अभी-अभी आद्य वक्ता ने कहा कि 'सार-सार को गहि रहे, थोथा देड़ उड़ाय' यह पंक्ति मुझे बहुत अच्छी लगी किन्तु कहना जितना सरल है, ग्रहण करना उतना ही कठिन । सार को गहने की सीख सूपा से सीखी। सूपा में सार बचता है तथा असार बाहर हो जाता है किन्तु आज तो चलनी का युग है जिसमें सार नीचे गिर जाता है तथा असार ऊपर बचा रहता है। भूसा तथा कचरा मिश्रित धान से सार रूपी धान को पृथक् करने की क्रिया सूप से होती है, किन्तु यह स्वत: नहीं होती। सार से असार अलग करने के लिए सूप को फटकार देना होता है तथा इस क्रिया के लिए दृष्टि सजग रखकर यह आवश्यक है कि उचित फटकार दी जाये अन्यथा सार-असार पृथकीकरण संभव नहीं। सार-सार को गहने की उक्ति के दर्शन सूप से किए जा सकते हैं, ऐसे ही जीवन में सार-सार को गहते हुए असार को उड़ा देने से ही मुक्ति मिलती है। इसके लिए सजगता की, जागृति की, आवश्यकता है किन्तु हमने आज तक यही नहीं किया। फटकार भी दिया तो दूसरे को नुकसान पहुँचाने के लिए तथा लाड़-प्यार भी दिया तो ऐसा दिया कि वह सब कुछ भूलकर उठ ही न सके। फटकार की आवश्यकता इसलिए कि जागृति आये तथा प्यार ऐसा न हो कि विकास अवरुद्ध हो जाए। दोनों को चाहिए मगर होश के साथ। आपके पास जोश है, रोष है, दोष है, कोष है पर होश नहीं है।
सूपा को होश से फटकारो तभी वजनदार धान बचेगी, नहीं तो वो असार के साथ बाहर चली जायेगी। कैरम खेलने वाला जानता है कि गोट में कितना कट मारा जाये कि गोट तो पाकेट में चली जाये साथ ही अपनी अन्य गोट का मार्ग भी प्रशस्त करे। कट मारने के लिए आवश्यकता के अनुरूप ही तर्जनी को इशारा दिया जाता है। होश के साथ कट मारने पर ही मार्ग प्रशस्त होता है तथा गोट पाकेट में जाती है। हम असफल इसलिए हुए हैं कि हमने आज तक होश के साथ कट नहीं मारा।
गुरुओं ने हमें ज्ञान दिया किन्तु चक्षु तथा कर्ण तो कार्य ही नहीं कर रहे हमारे इसीलिये हम आत्मिक सुख से वंचित हैं। वातावरण धूमिल हो रहा तथा धूल कणों के कारण स्वयं को ही नहीं पहचान पा रहे। आइना देख लो स्वयं को जान लो, किन्तु स्मरण रहे कि आइना भले ही छोटा हो किन्तु हो साफ-सुथरा। धूमिल होगा तो देख ही नहीं सकते। दर्पण स्वभाव से साफ-सुथरा है किन्तु स्वयं के हाथों के स्पर्श से धूमिल हो जाता है तथा उसमें ऐसे तत्व चिपक जाते हैं, जिससे न तो आइना साफ दिखता है न स्वयं देखने वाला साफ दिखता है। आदिकाल में आदिनाथ अंत में महावीर तथा बीच में राम, हनुमान रूपी आइने में हमने स्वयं को नहीं देखा। आइना चाहिए, किन्तु कैसा? सबको ऐनक लगाते देख अज्ञानी ने भी ऐनक लगा लिया, पढ़ने में बहुत साफ दिखता है, किसी ने बताया कि केवल फ्रेम है इसमें काँच नहीं लगा। कैसे कहते हैं आप? ऐनक लगाया साफ दिखने लगा है। काँच से सुविधा मिलती है किन्तु वह तो पढ़ा-लिखा था ही नहीं और ज्ञात ही नहीं क्योंकि दृष्टि ही नहीं केवल फ्रेम लगाकर भ्रमित है वह, कि साफ दिख रहा है। दृष्टि हो तो ज्ञात हो कि काँच तो लगा ही नहीं था, फिर सुविधा कैसी? वह काँच क्या दिखायेगा जब तक आँख ही न हो। केवल भ्रम है, अत: कह सकते हैं कि अंधत्व अभिशाप है।
जानने का प्रयास ही जागृति है, जागृति है तो जगत् है। जब जागृति नहीं, होश ही नहीं, कि क्या मूल्यवान है? क्या सार है? क्या असार है? फिर कैसे गहे सार-सार? सार का ज्ञान बहुत गूढ़ है इसकी बातें तो अनेक विद्वान् करते हैं किन्तु गहते नहीं। गहने के लिए दृष्टि चाहिए, समझ भी। यथा ‘तुम कैसे पागल हो।' वाक्य है दूसरी तरह देखे तो ‘तुम कैसे पाग लहो’ पाग का अर्थ रास्ता सार तथा व्यंजन भी होता है। सार को चाहते हो पाग को चाहते हो तो दृष्टि साफ करो, तभी 'पागल हो' अन्यथा पागल हो। अनेक जीव पाग लहते हुए, रास्ता प्राप्त कर चले गए किन्तु हम पागल बैठे हैं। जहाँ चाह है वहाँ राह है। इच्छाशक्ति दूढ़ हो तो रास्ता भी है तथा मंजिल भी। राह नहीं तो राहत भी नहीं। अकाल पड़ता है तो राहत की माँग की जाती है, अकाल से निपटने की राह तलाशी जाती है। राह मिली, राहत मिली। सुबह उठकर क्या-क्या करना है संकल्प ले लिया, किन्तु काम क्या कर रहे हो मात्र संकल्प तथा विकल्प। चलना किस दिशा में है, कौन-सी राह चलना है, जिसमें राहत मिले इतना विचार ही नहीं। सही राह की परवाह नहीं। न परवाह, न राह, जोश नहीं, होश नहीं, कोष है मात्र? कितना मूल्य है? यह भी होश नहीं। बैंक में कैशियर के पास कोष है, किन्तु वह उसका मालिक नहीं, किन्तु कोष है। जिस दिन अपने आपको मालिक समझा नौकरी गयी। ऐसा ही हम अनन्त ज्ञान के भंडार हैं, सूर्य पुंज है, चंद्रकांति है समझ लिया। क्यों समझा? क्योंकि सब कहते है, कौन कहता है? दूसरे कहते हैं। स्वयं क्या कहते हो?
