विश्वविज्ञं विधि-वेदं वीरं वैराग्य वैभवम्।
संगमुक्तं यतिं बुद्धं केशवं संभवं शिवम्॥
मंगलाचरण में मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ जो विश्व को जानने वाला है, विश्व वेत्ता है, वीर है, महावीर है, विराग है, परिग्रह से दूर है, ऐसे राम/शिव/शंकर/महावीर के लिए नमस्कार है। राम से सारा का सारा विश्व परिचित है। जिन्होंने कर्तव्य का प्रतिक्षण पालन किया उनको कोई भी युग नहीं भूल सकता, युग युगान्तर होने के बाद भी वह स्मरण में आ जाते हैं, युगों-युगों व्यतीत हो गये वह आज भी हमारे स्मरण के विषय बने हुए हैं। हमारी बुद्धि अधूरी है उनके व्यक्तित्व के बारे में, उनकी महानता के बारे में, उनकी कर्तव्यनिष्ठा के बारे में, उनकी ऊँचाईयों के बारे में विचार नहीं कर पाती है। केवल नाम में, रूप में उलझ जाती है। दुनियाँ ध्यान रखे भगवान् जो होता है, वह भगवान् ही होता है। वह किसी जाति, किसी पक्ष, किसी क्षेत्र को लेकर नहीं चलता, किन्तु उसका पूरा-पूरा संबंध ही विश्व के साथ जुड़ जाता है। विश्व का प्राणी यदि उसे याद करता है, उसे दिशा निर्देश मिलता है उसे नकारता नहीं, किन्तु वो कहता है, हाँ तुम भी अपने पद को प्राप्त करो, निश्चत रूप से हमारे जैसा वैभव पा सकते हो। राम का समस्त जीवन ही स्मरण करने योग्य है।
चाहे बाल्य काल हो, चाहे गृहस्थ आश्रम हो, चाहे प्रौढ़ आश्रम हो, कोई भी आश्रम हो आवश्यक रूप से शिक्षा देता है। उनके जीवन के कुछ बिन्दु आपके सामने रखना चाहता हूँ। जिनके माध्यम से हमारी जितनी कमियाँ हैं, याद आ जाये। हमारा अनुकरण उनकी ओर हो जाय। स्वार्थ परायणता एवं मोह के कारण से सारे प्राणी कितने विरूपित हो जाते हैं, आश्चर्य होता है। अयोध्या में चारों तरफ खुशहाली है। राम का राज्याभिषेक होना है। लेकिन एक सौतेली माँ की महत्वाकांक्षा ने रंग में भंग कर दिया। कैकेयी ने घोषणा कर दी, मेरा पूत राज्याभिषेक से युक्त हो। इतना ही नहीं राम यहाँ से चले जायें। घटना आप लोगों को ज्ञात है। स्वार्थ परायणता संसार की प्रकृति से बनी है, लेकिन इस संसार में रहकर भी ऐसे महामानव होते हैं। जो इन तुच्छ चीजों की ओर दृष्टिपात नहीं करते हुए भी उस विशाल सम्राट में लीन होना चाहते हैं और विश्व को उस ओर अग्रसर करने का प्रयास करते हैं और कहते हैं कि इस ओर आओ और स्वीकार करते हैं चुनौती को।
राम अपनी माँ कौशल्या के पास जाकर कहते हैं कि माँ मुझे आज आशीर्वाद दीजिए। मेरा लक्ष्य जल्दी-जल्दी पूरा हो सके। पिताजी की आज्ञा का मैं पालन कर सकूं आपका आशीर्वाद फलीभूत हो। माँ कहती हैं- बेटा! क्या कह रहा है। हाँनिश्चत है कि पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता, आज्ञा शिरोधार्य है। मुझे अभी-अभी यहाँ से चले जाना है। माँ कौशल्या थी, बेटे राम को जाया है, आँचल का दूध पिलाया है। इसलिए आँख भर आती है, पुत्र वियोग की बात सुनकर।