संसारी प्राणी को मुख्य रूप से तीन ऋतुओं के माध्यम से राग-द्वेष, धर्म विषाद होता है। गर्मी में सर्दी और सर्दी में सूर्यनारायण याद आते हैं। जब जो है उस समय उससे राग क्यों नहीं? जाने के बाद अनुराग क्यों? जिस समय जो मौसम है उस समय उसी का आनंद क्यों नहीं लिया जाता। इन ऋतुओं को बार-बार परिवर्तित/समाप्त करने की अपेक्षा समाप्त करने की चाह रखने वाले मोह को ही समाप्त कर देना चाहिए। यह मोह का ही परिणाम है कि मनोनुरूप कार्य होने पर हम प्रशंसा के गीत गाने लगते हैं और मन की न होने पर उसी की अवहेलना/उपेक्षा करने लगते हैं। मानव मन की यह बहुत बड़ी कमजोरी है। स्वभाव का भान होते ही यह सारी बातें पीछे छूट जाती है। पैसा आ जाये तो खूब उत्साह विलास और चला जाये तो उदास, निराश किन्तु वास्तविकता समझ में आते ही न विलास न निराश बल्कि संन्यास आ जाता है। एक वह व्यक्ति जिसे हम आपके सामने लाकर रख रहे हैं, आप लोगों की अपेक्षा बहुत पीछे था पर कैसे बढ़ गया आगे, इस पर आप सभी को विचार करना है।
चैन नहीं है बिल्कुल, रात बहुत बड़ी है, चारों ओर भोग सामग्री फैली है, सब तरफ गहन मौन छाया है। किसी को उठाना/बुलाना नहीं चाहता है वह/वह चाहता है कि सब लोग ऐसे ही सोते रहे और मैं चुपचाप धीरे से निकल जाऊँ/निकलने के लिये रस्सी नहीं तो क्या? कुछ भी ......। हाँ! will power होना चाहिए। आपके पास में धन, बल, पद का power हो सकता है पर will power नहीं है। हमें आज इस व्यक्ति के माध्यम से power की नहीं will power, self confidence की बात करनी है। यदि हमारी इच्छा शक्ति प्रबल हो तो बिना रस्सी के भी रस्सी का काम हो सकता है। फिर नसैनी की जरूरत नहीं सैनी (मन/इच्छा) भर हो, समझदारी भर हो। जहाँ चाह है वहाँ राह निकल ही आती है और रास्ता खोज लिया गया-साड़ियाँ बाँधकर नीचे उतर गया। वह। क्या सोचकर निकले? भवन को छोड़कर वन की ओर क्यों गया? इस भवन में सुख नहीं तो दूसरा भवन, राजभवन भी तैयार किया जा सकता था किन्तु सब कुछ छोड़कर वन की ओर क्यों? बस एक ही बात-आत्म श्रद्धान् self confidence, will power |
काली-काली घटायें देखकर, बिजलियों की चमक और बादलों की गर्जन सुनकर सभी भयभीत हो जाते हैं, घबराते हैं किन्तु वह मयूर दल निर्भीक आनंद के साथ नाचता रहता है क्योंकि उसे इष्ट दिख गया है। कदम आगे बढ़ते गये, कंकर काटे आये पर रुके नहीं। रास्ते में पदचिह्न अंकित होते गये रत के निशान से। कष्ट का ज्ञान तो हुआ होगा पर दृढ़ता कैसी अद्भुत, जैसे अपने ही घर की ओर जा रहे हों, शरण्य की ओर जा रहे हों। पहुँच गये उल्लास के साथ, प्रणाम किया और तथास्तु के रूप में मिल गया आशीष। इतना ही सुनने मिला कि-केवल तीन दिन की आयु शेष है, शीघ्र ही अपने कल्याण में लग जा और फिर क्या? एक साथ दैगम्बरी दीक्षा। क्या साहस है, कहीं से आ गया, कैसे आ गया यह साहस। वन में किसने बुलाया? और भवन को किसने भुलाया? यह सूक्ष्म डोर दिखती ही नहीं फिर भी सम्बन्ध तारतम्य बना रहता है। रक्त की गन्ध पाकर स्यालनी आ गई बच्चों सहित, खाना शुरू हो गया लेकिन वह निडर निस्पृह खड़े हैं। मेरु की तरह अडिग। वही काया जिसे सरसों के दाने चुभते थे, रून कम्बल के बाल सह्य नहीं थे, रून दीपक के प्रकाश में पालन-पोषण हुआ, कमल पत्र में सुवासित चावलों के एक-एक दाने चुगे जाते थे, और आज अहा.....! हा.....will power, Self confidence वही काया, वही क्षेत्र वही भोग्य सामग्री, पर कहीं से आ गई ये दृष्टि। उनका नाम मालूम है क्या था? वे थे हमारे आदर्श सुकमाल स्वामी।