सब कहते हैं आग के लिए हवा करो, किन्तु होश नहीं हवा की आवश्यकता आग को उदीप्त करने के लिए है। सुलगाते समय तो हवा न आए इसके लिए ओट की जाती है। (स्मरण रहे सुलगाते समय हवा की तो आग कभी सुलगेगी नहीं) किन्तु हवा से अग्नि उदीप्त की जाती है, ऐसी ही हवा गुरु की वाणी है ज्ञान उदीप्ति के लिए। बुद्धि का उद्घाटन नहीं प्रयोग पुरुषार्थ नहीं तो फिर पागल हो न कि पाग लहो। अस्सी की उमर होने को आयी होश नहीं आया। जिदगी ढलान पर है। समय कम है क्योंकि दिन ढलने को है। सूप पर ऐसी फटकार दो कि धान बची रहे भूसा उड़ जाये, असार उड़ा दो। चलनी में सार नहीं रहता वह तो नीचे गिर जाता है। चलनी के स्वभाव के श्रोताओं सावधान रहो, नहीं तो सार गिर जायेगा असार रह जायेगा। तात्पर्य यह है कि आत्मा को मत फटकायें। पाप को बुरे भावों को फटकायें। स्वभाव से प्यार करो। क्रोध, मान, माया, मोह, ईष्या आदि आत्मा का स्वभाव नहीं है, इन्हें फटकारों। यही नींव हैं, पृष्ठभूमि है, साधना है। शून्यमय जीवन को देखकर गुरुओं को करुणा आ जाती है, जैसे कि बच्चे में जब तक चलने-फिरने के लक्षण न दिखें, माता-पिता सोचते हैं कि चलेगा कि नहीं, सुनने के लक्षण नहीं दिखे तो सोचते हैं बहरा तो नहीं तथा जब तक बोले नहीं तो सोचते हैं कि गूंगा तो नहीं तथा देखने के लक्षण नहीं दिखने पर सोचते हैं कि अंधा तो नहींव्याकुल हो जाते हैं, ऐसे ही गुरु करुणा से भर जाते हैं। गुरु सोचते हैं कि यह अपना हित चाहता है कि नहीं, ठीक उस बालक की तरह। वात्सल्य उमड़ आता है, माता-पिता के समान गुरु चिंतित हो जाते हैं। स्व हित के बिना विश्व हित संभव नहीं। कैसे करेंगे विश्व हित? होश के लिए स्वयं को उद्घाटित करना होता है, वरना बिना काँच का चश्मा लगा है, भले कहें बहुत अच्छा दिखता है। ऐसी स्थिति में युग-युग बीत जायेंगे पर परिवर्तन नहीं होने वाला। इसीलिए आइना साफ हो, भले ही वह छोटा हो। याद रखो, अंधा दर्पण नहीं देख सकता जब तक प्रकाश का अवलोकन न हो ।
‘मैं हूँ, मैं हूँ” बार-बार यह कहने वाला व्यक्ति अस्थिर है क्योंकि यदि हो तो कहने की आवश्यकता क्या है। कहीं न कहीं कोई कमी जरूर है। बंधुओं! हमें चालनी के समान नहीं बनना। सूप जैसा बनकर फटकारो किन्तु होश के साथ। रोष उस पर करो जो दुख देता है। क्रोध को जान लो उस पर रोष करो क्योंकि वह दुख देता है। अंधकार कितना ही घना क्यों न हो उसे एक छोटे से दीपक का प्रकाश भी दूर कर देता है। अज्ञानता का अंधकार कभी टिक नहीं सकता ज्ञान दीप के सम्मुख। क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह रूपी चोर नहीं आ सकते यदि होश है ज्ञान दीप है अपने पास तो। एक बार भीतरी भावों को पहचान लो रास्ता अपने आप दिखने लगेगा। स्वरूप का बोध होते ही हमें राहत मिलती है। हम भी भगवान् बन सकते हैं बस शक्ति के उद्घाटन की आवश्यकता है। चाहते हुए भी अभी तक यह शक्ति क्यों नहीं उद्घाटित हुई इस पर ध्यान देना जरूरी है। परखने वाले को परखो और पर को खो दो। अपने आप में तत्पर हो जाओ इसी में सार है। 'ब्रह्म में लीन' कहना आसान है पर होना नहीं किन्तु होने में आनंद है कहने में नहीं।
‘महावीर भगवान् की जय !'