फिर भी क्षत्रिय पुत्र की माँ साहस बटोर कर कहती है। बेटा तेरा भाव पूर्ण हो, भगवान् का हाथ तेरे ऊपर रहे। ज्यों ही आशीर्वाद मिलता है, वे (राम) जाने के लिए तैयार होते हैं, पीछे से लक्ष्मण की आवाज आती है- वनवास जा रहे हो भैया? हाँ लक्ष्मण! पिताजी की एवं माता कैकेयी की आज्ञा है। तुम्हें यहीं रहना है। यह सुनते ही लक्ष्मण कहते हैं-असम्भव! जहाँ आप वहीं पर यह आपका चरणदास, आपका अनुज रहेगा। वह स्वयं कहता है मैं तो आपके साथ चलूगा। मैं यहाँ पर आपके बिना नहीं रह सकता यह असली बात है। कोई माने या न माने लेकिन मुझे तो यहाँ पर नहीं रहना है। क्योंकि माता-पिता तो चले जाते हैं कुछ दिन के बाद अर्थात् आयु समाप्त कर मरण को प्राप्त हो जाते हैं लेकिन भाई साथ देते हैं और समस्त जीवन भाइयों के साथ रहना है। माता-पिता भले ही नींव रख लेते हैं, लेकिन प्रासाद में बैठ करके भाई-भाई की छाया का अनुभव करना है और एकदूसरे से मिल करके रहना, यही एक मात्र जीवन होता है और इसमें सुख मिलेगा। आपके साथ रहने को मैं आ रहा हूँ। उसके उपरान्त राम ने कहा-नहीं लक्ष्मण! ऐसा नहीं कहो, माताजी-पिताजी का एक दिन का भी साथ जीवन को सुखी बना देता है। बड़ों की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। तुम्हें रहना है और मैं ये कह रहा हूँ मेरे साथ रहना चाहते हो तो मेरी आज्ञा को तुम्हें भी पालन करना है, मेरे साथ रहने की तुम्हारी भावना से ही तुम मेरे साथ हो, ऐसा मानो। क्योंकि साथ तन से नहीं हुआ करते हैं और न ही धन से हुआ करते हैं, साथ हुआ करते हैं, केवल आज्ञा के पालन से। राम के उपदेशों में कितनी गहनता है।
आज राम का जन्म हुआ राम का जन्म पालने में है। लेकिन राम का पालना बहुत अद्भुत है और स्वयं राम अपने आप में है, महापुरुष हैं। महापुरुष हमेशा महान् हुआ करते हैं, तन से नहीं भीतर से। आज्ञा का भीतर से सम्बन्ध होता है। निश्चत रूप से हम आज महावीर भगवान् के साथ जी रहे हैं, आज हम भी राम भगवान् के साथ ही जी रहे हैं, यदि उनकी आज्ञा का पालन करने का स्मरण हमें है और बनती कोशिश उनकी आज्ञानुसार चलने का प्रयास हम कर रहे हैं तो निश्चत रूप से हमारा जीवन उनके जीवन के साथ चल रहा है।
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
महान् संतों ने यह युति दी है। निश्चत बात है जो पुराण पुरुष हुए हैं उनकी आज्ञा का यदि हम अनुपालन कर रहे हैं तो निश्चत रूप से हम भी उनके ऊपर उपकार कर रहे हैं क्योंकि उनका भी भाव यही है।
