सम्यक दर्शन जो मोक्षमार्ग में अनन्य स्थान रखता है, उसके द्वारा वाणी आचार विचार समीचीन हो जाते हैं। जीव इसको स्थाई बनाने की चेष्टा करता है, इसमें जो आठ अंग है वे गृहस्थ के लिए महान् उपयोगी हैं। इन अंगों से सम्यक दर्शन उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है। इसमें चार नि:शंका, नि:कांक्षा, निर्विचिकित्सा तथा अमूढ़दृष्टि अपने को लेकर हैं। बाकी चार स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना आदि पर को लेकर हैं। यहाँ पर समंतभद्राचार्य ने सम्यक दर्शन की प्ररूपण गृहस्थ को लेकर की है। पात्र को देखकर दान देने से पात्र को तथा दान देने वाले को दोनों को लाभ होता है। गृहस्थ गन्दा शरीर देखकर नाक सिकोड़ता है पर रत्नत्रय से आभूषित मुनि ऐसा कर लेगा तो मोक्ष मार्ग की उपासना नहीं कर सकेगा। गृहस्थ भी अगर मुनि की देह को देखकर घृणा करेगा तो उसे भी तीन काल में सुख शांति नहीं। आप अपने शरीर को लेकर घृणा करते हैं, पर जो स्नान न करने वाले हैं, जिनका शरीर बाह्य तप से तप गया है, धूल के कण लिपट गये हैं, उनसे घृणा करने पर न तो निर्विचिकित्सा अंग टिकेगा और न सम्यक दर्शन ही टिकेगा।
मुनि का तत्व चिंतन अलग, गृहस्थ का अलग है। गृहस्थ को चिंतन हेतु देव, शास्त्र, गुरु बताये पर मुनि हरेक द्रव्य जो भी सामने आएगा उसके स्वरूप के बारे में चिंतन करेगा। आप लोगों की दृष्टि अन्दर के गुणों की ओर नहीं गई बल्कि बाहर जड़ शरीर की ओर ही दृष्टि जाती है। गृहस्थ शरीर से तथा उसके फलों से घृणा करता हुआ भी रत्नत्रय से विभूषित मुनियों के शरीर को मैला देखकर घृणा न करेगा। उसे मल नहीं मंगल मानेगा, दोषों को निकालने के लिए पवित्र द्रव्य मानेगा और कालांतर में समता को धारण करेगा। अभी आप जो इष्ट अनिष्ट मान रहे हैं, वह दृष्टि सम्यक् नहीं कहलायेगी। इष्ट अनिष्ट कोई चीज नहीं है। इष्ट अनिष्ट दृष्टि में है पदार्थ में नहीं। अनादि से संसार में जो भ्रमण हो रहा है उसका कारण इष्ट अनिष्ट मानने से है। समय सार आप लोगों ने पुस्तक के रूप में देखा है, उसका अनुभव तभी होगा जब ज्ञान धारा (ज्ञेय) में हेय उपादेय नहीं होगा।
पढ़ पढ़ भये पण्डित, ज्ञान हुआ अपार।
निज वस्तु की खबर नहीं, सब नकटी का श्रृंगार।
जो मल (टट्टी) में नाक सिकोड़ने का कारण बना उसकी पूर्व पर्याय पर ध्यान जायेगा तो उसकी ओर (हल्वा पुड़ी आदि) इष्ट बुद्धि लगी है और अब थोड़ी देर में घृणा हो रही है। उत्पाद व्यय धौव्य तो हर वस्तु के साथ लगा है। अत: आप में वास्तविक स्वरूप का दिग्दर्शन नहीं हुआ। कहा है कि -
आता यदा उदय में वह कर्म साता,
प्रायः। त्वदीय मुख पे सुख दर्प छाता,
सिद्धान्त का इसलिए तुझको न ज्ञान,
तू स्वप्न को समझता असली प्रमाण।
ऐसा समझ रहा है यह प्राणी कि यह वास्तविक है, यह असली है, यह नकली है। यह एक तत्व के दो पहलू हैं, यह न असली है न नकली है। चीज को देखकर दृष्टि भ्रमित हो जाती है। आकांक्षा और ग्लानि, इन दोनों का अभाव तो तत्व का वास्तविक स्वरूप है, यह प्रथम सीढ़ी है। सुगन्ध-दुर्गन्ध के बारे में बहुत कुछ सुना पढ़ा होगा, प्ररूपणा की होगी पर गन्ध इष्ट अनिष्ट नहीं होती। पुद्गल का स्वभाव इष्ट अनिष्ट नहीं है। ज्ञान के साथ इष्ट अनिष्ट की कल्पना कलंक का टीका है, जिसे धोने के लिए वीतरागता सक्षम है। तभी राग-द्वेष नहीं होगा, यही वास्तविक धर्म की चरम सीमा है। और तभी आप धनी, कृतकृत्य बन जाएँगे आनन्द का अनुभव करेंगे। शास्त्र आपके लिए आयतन है। अनेकांत को समझने के लिए बहुत विशालता की, दृढ़ श्रद्धान की आवश्यकता है। जब ऐसा हो जायेगा तब कर्म के बारे में व उसके फलों के बारे में इष्ट अनिष्ट की कल्पना न होगी। वास्तविक धर्म एक अनोखा ही है जब वह प्रादुभूत हो जाता है, तब कहने की चीज ही नहीं है, अनुभव की है।
