चौबीस तीर्थकर हुए। अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी हुए। उनके तीर्थकाल से पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ। पार्श्वनाथ का एक अपना अलग ही स्थान है जो हम लोगों के लिये बहुत प्रेरणा -दायी है, धर्म हमेशा दया की मुख्यता को लेकर है। दया ही धर्म का मूल है उसकी शाखायें और उपशाखाएँ बहुत लम्बी चौड़ी हैं। यदि हम धर्म मात्र की चर्चा करते रहते है तो जीवन सार हीन माना जायेगा। दया के बिना पैसे के बल पर जो धर्म का प्रचार प्रसार करते हैं उसका आगे जाकर मूल ही सिद्ध नहीं होता है।
आज दो तीन वर्ष में ही हाथों हाथ फल चाहते हैं इसी कारण कलम पद्धति आ गई। कलम लेखनी को भी कहते हैं अलग-अलग जाति के पेड़ को मिलाकर एक नया कलमी पेड़ उत्पन्न किया जाता है इस प्रकार के विकास को देखते हुए किसी व्यंग्यकार ने लिखा कि अब कलमी बच्चे भी मिलेंगे। यदि यह हो गया तो न मूल मिलेगा न चूल, न मूल ना संस्कार।
पार्श्वनाथ रथ में बैठकर घूमने गये थे। किसी कारणवश रथ से उतरे उस समय वे मुनि नहीं थे, मुनि रथ में नहीं बैठते, वे तो सदा ज्ञानरथ में बैठते हैं। पार्श्वनाथ दयामय रथ में बैठते थे इसीलिये उन्होंने कहा जिस लकड़ी को तुम जला रहे हो उसमें जीव है। जिसमें जीव हो अथवा जीव होने की योग्यता हो उसे जलाया नहीं जाता। जैसे आप चावल चढ़ाते हैं क्योंकि वे जीवन्त नहीं हैं और आगे भी जीवंत होने की योग्यता नहीं है।
जिसमें दया को स्थान नहीं वह धर्म नहीं। दयाधर्म के अभाव में जो संसार में भटक रहे हैं उन्हें रास्ता संतों को ही बताना होता है। दया धर्म का प्रचार मात्र शब्दों से होता है ऐसा एकान्त नियम नहीं।
मोक्ष मार्ग विवेक के साथ ही प्रारंभ होता है संसारी प्राणी को भले ही दिव्य ज्ञान नहीं है परन्तु उसके पास विवेक है उसे रखना चाहिए उसी विवेक से दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होगी, जिस धर्म में दुनिया के जानने की क्षमता है उस धर्म के माध्यम से दिव्य ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। पोथी ज्ञान नहीं किन्तु योनि स्थान (जीवोत्पत्ति) कहाँ-कहाँ किस रूप में है यह विवेक जागृत होना ज्ञान है।
नम: सिद्धेभ्य: तीर्थकर कहते हैं ओम् नहीं कहते हैं। फिर भी सुनते हैं नाग नागिन को णमोकार मंत्र सुनाया पार्श्वनाथ ने।। णमोकार मंत्र का अर्थ होता है नमस्कार मंत्र अतः नमः सिद्धेभ्यः किया, अर्थात् सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार किया। पंच नमस्कार की बात नहीं है।
दया का रहस्य खुल जाता है तब दयावान देवों को पीड़ा हो जाती है कि मैंने दया का ऐसा कार्य नहीं किया। दया का रूप द्रव्य, क्षेत्र काल भाव के अनुसार अलग-अलग हुआ करता है। दया का पाठ तिर्यच ने लिया जिससे वह तिर्यच देव हुआ, और फिर देवाधिदेव को देखकर अनुग्रह करने लगा। दया धर्म के प्रति जो समर्पित हो जाता है वह धर्मात्मा कहलाता है। दया का प्ररूपण केवली ही कर सकते हैं क्योंकि वही दया के विराट रूप हैं। दयामय कार्य को करने वाले प्रभू ने असंख्यात जीवों पर दया की। इतिहास उदाहरणों से भरा पड़ा है।
धर्म कर्तव्यपरक है कर्तापरक नहीं। दया धर्म के पालन से ही उस दयावान की पूजा होती है दयामय धर्म जब जीवन में उतर जाता है तो हम तर जाते हैं और दुनिया को प्रकाश मिल जाता है। प्रकाश दीपक देता है किन्तु जो प्रकाशित करता है वही दीपक कहलाता है धर्मात्मा के पास बैठने से अथवा धर्म की बात सुनने मात्र से धर्मात्मा नहीं होते किन्तु जीवन में दयामय धर्म उतारने से धर्मात्मा होते हैं।
धरणेन्द्र पद्मावती पूजक हैं और पार्श्वनाथ भगवान् पूज्य हैं। पूज्य मुख्य होता है वही बड़ा होता है अत: भगवान् मुख्य हैं उन्हें ही बड़ा होना चाहिए। जैसे फोटो लेते समय मुख्य की ओर फोकस करते हैं। पूजक के संविधान हो सकते हैं, विधान (पूजन) नहीं। जैसे गाड़ी (कार) में तीन व्यक्ति फ्रेंट में बैठते हैं तो उन तीन में एक ड्राइवर भी होता है उसके गले में माला नहीं डालते। देवाधिदेव के चरणों में देव झाडू लगाते हैं वे कभी यह नहीं कहते कि तुम भगवान् की पूजा छोड़कर हमारी पूजा करो। वे स्वयं भगवान् की पूजा करते हैं।
जिस कार्यक्रम में मिनिस्टर कलेक्टर पुलिस आदि आ जाते हैं उसमें सामान्य लोगों की भीड़ अपने आप लग जाती है उसी प्रकार देवाधिदेव की जब पूजा करते हैं तब सामान्य देव अपने आप आ जाते हैं। आप लोगों को वीतरागता का ज्ञान न होने से और स्नेह, लोभ, आशा और भय के कारण देवी देवताओं की पूजा करने लगते हैं। भगवान् न देते हैं न लेते हैं किन्तु सामान्य चार निकाय के देव देते भी हैं, और लेते भी हैं और धक्का भी देते हैं। कहीं धक्का न दे दे, नहीं तो क्या होगा इसी डर के कारण आप पूजते हैं। देवों की पूजा नहीं परन्तु पद के अनुसार आदर तो देना ही चाहिए।
सेवक हमेशा पीछे ही रहता है जब कोई गड़बड़ी होती है तो रक्षक बनकर आगे आ जाता है। आप धर्मात्मा हैं भगवान् के दास हैं और देव दासानुदास हैं अत: देव तो आयेंगे ही फिर उनसे डरना नहीं चाहिए। दयाधर्म भाव प्रधान है यदि भाव सहित भगवान् को नमस्कार किया जाता है तो भय संकट बाधायें दूर हो जाती हैं। यदि हम सम्यक ज्ञान मय क्रियायें करते हैं तो भगवान् का बहुमान और अधिक हो जाता है। जिसको जो पद मिला उसको उसी रूप में मानना उसी के अनुरूप पूजना सम्यक ज्ञान का कार्य है।
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