युग को संदेश मिलता रहे। हमेशा-हमेशा यह युग उनके आदर्श तक पहुँचने के लिए कोशिश करता रहे। इस प्रकार का भाव हमेशा-हमेशा संतों का भी रहता है, हुआ करता है और संत के उपासकों के मन में भी यही भावना रहती है। युग शान्ति का स्वाद हमेशा लेते रहें, कभी भी दुख का अनुभव न हो। अयं निज: परोवेति यह मेरा यह तेरा ऐसा विचार संकीर्ण बुद्धि वाले व्यक्तियों का हुआ करता है। "उदारचरितानां तु.......जिनका उदार दिल होता है, सबका उद्धार हो इस प्रकार का भाव उनमें पलता है वे उद्धार करने वाले जगद् उद्धारक होते हैं। ऐसे महान् उद्धारकों के संकीर्ण भाव नहीं हुआ करते हैं। वह तो सोचते हैं कि सबका कल्याण हो "क्षेमं सर्वप्रजानां" जितने भी जीव हों सबका उद्धार हो। इस प्रकार की भावना के लिए कोई बड़े-बड़े भवन की आवश्यकता नहीं है। इसके लिए एयरकंडीशनर की आवश्यकता नहीं है। मात्र विशाल हृदय की आवश्यकता है।"
लक्ष्मण मेरी बात मान लो, पिता की आज्ञा का उल्लंघन मैं नहीं कर सकता और मुझे यहाँ पर रुकने की नहीं, वन जाने की आज्ञा दी गई है। लक्ष्मण कहते हैं, आप तो जंगल में विपत्ति भरा जीवन व्यतीत करने जा रहे हो और मैं भवनों में रहूँ यह सम्भव नहीं होगा।
रामचन्द्र जी कहते हैं, अरे! जंगल में भी मंगल है यही देखने जा रहा है तू चिन्ता मत कर, तू मेरी आज्ञा मान, यहाँ रह। मुझे जंगल के मंगल का आनन्द लेने दे। लक्ष्मण कहता है-भैय्या आपके साथ मंगल चलता है, आपके जाने के बाद यहाँ तो मुझे अमंगल नजर आ रहा है। अत: मैं भी मंगल का अनुभव करना चाहता हूँ, चाहे जंगल हो या मंगल मैं तो तुम्हारे साथ रहूँगा। दोनों सीता सहित चल दिये वन की ओर और चित्रकूट पहुँच कर विश्राम किया।
रामचन्द्र जी के वनवास जाते समय भरत अयोध्या में नहीं थे, ननिहाल गये हुए थे। यदि भरत उस समय होता तो शायद यह घटना टल सकती थी। कुछ दिन बाद भरत जब अयोध्या लौटा और समाचार जाना तो राम के बिना बहुत ही व्याकुल हो गया और अपनी माँ की स्वार्थ लिप्सा को धिक्कारता हुआ राम भैय्या को खोजने के लिए चित्रकूट जाता है। रामचन्द्र जी भरत को बहुत समझाते हैं। लेकिन भरत हठ करते हैं कि मैं आप को साथ लेकर ही लौटूँगा। अंत में राम ने जब आज्ञा देकर बाध्य किया तब भरत कहते हैं कि भैय्या में चरण पादुका ले जाकर सिंहासन पर बैठा लूगा और इनका सेवक बनकर राज्य की व्यवस्था करूंगा।
विचार करो कितना महान् दृश्य होगा उस समय का जब राम और भरत दोनों (गद्दी पर) बैठना नहीं चाह रहे हैं और आज के पिता उठना नहीं चाह रहे हैं, अंतर इतना ही आ गया है। राम की जन्म जयंती तो मनाई जा रही है क्योंकि भारतीय संस्कृति में कुर्सी से ऊपर उठने वालों की जयन्ती मनाई जाती है कुसीं पर बैठने वालों की कोई भी जयन्ती नहीं मनाई जाती है। हाँ! यदि उनसे और कोई स्वार्थ सिद्ध होता हो तो अवश्य हम मना लेते हैं। लेकिन आज के राजनेता राजसत्ता के भूखे हैं। एक सूतिकार ने लिखा था- रजोनिमीलितगुणा: पदमर्जयन्ति कुपथे.........॥ जो पढ़े लिखे हैं, साक्षर हैं, वो भी कुपथ पर चलकर पद अर्जित करते हैं अर्थात् उन्मार्ग गामी हो जाते हैं, क्योंकि 'रजोनिमिलित गुणा:" जिस समय स्वार्थ परायणता आ जाती है, राजसत्ता समाप्त हो जाती है।
