भ्रमित पथिक के लिये महान् जीवों का इतिहास ‘मार्ग सूचक’ प्रतीक की भांति है। अतीत पर दृष्टिपात करने से सही रास्ता मिलता है। सही रास्ते पर की गयी यात्रा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। किन्तु संसारी प्राणी की आँखों पर अज्ञानता की पट्टी बंधी हुई है। जिससे यह मनुष्य कोल्हू के बैल की भांति यात्रा तो करता है पर मंजिल की प्राप्ति नहीं हो पाती।
यात्रा आरम्भ करने के पश्चात् रुकना ठीक नहीं, नर्मदा नदी की तरह। नर्मदा का स्रोत अमरकंटक में है। आगे बढ़ने पर अनेक बाधाओं का सामना नर्मदा को करना पड़ा। फिर भी बीच में आये बाधक पहाड़ों को काटते हुए वह बढ़ती ही गई मंजिल की ओर। पहाड़ को काटा, धार बना दी पत्थरों में धारा ने। इससे सिद्ध होता है कि पुरुषार्थ किये बिना आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता। बाधा आने पर नर्मदा, अमरकंटक वापस नहीं आयी। खंभात की खाड़ी तक यात्रा कर सागर में जा मिली। यात्रा पूर्ण होते ही निर्वाण प्राप्त हो गया। मध्य में रुकना नर्मदा ने नहीं स्वीकारा। बाधाएँ रोक नहीं पायी, धारा को। वापस भी नहीं कर पायी तभी तो सागर मिला। भगवान् 'आदिनाथ' की दीर्घकालीन यात्रा भी इसी तरह पूरी हुई।
आज विज्ञान का युग है हमने उद्यम किया नहीं, सफलता कैसे मिले? उद्यम करने पर ही सफलता मिलती है। नदी की परिक्रमा करने वालों को ज्ञात होता है कि मुक्ति कैसे मिलती है। आदि, मध्य, अंत की यात्रा परिक्रमा है। कितना परिश्रम करने के पश्चात् सफलता प्राप्त होती है। लक्ष्य को पाने के लिये संकल्पित नर्मदा बीच में रुकी नहीं सामने पहाड़ आये, चट्टानें आयीं कई तरह की बाधायें आई किन्तु उसने सभी बाधाओं से कहा हटो, नहीं तो कटो, अब यह धारा रुकेगी नहीं। आदिनाथ भगवान् से लेकर भगवान् महावीर तक धारा की यह परम्परा चली आ रही है। हम पुरुषार्थी बनें, प्रयास करें किन्तु यह भी ज्ञात रहे कि सही दिशा में किया गया प्रयास ही प्रयास है। गलत मार्ग पर चलना आभास मात्र है। आये गये भटकन जारी है कोल्हू के बैल की तरह। आँखों पर अज्ञानता की पट्टी बांधे यात्रा जारी है। पट्टी खुलते ही देखा वहीं के वहीं खड़े हैं दिन भर चलकर भी। तेली, तेल निकाल लेता है तथा कोल्हू का बैल रोता है कि करम फूट गये। अरे रास्ता तय करने के पूर्व यह तय कर लो कि जाना किस ओर है? दिशा का पता नहीं, यात्रा आरम्भ कर दी कोल्हू के बैल की तरह। क्या करें, आँख पर तो पट्टी बंधी है अज्ञानता की। पथ का ज्ञान कर लो, परम पद प्राप्त कर चुके महापुरुषों से। उद्गम अलग, तट अलग, अंत समर्पण है। लम्बी यात्रा के पश्चात् नर्मदा नदी सागर के सामने अपना समर्पण कर देती है अब नर्मदा, नर्मदा नहीं रही वह सागर में समा गई, यही उसका अपने आराध्य/गन्तव्य के प्रति समर्पण है।
इस समर्पण में हमारा अहंकार बाधक बनता है लोक जीवन में यह कई-कई रूपों में प्रकट होता रहता है। कोई काम किया तथा नाम अंकित कर दिया। अगले जन्म में पड़ोस में जन्म लिया तथा उस नाम को मिटा दिया। ज्ञात नहीं है स्वयं का नाम स्वयं मिटा दिया। आप अपने लिये ही खतरा बन जाते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे एक हाथ में आप दीया लिये हैं तथा हवा के झोंके से बचाने के लिये दूसरे हाथ की ओटकर लेते हैं फिर भी कभी-कभी अपने श्वांसों से दीया बुझ जाता है। बाहरी बाधा से तो दीया की रक्षा कर ली किन्तु स्वयं की श्वांस ने बुझा दिया। आपने ही जलाया, आपने ही बुझा दिया। यह भी क्या जीवन है?