बंधुओ! भूख है तो खोज हो ही जाती है अनाज की। दृष्टि होने पर गन्तव्य मिल ही जाता है। आत्मज्ञान के अभाव में यह संसारी प्राणी शरीर की सेवा में लगा रहता है किन्तु आत्मज्ञान प्राप्त होते ही कड़े से कड़े प्रबंध और वैभव सब पड़े रहते हैं फिर वह शिव राही शरीर की परवाह नहीं करता। शरीर तो अनेकों बार मिला, मिला और छूट पर उसको तो देखो जिसे मिला है। शरीर के मिलने पर हर्ष और छूटने पर विषाद क्यों? क्या कभी पुराने वस्त्र बदलते समय हम विषाद करते हैं। गीता में कहा गया है कि यह आत्मा अखेद्य है, अभेद्य है, अक्लेक्ष्य है नित्य ही सनातन है जो पानी में डूब नहीं सकती, अग्नि में जल नहीं सकती, वायु के द्वारा शोषित नहीं हो सकती ऐसी यह आत्मा अविनश्वर है। समयसार में भी कहा गया है कि शरीर के छिद जाने पर, मिट जाने पर भी इस आत्मा का कुछ भी नहीं बिगड़ता है। फिर भी हम हैं कि इस रहस्य को न समझकर शरीर के व्यामोह में फैंसे हुए हैं यही अज्ञानता हमारी दुख परतन्त्रता का कारण बनी हुई है।
रणांगन में अर्जुन ने जब देखा कि सामने गुरु द्रोणाचार्य और सारे कुटुम्बीजन खड़े हुए हैं तब धीरे से नीचे गांडव रख दिया और ज्ञान योग की बात करने लगे। तब कहा गया- हे! अर्जुन, रणांगन में तुम ज्ञानयोग का उपदेश सुनना चाहते हो। मोह की वजह से तुम्हें सिर्फ और सम्बन्ध दिखाई दे रहे हैं, अन्याय नहीं दिख रहा। यदि तुम्हें अन्याय दिखता तो तुम रणांगन के कर्तव्य से पीछे नहीं हटते। रणांगन में सामने वाले की आरती नहीं होती वह तो अराति (शत्रु) होता है। शिक्षा देने वाले पर कैसे बाण चलाये अर्जुन। अरे यदि सही शिक्षा देने वाला होता तो अन्याय की ओर खड़ा ही क्यों होता। अर्जुन को दृष्टि प्राप्त हुई, मोह भंग हुआ, स्वाभिमान जागा, कर्तव्य का भान हुआ और फिर क्या हुआ? सो सभी को ज्ञात है।
यह देश जब परतन्त्र था तो हमें एक नारा दिया गया था कि 'स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है'। यह नारा ही नहीं हमारा सिद्धान्त भी है। अनादिकाल से यह जीव परतन्त्रता का कष्ट भोग रहा है, यह भूल ही गया कि स्वतन्त्रता पाने का अधिकार हमारा जन्मसिद्ध ही है। इसके अन्दर स्वयं भगवान् बनने की शक्ति है पर वर्तमान में वह खोई हुई है। इसके अन्दर छिपा हुआ परमात्मा अभी सोया हुआ है, इसे जगाने की जरूरत है। जागृति के आते ही हमारे कदम गन्तव्य की ओर बढ़ने लगते हैं। संकल्पशक्ति का धनी वह वैराग्यवान साधक फिर लक्ष्य की प्राप्ति के लिये सब कुछ सहन करने तैयार हो जाता है सुकमाल स्वामी की तरह। धन्य है वे सुकमाल स्वामी जिन्होंने अति सुकुमार काया को पाकर भी मोक्षमार्ग में कमाल का काम कर दिया। वह काम किया जिसे युगों-युगों तक याद रखा जायेगा। ये कथायें ही नहीं हैं किन्तु जीवन को जगाने वाले प्रेरक प्रसंग है। इन्हें सुनकर हमारा स्वाभिमान जागृत हो जाता है, will power बढ़ जाता है। सुकमाल स्वामी ने तो तीन दिन में ही अपना सारा वैभव प्राप्त कर लिया जो अनन्त काल से खोया हुआ था। हम भी उन्हीं की तरह अपने खोये हुए स्वतंत्र वैभव को प्राप्त कर सकते हैं बस जरूरत है आत्म विश्वास की। उस आनंद वैभव की प्राप्ति हमें भी शीघ्रातिशीघ्र हो इसी भावना के साथ।
Edited by admin
Recommended Comments
Create an account or sign in to comment
You need to be a member in order to leave a comment
Create an account
Sign up for a new account in our community. It's easy!
Register a new accountSign in
Already have an account? Sign in here.
Sign In Now