भरत को राज्य मिल रहा है। लेकिन वह कहता है मुझे नहीं चाहिए।"न त्वह कामये राज्यं न स्वर्ग नपुनर्भवम्। कामये दुखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्।" कितना उज्ज्वल भाव है, आज रामनवमी है। आप रामनवमी मना रहे हैं।
राम के नाम पर आप क्या-क्या करने का इरादा कर रहे हैं थोड़ा तो विचार करो। राम के जीवन को पहचानना चाहते ही लेकिन राम का नाम लेकर के रावण का काम करते हो तो ध्यान रखी राम के फल को कभी नहीं पाओगे। संसार कभी भी तुम्हें आदर्श रूप से याद नहीं करेगा, यदि करेगा तो वह अभिशाप के रूप में करेगा, कंटक के रूप में करेगा। यही कहेगा हमेशा-हमेशा कि एक आतातायी हुआ था जैसा रावण। जंगल में रहकर के राम कहते हैं न कामये राज्यं मुझे राज्य की कोई आवश्यकता नहीं। न ही मुझे स्वर्ग की आवश्यकता है। न कामये मोक्ष मुझे अभी मोक्ष भी नहीं चाहिए क्योंकि 'कामये दुखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशन।' जब तक संतप्त धरती को शांत नहीं देख सकूंगा तब तक मुझे मुक्ति में भी सुख का अनुभव नहीं मिलेगा। ऐसे राम थे। मुझे राज्य को छोड़ दुख से तपती हुई जनता का उद्धार करना है। ऐसा हृदय/ऐसी आँख राम की थी।
जिसमें करुणा का सरोवर हमेशा लहराता रहता था। नीर-क्षीर विवेकी हस के समान विवेकवान थे राम, कितनी ऊँचाई को लेकर राम का जीवन था, हमारे पास वैसा व्यक्तित्व भी नहीं कि उस ऊँचाई को हम देख सकें। उसकी ऊँचाई को हम पी नहीं सकते, हम तैर नहीं सकते, उनके व्यक्तित्व के सरोवर में हम डुबकी लगा नहीं सकते । वो एक ऐसे अथाह सागर हैं, जिसमें हम डुबकी लगाने को चले जाये तो डूब जायेंगे, धराशायी हो जायेंगे क्योंकि हमारे पास उन जैसा व्यक्तित्व नहीं है। हमारे पास वैसी बुद्धि नहीं है, वैसा जीवन नहीं जो कि हम आदर्श जीवन आत्मसात् कर सकें लेकिन इसके उपरान्त भी पवित्र भावना से हम राम के जीवन को अंग-अंग में समा सकते हैं। फिर राम से पृथक हमारा जीवन रहेगा नहीं। लेकिन हमारे पास जो कुछ भी है, उसको निकालना होगा, समाप्त करना होगा, तब यह संभव है।
राम ने भरत को आज्ञा दी किन्तु भरत ने भी राम से कहा- मैं आपकी चरण पादुका को आदर्श मानकर अपने कर्तव्य का पालन करूंगा और यदि कर्तव्य से विमुख हो जाऊँगा तो मैं आपका भैय्या कहलाने योग्य नहीं रहूँगा। भरत चरण पादुका को सिंहासन पर विराजमान करके अयोध्या में आकर राज्य का संचालन करने लग जाता है। लेकिन भरत का तन यहाँ है किन्तु मन राम में लगा हुआ था बार-बार संदेश भेजता कि राम भैय्या मैं आपके बिना यहाँ पर कैसे रह सकता हूँ? लेकिन कभी-कभी तन की दूरी के माध्यम से आनंद का अनुभव दुगुना हो जाता है। आस्था