आत्मा के दोषों को जिन्होंने धो दिया है, उन्हें हमारा नमस्कार हो। आचार्यों, संत-महात्माओं की दृष्टि द्वेष की तरफ नहीं जाती है। अन्दर में जो विशेषता होनी चाहिए, उसी की तरफ आचार्यों की दृष्टि रहती है।
भगवान् महावीर ने आत्मा में जो कलिमा (राग-द्वेष रूपी) लगी हुई थी उसे धो दिया है, इसलिए उन्हें नमस्कार किया है। गुणों के समीचीन परिणमन होने पर ही सुख की प्राप्ति होती है। यदि हम शीतल जल चाहते हैं तो हमें पानी का गर्म हवा व उष्णता से दूर रखना पड़ेगा। अनादिकाल से कर्म का संबंध आत्मा के साथ जुड़ा हुआ है, उसे प्रेरणा, क्षेत्र काल इत्यादि को पाकर विशुद्ध बनाया जा सकता है। अनेक व्यक्ति इस रहस्य के बारे में जानते भी नहीं हैं।
वर्तमान में विद्या का प्रचार बहुत हो रहा है। आज से ५० साल पूर्व अगर कोई मैट्रिक पास कर लेता था, तो उसे बहुत आदर मिलता था, पर आज तो अनेकों B.A. M.A. Ph.d पास घूमते हैं जैसे उनकी गिनती अनपढ़ों में हैं। आज हम नाम के पीछे खुश हो जाते हैं। अपने गुरु का भी आदर नहीं करते हैं।
गुण दो प्रकार के होते हैं। जो विपरीत दिशा की तरफ झुक जाये तो वे अवगुण कहलाते हैं और सीधी तरफ झुक जाने पर सद्गुण हो जाते हैं। फ्रेम की कीमत नहीं है, पर उसमें जड़े काँच की कीमत है। आज उल्टा ही काम है। आज फ्रेम की कीमत है, काँच की नहीं। फ्रेम सार-युक्त तभी बन सकता है, जब उसमें दृष्टि के अनुसार काँच हो। हालांकि काँच की रक्षा फ्रेम से होती है। परन्तु काँच के बिना भी फ्रेम की कोई कीमत नहीं है। हमारी दृष्टि सिर्फ फ्रेम तक ही जाती है, काँच तक नहीं। हम आत्मा रूपी दर्पण (काँच) की तरफ नहीं देख रहे हैं, जिसमें तीन लोक झलक रहा है। हमारी दृष्टि अंतरंग की ओर न जाकर बाहर की ओर जा रही है। हेय-उपादेय की स्थिति काँच के द्वारा ही मालूम हो सकती है। आज विद्या की तरक्की हो रही है, इस विद्या को ग्रहण करके विद्यार्थी तीन लोक का दास बनता जा रहा है। विद्या ऐसी ग्रहण करनी चाहिए कि जिससे तीनों लोक उसके दास बन जाये।
पूर्व में व्यापार करने में चतुर व त्याग करने में चतुर कोई था तो जैनियों का नाम पहले आता था पर आज हम नाम के पीछे पड़ गये। नाम-निक्षेप के पीछे पड़कर भाव-निक्षेप को हमने नहीं धारा। भाव-निक्षेप वाला ही कृत-कृत्य कहलाता है। वही सुखी बन जाता है। जहाँ अवगुणों का अभाव होता है वहीं सद्गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है। आज जीवन का लक्ष्य बना है अर्थ कमाना। हमने विद्या को अर्थ का माध्यम बना रखा है। इसीलिए हम दुखी हो रहे हैं व्यक्ति सुखी तभी हो सकता है, जब वह समीचीन विद्या ग्रहण करे। आज सब अर्थ के पीछे विद्या ग्रहण करते हैं। इस विद्या से ज्ञान मिल सकता है, परन्तु शांति नहीं मिल सकती।
जहाँ विद्या पूर्णरूपेण झलकती है, वहाँ आकर भी हम यह आशा करते हैं कि मेरा जीवन चले। अरे! जीवन तो वैसे भी चलेगा। शरीर को और कर्मों को छोड़ कर अन्दर एक ऐसा बल है, जिससे जीवन प्राप्त हो सकता है। अर्थ को अर्थ ही मानो, परमार्थ नहीं। अर्थ के द्वारा गुणों की प्राप्ति नहीं हो सकती। समीचीन विद्या के द्वारा ही गुणों की प्राप्ति हो सकती है। आज हमने उस क्षेत्र को ताला लगा दिया है, जिस क्षेत्र को महावीर भगवान् ने अपनाकर आत्मा का कल्याण किया था |
भोग जीवन का लक्ष्य तीन काल में भी नहीं हो सकता है। जीवन का लक्ष्य योग है। भोग, आशा-तृष्णा के द्वारा अलौकिक शांति नहीं मिल सकती है। दवा के द्वारा रोग निकल सकता है, शक्ति भोजन के द्वारा मिलती है। लौकिक विद्या व भोगों में भारत से बाहर के देश बहुत आगे हैं परन्तु वहाँ पर अरबपति भी शांति का अनुभव नहीं कर सकता है। आज हम भी पुद्गल में विद्या को खोज रहे हैं, भोग और लौकिक विद्या के पीछे पड़ रहे हैं, विदेशों में भी इनसे लोग ऊब चुके हैं। हमारे आचार्यों ने ऐसी विद्या बताई है कि जिससे आना-जाना गति-भ्रमण सब खतम हो जाता है। विद्या पाकर इधर-उधर भटकना नहीं है। वर्तमान में लोग देवत्व को पाना चाहते हैं, ज्योतिलॉक में जाना चाहते हैं। समझदार व्यक्ति स्वर्गादि की इच्छा नहीं करते, निदान नहीं करते। कीमत जौहरी की है, जवाहरात की नहीं। जवाहरात के नष्ट होने पर तो और भी उपलब्ध हो सकते हैं, परन्तु जौहरी का नाश होने पर जवाहरात की कीमत कौन आँकेगा? सुख के लिए हमें प्रवृत्ति को रोकना पड़ेगा और निवृत्ति को अपनाना पड़ेगा। यह ठीक है कि शरीर के माध्यम से हम धर्म साधना कर सकते हैं, हमें इसको भोजनादि देकर रक्षा करना चाहिए, लेकिन २४ घंटे शरीर को ही हृष्ट पुष्ट नहीं करते रहना है। मानव कल्याण हम मात्र लौकिक शिक्षा के द्वारा नहीं कर सकते हैं। आज जैन समाज का लाखों रुपया विपरीत दिशा में खर्च होता है, उन रुपयों का सदुपयोग करो।