स्वाध्याय परम तप है, अंतरंग तपों में इसे सम्मिलित किया गया है, वह कर्म निर्जरा का कारण भी है, लेकिन यह बात ध्यान रखने योग्य है कि तप उसी को होता है जिसने व्रत ले रखे हैं, जिसने व्रत नहीं लिये, जो अव्रती है, आचार-संहिता का पालन नहीं करता है; उसका स्वाध्याय, स्वाध्याय नहीं और निर्जरा का कारण भी नहीं है।
शास्त्र सम्यकज्ञान का साधन है, जिस प्रकार मार्ग में चलने वाले आदमी को पाथेय (कलेऊ) आवश्यक होता है, उसी प्रकार मोक्ष-मार्ग में चलने वाले के लिए शास्त्र-ज्ञान एक प्रकार का पाथेय है, इस पाथेय के रहते हुए मोक्ष-मार्ग के पथिक को कोई कष्ट नहीं होता।
शास्त्र की उद्भूति अपने आप नहीं होती किन्तु केवलज्ञानी से होती है, जो केवलज्ञानी होता है वह वीतरागी अवश्य होता है, क्योंकि वीतरागी हुए बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता, केवलज्ञानी ने अपने ज्ञान-रूप-दर्पण में सब कुछ देखकर हमें सम्बोधित किया है, भगवत्-पद की प्राप्ति केवलज्ञान से ही होती है; श्रुतज्ञान से नहीं, श्रुतज्ञान बारहवें गुण स्थान से आगे नहीं जाता, फिर भी उसमें इतनी क्षमता है कि वह आपको पृथक्त्व वितर्क सवीचार और एकत्ववितर्क अवीचार नामक शुक्ल-ध्यान की! प्राप्ति में सहायक होता है। उत्कृष्टता की अपेक्षा उपर्युक्त दोनों शुक्लध्यान पूर्वविद्-पूर्वो के ज्ञाता-मुनि के होते हैं। कहा है
‘शुक्ले चाद्य पूर्वविद:।'
तत्वार्थसूत्र।
भगवान् महावीर को केवलज्ञान हो गया परन्तु ६६ दिन तक दिव्यध्वनि नहीं खिरी, समवसरण रचा गया, उसमें विराजमान महावीर को देखकर लोगों के नेत्र तो तृप्त हो गये, परन्तु श्रोता अतृप्त बने रहे, इन्द्र के माध्यम से इन्द्रभूति समवसरण में पहुँचे, वहाँ पहुँचकर दीक्षित होने पर दिव्य-ध्वनि खिरी और उसे गणधर बनकर, ग्रन्थ रूप में अर्हन्त-कथित अर्थरूप श्रुत को शास्त्र स्वरूप में परिवर्तित कर हम लोगों को सुनाया, इस तरह शास्त्र की समुद्भूति भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि से हुई है।
जिन-वचन अर्थात् जिन-शास्त्र एक प्रकार की औषधि है और ऐसी औषधि है जो विषयसुख का विवेचन करने वाली है तथा जन्म-मरण के रोगों को दूर करने वाली है। आचार्य में एक अवपीड़क नाम का गुण होता है, उस गुण के कारण वे शिष्य के हृदय में छिपे हुए विकार को बाहर निकालकर दूर कर देते हैं, शास्त्र भी आचार्यों के वचन हैं, उनमें भी अवपीड़क गुण विद्यमान है। अत: वे शिष्य के अन्तस्तल में छिपे हुए रागादि विकारी भावों को दूर करते हैं। जब मनुष्य को अजीर्ण हो जाता है और संचित मल भीतर सड़ने लगता है तब उसे विरेचन की आवश्यकता होती है।
विरेचक औषधि के द्वारा सारा संचित मल नि:सृत हो जाता है और मनुष्य स्वस्थता का अनुभव करने लगता है, संसारी प्राणी के अन्तस्तल, में भी चिरसंचित रागादि विकारी-भाव रूप मल सड़कर अस्वस्थता उत्पन्न कर रहा है, इसे विरेचन करने वाला कौन है? जिनवाणी है। वही बार-बार कथन करती है-कि हे प्राणी! तू राग-द्वेष के कारण ही आज तक संसार में भटक रहा है तथा उन्हीं राग-द्वेष के कारण तूने आज तक सरागी देव की शरण पकड़ी है, अब अपने वीतराग स्वभाव का आलम्बन ले और इन औपाधिक विकारी भावों को दूर करने का प्रयत्न कर।
स्वाध्याय परम तप है, अंतरंग तपों में इसे सम्मिलित किया गया है, वह कर्म निर्जरा का कारण भी है, लेकिन यह बात ध्यान रखने योग्य है कि तप उसी को होता है जिसने व्रत ले रखे हैं, जिसने व्रत नहीं लिये, जो अव्रती है, आचार-संहिता का पालन नहीं करता है; उसका स्वाध्याय, स्वाध्याय नहीं और निर्जरा का कारण भी नहीं है।