में अवगाढ़ता आती है। चलचित्र जितने दूर बैठकर देखते हो तो चित्र अच्छा दिखता है और पास में बैठने से अच्छा नहीं दिखता है। इसी प्रकार तन की दूरी मन को अधिक श्रद्धालु बना देती है निश्चत बात है। एक पतंग उड़ाने वाला बालक छत के ऊपर पतंग उड़ाने बैठ जाता है और वह पतंग बहुत ऊपर चली जाती है, लेकिन डोर की छोर एक उसके हाथ में रहती है, इस छोर को वह यूँ खींचता है, तो वह पतंग हाँ मैं तुम्हारे अधीन ही हूँ तुम्हारे साथ लगातार संबंध जुड़ा हुआ है और अपने सम्बन्धी की डोर के माध्यम से संकेत कर उड़ती रहती है। उसी प्रकार राम और भरत में प्रेम रूपी डोरी का सम्बन्ध है। भरत आनंद का अनुभव ले रहा है। हाँ भैय्या ने मुझे चरण पादुका देकर के बहुत बड़ा उपकार किया।
यहाँ प्रसंग में एक और आदर्श पात्र स्मरण करने योग्य है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। वह है लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला। लक्ष्मण से उर्मिला ने कहा, मैं भी साथ चलेंगी तब लक्ष्मण ने कहा- यहाँ माँ अकेली है उनकी सेवा करनी पड़ेगी, तुम्हें यहीं रहना होगा, वह उर्मिला एक तरह सीता से बढ़कर निकली। सीता तो सहवासी यानि राम के साथ-साथ रही। स्त्री पति के साथ कहीं रहे वह उसका घर ही है। उर्मिला आशा एवं आज्ञा की डोर में बंधी रह गई। सीता राम के साथ में है लेकिन उर्मिला को तो सही-सही वनवास था । चौदह वर्ष तक बिना पति के रहना अपने आप में महानता है। सभी लोग राम लक्ष्मण को त्यागी कहते हैं उर्मिला का नाम कोई लेता ही नहीं। भरत का राज्य संचालन आवश्यक है। लक्ष्मण एवं सीता को राम का साथ मिलने के कारण से सूनेपन का विशेष अनुभव नहीं हो रहा है। वह राम के साथ हैं, जंगल किसी को जंगल लग नहीं रहा है।
इन घटनाओं को याद करने पर पता चलता है कि उस समय से ही त्याग की परम्परा मानी जाती है यह यही वंश रघुवंश माना जाता है। लेकिन रघुवंशी राम के जीवन में और हमारे जीवन में कितना अंतर आ गया। हम विपरीत दिशा में चले जा रहे हैं। उनके आचार-विचार और हमारा आचार-विचार बिल्कुल विपरीत देखने में आ रहा है। इतना तो हमें ज्ञात है कि रामनवमी है, मना रहे हैं लेकिन जीवन की दिशा, दशा एवं संस्कारों से संस्कृति जो आज बन रही है वह रावण नवमी की तरफ जा रही है। एक आक का दूध होता है और एक गाय का दूध होता है। रंग सफेद है अत: देखने में दोनों में अंतर ही नहीं है लेकिन गुण धर्म बिल्कुल विपरीत है। एक है जीवन विनाशक और एक पोषक है, जीवन दाता है। रावण की विचारधारा आक के दूध के समान थी और राम की नीति गाय के दूध के समान थी।