क्या करना है? किस ओर से प्रारम्भ करना है यह महापुरुषों की यात्रा से ज्ञात हो जाता है। 'आदिनाथ भगवान् निर्वाण के बारे में सोच रहे हैं। हम भी भगवान् बन सकते हैं हम से तात्पर्य समान गुणधर्म से हैं। एक भाव होने पर ही हम हैं। अपने भावों में 'हम' नहीं 'तुम' हो जाता है। जो धारा चट्टानों से कट जाती है वह अनेक हो जाती है किन्तु जो चट्टानों को काट देती है वह एक रहती है। साधना के क्षेत्र में हमेशा मैदान मिले ऐसा नहीं है। ऊबड़-खाबड़ रास्ते, दरिया, रेतिला, भूमि सभी मिलती है। फिर जैसा रास्ता मिला वैसा ही बहना धारा का स्वभाव है, किन्तु उसे बहना है। नर्मदा का जल मीठा है इसीलिये कि ठहरा नहीं है, बहता है, हल्का भी है, हल्का होने से जीवन मधुर होता है तथा भीतरी रूप झलकता है अर्थात् प्रकट होता है।
गंगा आकाश से भले ही उतरी मानी जाती है किन्तु उसका प्रवाह धरती पर ही है। स्वर्ग में नहीं, गंगा जल पृथ्वी पर है। धरती पर ही तीर्थ है स्वर्ग में तीर्थ नहीं। गंगा की यात्रा पूर्ण होते ही समुद्र से मिल जाती है। जीवन, धारा के समान प्रवाहमय है। बहना रुक जायेगा तो पानी सड़ जायेगा। नहीं तो बहते पानी में सड़ा पानी भी मिलने पर वह भी स्वच्छ हो जाता है। इसलिये रुकना हमारा धर्म नहीं।‘रमता जोगी बहता पानी' तभी स्वच्छ है, रुके हुये भी रुके नहीं। यहाँ-वहाँ कितना रुकना है। रुकने के लिये तो मोह ही सबसे बड़ी बाधा है। किन्तु अब मोह नहीं है तो रुकने का प्रश्न ही नहीं। रुकने का अर्थ है आकर्षण। किसका आकर्षण? स्वयं का? जड़ का ? चेतन का ?
फल की प्राप्ति का आधार स्वयं के विचार हैं। शुद्ध अवस्था के अनुभव के बिना शांति मिलने वाली नहीं है। शास्त्र के माध्यम से इसका ज्ञान मिलता है। पूर्व में जो कहा गया वही पुराण है। आज हमारा पुराण से संबंध छूटता जा रहा है। धन से संबंध स्थापित होता जा रहा है। मूल्यों में कमी आ रही है। राष्ट्र की मुद्रा का मूल्य कम होने से राष्ट्र का सिर झुक जाता है। किन्तु मूल्य बढ़ने से विश्व में नाम होगा। कृषि प्रधान देश होते हुए भी गेहूँ बाहर से आ रहा है। यह इस देश की स्थिति है। इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी इस देश की।
महापुरुषों द्वारा दिया हुआ यह दीया बुझने को है, इसे बचालो। वह बुझ रहा है स्वयं की दीर्घ श्वांस से। बिजली दीया का विकल्प नहीं। बिजली तो चंचला है, चपला है, क्षण आयु की है। विज्ञान स्वाभाविक ज्ञान से दूर है। दीपक को देखने से स्वभाव का ज्ञान होता है। दीया की लौ ऊध्र्वगामी होती है, किन्तु विद्युत की रोशनी ऊध्र्वगामी नहीं है। ऊध्र्वगामी लौ नहीं तो लौ (लगन) नहीं। यह ध्यान रखों! पुरुषार्थ के अभाव में लक्ष्य पूर्ण नहीं हो सकता। लक्ष्यहीन अपने आपको हम कहाँ कैसे ले जा रहे यह ज्ञात ही नहीं। दूसरों को चलाना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना स्वयं को सही दिशा में चलाना। आदिनाथ और महावीर भगवान् के इतिहास से ज्ञात होता है कि हमें किस ओर जाना है। उन्हीं प्रतीक संकेतों को जानकर यदि हम सम्यक्र पुरुषार्थ करते हैं तो भगवान् के समान हमारा भी कल्याण सुनिश्चित है।