अपने कर्तव्य में लगे हुए हैं। सबका मनोयोग उसी में लगा हुआ है। आज कैसा भावों का परिवर्तन होने जा रहा है? अभी तक तो आदि कुमार राजा सभी के स्वामी थे, अब अपने स्वयं के स्वामी बनने जा रहे हैं। द्रव्य, क्षेत्र और काल का परिवर्तन उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना भावों का परिवर्तन महत्वपूर्ण है। आज भावों के परिवर्तन का दिन है।
किसी को यह अच्छा भले ही न लगे (पराभिप्राय निवृत्यशक्यत्वात् दूसरे के अभिप्राय का निवारण करना वैसे भी अशक्य है।) किन्तु मोक्षमार्ग में भावों की प्रधानता है। अभी तक राजसत्ता थी। दंड संहिता चल रही थी। साम-दाम, दंड भेद की बात चलती थी किन्तु अब तो अभेद की यात्रा प्रारंभ हो रही है। अब कोई आज्ञा मांगे तो भी आज्ञा नहीं दी जायेगी। अब तो -
'दुखे-सुखे वैरिणी बंधु-वर्गों, योगेवियोगे भवने वने वा।
निराकृता शेष ममत्वबुद्धि, समं मनो मेस्तु सदापि नाथ।'
(सामायिक पाठ - ३)
अब तो सभी के प्रति ममत्व बुद्धि को छोड़कर आत्मा समत्व में लीन होना चाह रही है। भीतर से वैराग्य उमड़ रहा है। यह घटना आत्मोन्नति के लिये प्रेरणादायी है। भारत की संस्कृति आज जीवित है तो इन्हीं आत्मोन्नति की घटनाओं के माध्यम से जीवित है। धन-सम्पदा के कारण नहीं। ज्ञान-विज्ञान के कारण नहीं बल्कि त्याग, तपस्या के कारण भारतभूमि महान् है।
वैभव तो वै अर्थात् निश्चय से भव यानि संसार ही है। इसलिए वैभव, वैरागी को नहीं चाहिए। उसे तो भव से दूर होने के लिये चरित्र-वृक्ष की छाँव चाहिए है। ‘स भव विभव हान्यै नोस्तु चारित्रवृक्ष' भव भव की पीड़ा समाप्त जो जाये, इसीलिए चरित्ररूपी वृक्ष का सहारा लिया जाता है।
कुछ लोग वैराग्य के आदर्श के रूप में आदिनाथ भगवान् के पुत्र भरत चक्रवर्ती का नाम लेते हैं। मुझे तो लगता है कि वैराग्य के आदर्श पात्र यदि कोई हैं तो रामचंद्र जी के छोटे भ्राता भरत हैं। जिन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम राम की शान को, राजा दशरथ के वंश को ओर अपनी माता की कोख को भी शोभा प्रदान की है। जिन्हें सिंहासन की भूख नहीं थी। वैराग्य की भूख थी। उन्हें भवन नहीं चाहिए, वन चाहिए था। उनके आग्रह को सुनकर राम ने कहा- भइया! मुझे पिताजी की आज्ञा है वन जाने के लिये और तुम्हें पिताजी की आज्ञा से सिंहासन पर बैठना है। तुम राज्य मुझे देना चाहते हो तो ठीक है। मैं तुम्हारा बड़ा भ्राता वह राज्य तुम्हें सौंपना चाहता हूँ।
एक तरफ पिताजी की आज्ञा और ज्येष्ठ भ्राता जो पिता तुल्य हैं उनकी आज्ञा और दूसरी तरफ भीतर मन में उठती वैराग्य की भावना। मुनि बनने की प्यास। परीक्षा की घड़ी है और अंत में भरत जी ने कहा कि भइया! जैसी आपकी आज्ञा। मैं सब मंजूर करता हूँ। मैं यहाँ पर रहूँगा आपका कार्य करूंगा।' आपका जैसा निर्देशन मिलेगा वैसा ही करूंगा। लेकिन आपके चरण चिहन इस सिंहासन पर रखना चाहता हूँ।”
कैसी अद्भुत घटना है यह, इतनी त्याग-तपस्या घर में रहकर भी। यह है राजनीति, कि राजा बनना पड़ता था, बनाया जाता था। राजा बनने की इच्छा नहीं रखते थे क्योंकि क्षत्रिय कभी पैसे के भूखे नहीं रहते। अब तो वैश्य वृत्ति आ गयी। पैसे और पद का राग बढ़ गया है। सिंहासन के ऊपर ज्येष्ठ भ्राता के चरण चिह्न रखकर, उनको तिलक लगाकर, उनकी चरण-रज माथे पर लगाकर प्रजा के संरक्षण के लिये एक लघु भ्राता और पिता की आज्ञा से वन जाने वाले एक ज्येष्ठ भ्राता की बात अब मात्र पुराण में रह गयी है। रामायण में रह गयी है।
इस दीक्षा कल्याणक के आयोजन में कि जिसमें मुकुट उतारे जा रहे हैं, सिंहासन त्यागा जा रहा है। वैराग्य की बाढ़ आ रही है, सब कुछ देखकर भी आपकी सत्ता की भूख, शासन की भूख बढ़ती जाये तो क्या कहा जाये। बंधुओ! उन राम को याद करो। लघु भ्राता भरत को याद करो। अपने ज्येष्ठ भ्राता के पीछे-पीछे चलने वाले लक्ष्मण और महलों में रहने वाली रानी सीता के त्याग को याद करो। सारे प्रजाजनों की आँखों में आँसू हैं लेकिन राजा राम अपने कर्तव्य में अडिग हैं। कैसी विनय और वैराग्य का आचरण है। यह वैराग्य की कथा आज के श्रमणों को भी आदर्श है, गृहस्थों के लिये तो आदर्श है ही। श्रमण की शोभा राग से नहीं, वीतराग निष्कलंक पथ से है। दिगंबरी दीक्षा ही निष्कलंक पथ है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है मेदनी पति भी यहाँ के भक्त और विरक्त थे। होते प्रजा के अर्थ ही रोज कार्यासक्त थे प्रजा के लिये राजा होते थे, मात्र सिंहासन पर बैठने के लिये या अहंकार प्रदर्शित करने के लिये नहीं। उनकी प्रभु भक्ति और संसार से विरक्ति हमेशा बनी रहती थी। आज भी ऐसे ही नीति-न्यायवान्, भक्त और विरक्त भरत और राम के आये बिना शांति आने वाली नहीं है।
अंत में यही कहना चाहता हूँ कि धन्य हैं वे वृषभनाथ भगवान् जिन्होंने राष्ट्र पद्धति को अपनाते हुए प्रजा को अनुशासित किया और बाद में स्वयं आत्मानुशासित होकर दीक्षा लेकर वन की ओर विहार कर गये। भरत चक्रवर्ती आदि भी उनकी आज्ञा के अनुसार प्रजा का पालन करते हुए मुक्त हुए। हमें क्षात्र-धर्म की रक्षा के लिये और दिगम्बरत्व की सुरक्षा के लिये वीतरागता को ध्यान में रखना चाहिए। जंगल में भले ही न रह पायें, लेकिन जंगल को याद रखना चाहिए। वीतरागता के बिना न शिरपुर मिलेगा और न ही शिवपुर ही मिलेगा। वीतरागता की उपासना ही हमारा परम कर्तव्य है। वही मुक्ति का एकमात्र उपाय है।