राम के जीवन के समान बनना चाहिए। राम के जीवन को हम अपने जीवन में देख सकते हैं। महावीर भगवान् को आज हम अपनी जीवन चर्या में देख सकते हैं। उनके जीवन के साथ हमारा मोक्ष अनुबद्ध हो सकता है। ये गठबंधन हमारे ऊपर आधारित है। यदि हम स्वार्थ परायणता छोड़ देते हैं तो ये संभव है। 'न कामये अहं राज्य' मैं राज्य की कामना नहीं करता, 'न स्वर्ग कामये' स्वर्ग की इच्छा मैं नहीं रखता। ‘न पुनर्भव' पुनर्भव की भी मैं इच्छा नहीं रखता। ‘कामये अहं एकमेव आर्तिनाशनम्' एक मात्र में चाहता हूँ। मेरी ये वाञ्छा है कि 'दुख तप्त प्राणिनां आर्तिनाशनम् कामये' संसारी प्राणियों के आर्त की पीड़ा का अभाव कैसे हो? कब हो? ये मात्र मैं चाहता हूँ ऐसे जगत्कल्याणक राम जब जंगल जा रहे हैं। तब वहाँ की सारी की सारी जनता की आँखों में आँसू आ जाते हैं।
भरत जी यहाँ पर रह गये राम जी वनवास चले गये, सीता भी साथ चली गई। उर्मिला यहाँ पर आशा एवं आज्ञा की डोर से बंधी रह गई। ये चेतना के अनन्य उपासकों की कथाएँ हैं, जो आज वर्षों के उपरान्त भी हम लोगों को ऐसे बाध्य कर देती हैं कि तुम क्या कर रहे हो?, क्या कह रहे हो? और किस ओर तुम्हारी दृष्टि है? यह चैतन्य का भोग आज तक तुम्हें मिला नहीं। जड़ रूप भोग सामग्री मात्र आँखों की विषय बन गई है, यह इन्द्रियों के विषय मात्र हैं, वसुधैव कुटुम्बकम् यह बिल्कुल विलोम हो गया। वसु अर्थात् द्रव्य धन, द्रव्य को धारण करना हमारा जीवन बन गया। बाकी चेतना से हमारा नाता है ही नहीं केवल मशीन सी केवल यह यांत्रिक युग के पीछे दौड़कर केवल तन के अधीन होते चले जा रहे हैं। आदर्शमय चैतन्य की उपासना छूटती चली जा रही है।
राम के जीवन में कैसी-कैसी घटनाएँ घटी यह आपको ज्ञात है सीता की परीक्षा हुई कब/क्यों हुई? फल क्या हुआ? पास कौन हुआ? यह सब आपको ज्ञात है। सीता पास हुई, पास होने के बाद राम के साथ नहीं रहना चाहती है। आज का अंतिम प्रसंग है सीता राम के साथ रहना नहीं चाहती है और उस समय राम कहते हैं-नहीं इस परीक्षा के उपरान्त ही हमारा जीवन प्रारम्भ होना था और लव कुश हमारे हैं, ये राज्य करेंगे। सीता सोचती है जब परीक्षा में पास हो गये। फिर स्कूल से कोई मतलब नहीं रहता। स्कूल से मतलब केवल बुद्धि बढ़ाना है। अब राम के साथ कक्षा में रहकर हमें कुछ पढ़ना नहीं है। हम पास हो गये और आपकी कृपा हो गई। हमें उतीर्णता मिली १०० /१०० आ गये। यह श्रेय आप पर चला जाता है और विचार करती है। आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है इस सिद्धान्त को हमें अपनाना है। पहले राम-सीता अभिन्न हैं। गठबन्धन हुआ था किन्तु सीता ने वह गठबन्धन तोड़ दिया। अब दोनों अलग हैं कोई किसी का नहीं वह अस्तित्व शरीर के साथ था, छूट गया। सीता सोचती है अब कुछ और पढ़ाई नहीं करना। अब तो थीसिस लिखना है, अब तो शोध करना है, अब अनुभव करना है। अब शोध की भी आवश्यकता नहीं अब तो बोध करना है। अब विश्व का कोई भी व्यक्ति प्रलोभन नहीं दे सकता और बस वह सीता परीक्षा के उपरान्त पृथ्वीमती