दूसरी बात...... श्रावक के चार धर्मों में एवं मुनि के षट् आवश्यकों में आचार्यों ने स्वाध्याय को कहीं भी आवश्यकों के अन्तर्गत नहीं गिना है। मूलाचार, धवला, नियमसार आदि ग्रन्थों में मुनियों के षड् आवश्यकों के नाम गिनाये हैं, जिसमें समता, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इस प्रकार छह प्रकार कहे हैं। नियमसार में स्वयं कुन्दकुन्ददेव ने प्रश्न उठाकर उत्तर दिया है कि मुनि के लिए स्वाध्याय कोई आवश्यक नहीं, क्योंकि स्वाध्याय, स्तुति और प्रतिक्रमण रूप आवश्यक में गर्भित हो जाता है, इस कथन से मेरा यह मतलब नहीं है कि स्वाध्याय करना ही बन्द कर दिया जाये, किन्तु स्वाध्याय के साथ-साथ आवश्यक जो नियम संयम हैं उनका भी पालन किया जाये और स्वाध्याय क्यों किया जा रहा है यह भी ध्यान रखा जाये, अत: स्वाध्याय-प्रेमियों से मेरा यही कहना है कि जरा इस प्रकार के कथनों पर भी ध्यान दिया जाये।
तप निवृत्यात्मक होता है, प्रवृत्यात्मक नहीं। निवृत्यात्मक भाव ही निर्जरा का कारण होता है, प्रवृत्यात्मक अंश आस्रव का साधन होता है। शास्त्र हमें सचेत करते हैं कि बाह्य पदार्थों को ग्रहण न करो, आपरेशन वाला डाक्टर पहले कह देता है कि आज आपरेशन होगा, अत: कुछ खाना, नहीं है। इसी प्रकार शास्त्र कहते हैं कि विकारी भावों का आपरेशन यदि करना है—उन्हें निकालकर दूर करना है तो बाह्य पदार्थों को ग्रहण मत करो। शास्त्र की इस आज्ञा का हम उल्लंघन करते हैं। यही कारण है कि हम चिरकाल से अस्वस्थ बने हुए हैं।
श्रुत को सूत्र कहते हैं और सूत्र का एक अर्थ सूत भी होता है, जिस तरह सूत सहित सुई गुमती नहीं है, इसी तरह सूत्र-शास्त्र-ज्ञान-सहित जीव गुमता नहीं है, अन्यथा चौरासी लाख योनियों में पता नहीं चलता कि यह जीव कहाँ पड़ा हुआ है, श्रुत को जीवन में आत्मसात् करने की आवश्यकता है, जिसने श्रुत को आत्मसात् नहीं किया वह ग्यारह अंग और नौ पूर्व का पाठी होकर भी अनन्तकाल तक संसार में भटकता रहता है और जो श्रुत को आत्मसात् कर लेता है वह अन्तर्मुहूर्त में भी सर्वज्ञ बनकर संसार-भ्रमण से सदा के लिए छूट जाता है। जिस प्रकार रस्सी के बिना कुएँ का पानी प्राप्त नहीं हो सकता, उसी प्रकार जिनागम के अभ्यास के बिना तत्व-ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।
देव और गुरु से सम्बन्ध छूट सकता है पर, शास्त्र से सम्बन्ध नहीं छूटता। शुक्ल-ध्यान की प्राप्ति में देव और गुरु का आलम्बन (सहारा) नहीं रहता परन्तु श्रुत का आलम्बन अनिवार्य रूप से लेना पड़ता है, स्वाध्याय को तप कहा है और तप क्या है? जीव की अप्रमत्त दशा ही तप है, यह अप्रमत्त दशा संयत के ही सम्भव है, असंयत के नहीं। तप कर्म और तप आराधना भी संयत के ही होती है, असंयत के नहीं।
जिस प्रकार मृदङ्ग बजाने वाला व्यक्ति अपने आपको उसके लय के साथ तन्मय कर लेता है, उसी प्रकार भव्य प्राणियों को श्रुत-प्रतिपादित ज्ञान से अपने आपको तन्मय कर लेना चाहिए। इस तन्मयी भाव के बिना श्रुताध्ययन की सार्थकता नहीं है, मृदङ्ग, बजाने वाले व्यक्ति के हाथ का स्पर्श पाये बिना नहीं बजती, पर मृदङ्ग स्वयं बजने की कोई इच्छा नहीं रखता, इसी प्रकार, निस्पृह केवली भगवान् दिव्य-ध्वनि के द्वारा भव्य जीवों को कल्याण का मार्ग दिखाते हैं। पर, उससे उनका कोई प्रयोजन नहीं रहता। कुन्दकुन्द, समन्तभद्र आदि आचार्यों ने जो ग्रन्थ-रचना की है, वह भी ख्यातिलाभ आदि की आकांक्षा से रहित होकर की है, वीतराग जिनेन्द्रदेव की वाणी को वीतराग ऋषियों ने अब तक सुरक्षित और प्रसारित किया है, इन्हीं साधनों से हम लोगों का कल्याण हो सकता है।
'णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं''-आदि मन्त्र का लय के साथ उच्चारण करना पाठ कहलाता है, पुन: अरहंतादि पाँच परमेष्ठियों का स्मरण करना जाप कहलाता है, अरहंत परमेष्ठियों का क्या स्वरूप है? अरहंत आदि पद कैसे प्राप्त किया जा सकता है? यह जानना ज्ञान है और चित का उन्हीं के साथ एकीभाव हो जाना ध्यान है। ये सब विशेषताएँ हमें शास्त्र से ही ज्ञात होती हैं। शास्त्र पढ़ने का नाम आचार्यों ने स्वाध्याय रखा है। स्वाध्याय का शब्दार्थ होता है-'स्व' यानी अपने आपको प्राप्त करना, जिसने अनेक शास्त्रों को पढ़कर भी 'स्व' को प्राप्त नहीं किया उसका शास्त्र पढ़ना सार्थक नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि मोक्ष-मार्ग की साधना में देव और गुरु के समान शास्त्र का परिज्ञान भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है।