सद्बोध शिष्य दल को जब मैं दिलाऊँ,
स्वामी! निजानुभव मैं तब हो! न पाऊं।
ना शब्दगम्य, निजगम्य, अमूर्त हूँ मैं।
कैसे ? किसे ! कब उसे ! दिखला सकूं मैं ॥
हे भगवान्! मैं तत्व से स्खलित हो जाता हूँ, उपयोग से च्युत हो जाता हूँ, जब मैं दूसरे को समझाना प्रारम्भ कर देता हूँ। शुद्धोपयोग स्वयं की द्रव्य, क्षेत्र, काल की अपेक्षा से है, पर की अपेक्षा से नहीं। अन्दर से फिर बाहर की ओर नहीं बढ़े, इस प्रकार का चिंतन जब होगा, तब ऐसी शांति होगी कि उसका वर्णन मुश्किल है। दूसरे का आधार लेना नीचे गिरना है। पुद्गल में रस नहीं, आत्मा में रस है। वीतराग की उपासना करनी है तो ग्लानि छोड़नी होगी। इष्ट अनिष्ट की कल्पना छोड़नी होगी। जो स्वभाव से च्युत कराने वाला है, उसे अपनाते ही क्यों हो? महावीर उस ओर गये जहाँ कोई नहीं था और जहां भीड़-भड़ाका था वहाँ पीठ दिखा दी। विकार से, घृणा से, अनिष्ट, इष्ट से दूर न होगे तब तक वास्तविक सुख न मिलेगा। वीतरागता को प्राप्त करने का ध्येय जिसका है, वही सम्यक दर्शन का अधिकारी है, वरना तो मात्र अभिनय है। वीतराग धर्म को अपनाने की चेष्टा जो करेगा उसका ज्ञान समीचीनता की ओर जाएगा, वह सांसारिक कार्यों को नहीं अपनायेगा।
आचार्यों का लक्ष्य वीतरागता है न कि सम्यक दर्शन मात्र। मोक्ष मार्ग कहते ही आपकी दृष्टि सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र की ओर हो, आपके मोह का नाश हो। ज्ञान प्राप्त हो तो उसी रूप त्याग भी होना चाहिए। आपको सुख की अनुभूति हो, यही मेरी इच्छा है। सम्यक दर्शन व ज्ञान से सुख नहीं, पर उसके साथ चारित्र हो, तब सुख है। अत: गृहस्थाश्रम में रहते हुए उदासीन रहे और धीरे-धीरे वही सुख आप लोगों को मिले। रास्ता मालूम हो जाने के उपरांत भी दौड़ लगाने की चेष्टा करना, इधर-उधर ही भटकना, इसका मतलब या तो आपको मंजिल पता नहीं या रास्ते पर विश्वास नहीं। महाव्रत न ले सको तो अणुव्रत तो लो। इस विषम स्थिति में क्षेत्र भी आपेक्षित है उदासीन होने के लिए। उदासीन होने के बाद ३ बार सामायिक, पूजा, प्रक्षाल, शास्त्र स्वाध्याय करेंगे। आज जमाने के साथ-साथ आप उलट गये, दृष्टियाँ पलट गई, जिसने जीवन को पलट दिया। जीवन को बनाने के लिए उदासीनाश्रम की आवश्यकता है। तप के प्रति आपकी रुचि होनी चाहिए। मनुष्य जीवन को प्राप्त किया है, विवेक भी है, तो चारित्र को भी अपनावें, जिससे असंख्यात गुणी निर्जरा होगी, सुख का अनुभव होगा। भावों में यदि स्खलित भी हो जाये तो चारित्र होने पर भाव ठीक हो जाएँगे। चारित्र परमावश्यक है, उसे कुछ न कुछ अंशों में धारेंगे। १२ व्रतों को अनुपालन बहुत सरल है। सभी को छोड़कर वृद्धावस्था के जो व्यक्ति हैं, वे जब आपस में उदासीन होकर एक जगह रहेंगे तो शास्त्र पठन पूजा भक्ति करेंगे, तो सोलहवें स्वर्ग तक भी जा सकते हैं। जहाँ से मनुष्य भव प्राप्त कर पुरुषार्थ से मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं अगर चाहें। नहीं तो अनन्त संसार है। जीवन बहुत थोड़ा रहा है अत: उसे आदर्शमय बनाने के लिए व्रतों का पालन करें।