आर्यिका के पास दीक्षित हो जाती है। वह आर्यिका सीतामती बन जाती है। राम वंदना कर रहे हैं। राम कहते हैं- आज पुरुष के लिए मोक्षमार्ग क्या होता है? नारी के द्वारा ज्ञात हुआ। मैं भूल गया था, मैं बाहरी-बाहरी राज्य विस्तार में रहा, इसी का अनुपालन करता रहा और मानता रहा यही मेरा कर्तव्य है लेकिन तुमने एक और आगे कदम बढ़ाये, ऐसा साहस जुटा लिया, ऐसा बोध प्राप्त कर लिया, साक्षात बोध के लिए चल पड़ी हो। धन्य हैं और वहाँ पर राम आर्यिका सीतामती की वंदना करते हैं, इसलिए लोग सीता-राम बोलते हैं। सीता पहले आर्यिका बन जाती हैं तो राम उनको वंदना करते हैं। यही एक मात्र निश्चत पथ है जिस पथ को अपनाने के बाद विश्व विश्व रूप में ज्ञात हो जाता है।
विश्व मेरा नहीं, विश्व किसी का नहीं। विश्व तो विश्व है। प्रत्येक कण-कण अपनी स्वतन्त्रता को लिए हुए है। ध्यान रखो जो सत्ता की भूख को मिटाना चाहते हैं वे यह नहीं सोच पाते कि दूसरे के ऊपर हुकूमत चलाना जघन्य कार्य माना जाता है। हाँ! यदि सामने वाला कह दे हम अनजान है, हमारे पास बुद्धि/ शक्ति नहीं है, हमारे पास विवेक नहीं है, आप शक्ति सम्पन्न हो, कुछ दिशा निर्देश देकर मेरी रक्षा करो, तब अकिञ्चन भाव से मात्र अपना कर्तव्य पूरा करता हुआ विचार करता रहता है। निर्देश दे देता है, तुम्हारी सत्ता भिन्न है, हमारी सत्ता भिन्न है, इस प्रकार का जो अवलोकन अपने दिव्य ज्ञान से करता है, उसी का नाम सम्यक ज्ञान है।
हम प्रत्येक व्यक्ति के ऊपर सत्ता चलाने के लिए लगे हुए हैं। राजसत्ता दूसरे के ऊपर सत्ता चलाने के लिए नहीं है, यह अनंतकालीन घोर दुख की परिपाटी है, यह रीति संसार को बढ़ाने वाली है, ध्यान रखिए! इस प्रकार समस्त संकल्प विकल्प छोड़कर सीता आर्यिका बन जाती है। सीता के इस वैराग्य से राम के हृदय की मोह ग्रन्थि ढीली पड़ गई। कुछ दिन के उपरान्त लव-कुश को राज्य व्यवस्था सौंपकर राम भी आत्माराम को खोजने की तैयारी में चल पड़े वह विचार करने लगे
नाहं रामो न मे वाञ्छा, भोगेषु च न मे मनः ।
शान्तिं समाप्तुमिच्छामि स्वात्मन्येव यथा जिनः॥
जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् स्वात्मन्येव स्थित होते हैं। 'जिन' वह होता है, जो जीतता है अपनी आत्मा को, कर्मों को/कषायों को शान्त कर देता है। इन्द्रियों को वशीभूत कर लेता है, वह जिन माना जाता है। जिनेन्द्र भगवान् अपनी आत्मा में, सुख शान्ति में लीन हो गये हैं उसी प्रकार आज राम कह रहे हैं-"नाहं रामो" दुनियाँ मुझे भले राम कह दे लेकिन आज तक में चक्कर में था ये मुझे राम कह देते तो मैं अपने को राम मानता रहा हूँ। नहीं आज भेद-विज्ञान हुआ, भेद पता चला मैं आत्म सम तो हो सकता हूँ लेकिन आप लोगों के द्वारा कहा हुआ राम नहीं हो सकता। यह स्वयं राम कह रहे हैं वैराग्य के क्षणों में नाहं रामो-मैं राम नहीं हूँ। यह राम केवल शरीर का नाम है। न मे वाच्छा-मुझे कोई इच्छा नहीं है। भोगेषु च न मे मन:-मेरा मन पंच इन्द्रियों के विषयों में कभी लुब्ध नहीं हो सकता। एक मात्र शान्तिमिच्छामि-मैं शान्ति को चाहता हूँ। इसका अर्थ-न सीता के साथ शांति मिली, न रावण को जीतने के उपरान्त शान्ति मिली न लक्ष्मण भरत आदि मिलने के उपरान्त भी शान्ति मिली, बहुत लोग उनकी सेवा करने के लिए तत्पर हो गये, उसमें भी उन्हें शान्ति नहीं मिली। शान्ति बाहर नहीं, शान्ति भीतर है। वसन्त की बहारों में भी नहीं है, जंगल में भी नहीं है, भीतर मंगल में है। उसको देखने का प्रयास करो। आज नेत्र खुले हैं राम के। वो राम कह रहे हैं, मैं राम नहीं हूँ, राम आज आत्मा के उन्मुख हो गये हैं, आत्मज्ञान उन्हें प्राप्त हो गया है। और सोचते हैं राम कि मुझे यथा जिन बनना है। जिनेन्द्र भगवान् ने जिस प्रकार सुख शान्ति ढूंढी और सुख शान्ति में लीन हो गये। उसी प्रकार में भी केवल आत्मा में लीन होना चाहता हूँ।
एकाकी निःस्पृह शान्तः, पाणिपात्रो दिगम्बरः ।
कदाह संभविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः॥
मैं दिगम्बर कब बर्नूगा, मुनि कब बनूँगा, मैं पाणिपात्री कब बर्नूगा, ऐसा विकल्प करते हुए सोचने लगे, मुझे वस्त्रों की कोई आवश्यकता नहीं, मैं अकेला हूँ, दूसरे की कोई आवश्यकता नहीं, मैं निस्पृह हूँ, स्वभाव से मैं दिगम्बर हूँ मैं स्वयंभू बनना चाहता हूँ, संसार के जड़ कर्मों को काटना चाहता हूँ। जिन कषायों ने संसार को खड़ा कर रखा है, उसको मूल सहित उखाड़ना चाहता हूँ। जब तक हम पेड़ को काटते चले जाते हैं तब तक वसन्त की बहार में पेड़ पुन: कोपल को धारण कर लेता है। जड़ सहित उखाड़ देते हैं, तो कुछ दिनों में वह राख-राख हो जाता है, उसी प्रकार इस संसार का प्रासाद निर्मूल करना चाहता हूँ उसके लिए एक मात्र एकाकी होना आवश्यक और दिगम्बर होना अनिवार्य है। शरीर से ही नहीं भीतर से जो आत्मा में ग्रंथियाँ/कषायें बैठी हैं उनसे भी मैं दूर होना चाहता हूँ, निस्पृह होना चाहता हूँ यही राम की भावना/कामना है। यही राम की प्रार्थना है। यह दृश्य उस समय का प्रस्तुत किया गया है जिस समय राम इस भूमि पर गृहस्थ अवस्था में सीता की आर्यिका दीक्षा अपनी आँखों से देख रहे थे तथा संसार की असारता का अनुभव कर रहे थे। कुछ समय के बाद राम ने भी अपने चिन्तन के अनुसार दिगम्बर दीक्षा ले कर सिद्ध पद को प्राप्त कर लिया। आज राम संसार के बंधनों से छुटकारा पाकर अनंतकाल के लिए अनन्त धाम को प्राप्त कर सिद्धालय में विराजमान हैं। हमारी भी यही भावना है हम भी उसी पद को प्राप्त करने की साधना कर रहे हैं। हमें सिद्ध परमेष्ठी पद प्राप्त हो। ऐसे राम के सिद्धान्तों को और अपने जीवन से मुक्त राम को मैं नमस्कार करता हूँ।