नीर के मंथन से नहीं बल्कि दही का मंथन करने पर नवनीत की प्राप्ति होती है, वैसे ही शास्त्र पढ़ने से नहीं बल्कि स्वयं के मन का मथन करने तथा रत्नत्रय को प्राप्त करने से ही कल्याणरूपी नवनीत प्राप्त होगा अन्यथा नहीं। शास्त्र या पोथी मात्र ज्ञान नहीं, क्योंकि शास्त्र कुछ भी नहीं जानता है। शास्त्र भिन्न है और ज्ञान भिन्न अत: शास्त्र को जानकर मन जब उसमें लीन होता है तो जीवन में हार की समाप्ति होकर जीत ही जीत होती है।
निज में यति ही नियति है, ध्येय पुरुष पुरुषार्थ।
नियति और पुरुषार्थ का, सुन लो अर्थ यथार्थ॥
संतों ने हमें कल्याण हेतु दिशाबोध दिया है किन्तु शास्त्र का कोई पार नहीं। जीवन में समय बहुत कम है हम सब दुर्मेधा (वक्रबुद्धि) वाले यदि आत्म कल्याण चाहते हैं तो ऐसा कार्य शीघ्र कर लेना चाहिए जिससे जन्म और मृत्यु को समाप्त किया जा सके। जितना समय हम राग द्वेष आदि के करने में लगा देते उतना या उसका लाखवाँ भाग भी सत् कार्य कर पुरुषार्थ करें तो शीघ्र ही आत्मकल्याण हो सकता है।
आचार्य श्री ने कहा कि किसी भी मंजिल तक पहुँचने हेतु पथ या सीढ़ी अनिवार्य होती हैं अत: पथ का चुनाव महत्वपूर्ण है, जो कि शिक्षण के बिना नहीं हो सकता, शिक्षण का अर्थ ज्ञान है तो मराठी, कन्नड़ आदि में उसका अर्थ दंड भी होता है। संस्थागत शिक्षा आजीविका के लिए होती-ऐसी प्राय: आम धारणा होती है। परंतु विद्या अर्थकारी नहीं, विद्या अवगुणों के नाश तथा परमगुणों की प्राप्ति का कारण होती है। शिक्षण क्षेत्र में अांदोलन अभिशाप है। महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में उद्यम/पुरुषार्थ चरम सीमा पर होने चाहिए, क्योंकि वे शिक्षार्थी ही देश के होनहार (नागरिक) कर्णधार हैं, किन्तु आज विश्व के अन्य विश्वविद्यालयों की तुलना में भारत के विश्वविद्यालयों में उद्यम नहीं-ऊधम अधिक होता है जिसके कारण विद्यार्थियों का एवं देश का भविष्य अंधकारमय होता जा रहा है।
क्रोध को जानकर उसके आने के द्वार को पहले बंद करें तथा जब-जब क्रोध आता है उन क्षणों में स्वयं को जागृत रखने का प्रयास करें। हम तो बाहरी द्वारों को बंद करने का उद्यम करते हैं। क्रोध तो भीतरी दरवाजे से आकर विस्फोट करता है, जो थोड़ी-सी आकुलता में अपना परिवेश बदलकर अन्य विकारी भावों के रूप में बाहर आ जाता है। पर क्रोध-मान आदि विकारों के आने पर भी उस पर कंट्रोल/नियंत्रण करना ही क्षमा है। आत्मा में जब तक क्षमा के संस्कार नहीं होंगे तब तक शांति की प्राप्ति नहीं होगी।
पुनः भस्म पारा बने, मिले खटाई योग।
बनो सिद्ध पर-मोहतज, करो शुद्ध उपयोग।
जैसे कि सूर्योदय होने पर हमारी छाया सुदूर पश्चिम में दूर तक चली जाती है। वैसे ही सूर्यास्त के समय वही छाया पूर्व की ओर विस्तृत हो जाती है। किन्तु मध्याह्न के समय जबकि पशु-पक्षी जानवर शांत हो जाते तब वह छाया हमारे शरीर के नीचे आकर समाप्त हो जाती है। वैसे ही हमारी बाह्यवृत्ति जब भीतर हो जाती तो मन में उठने वाली विसंगतियों की तरंगें स्वयमेव समाप्त हो जाती हैं। उसके कारण शरीर भले ही समाप्त हो जाता है, पर आत्मा समाप्त नहीं होती है। बल्कि वह अजरअमर बन प्रभु आराध्य का रूप धारण कर मोक्ष महल में विराजमान हो जाती है।
आचार्य श्री ने घड़ी के दृष्टांत से अपनी बात को समझाते हुए बताया कि घड़ी में ६ बजने पर या अन्य समयों पर घंटा, मिनिट या सेकेण्ड के कांटे पृथक्-पृथक् दिशा में रहते हैं, किन्तु १२ बजने पर तीनों कांटे एक के ऊपर एक हो जाते हैं। तब तीनों का अंतर समाप्त हो जाता है वैसे ही हमारी बाह्य वृत्ति अंतरंग में आवृत्ति होने से भटकन पुनरावृत्ति भी समाप्त हो जाती है। अत: हमें क्रोध नहीं करना है। जिस समय क्रोध या मान प्रकट होते हैं, उसी समय हमें जागृत रहने की आवश्यकता है। इसी प्रकार हम कर्म की मूल जड़ों को ही समाप्त कर सकते हैं।
सुचिर काल से मैं रहा, मोह नींद में सुप्त।
मुझे जगाकर कर कृपा, प्रभो करो परितृप्त।
धार्मिक उत्सव हो या अन्य कोई भी उत्सव हो उसमें सर्वप्रथम उत्साह मन में होता फिर वचनों में आते हुए वहीं अंग-अंग में होता है इन तीनों के साथ चेतना जुड़ी रहती है। जब चेतना जागृत होती तो वचनों से जो आभास कर लेते हैं, उत्साह क्या है? हृदय का अनुकरण मुख करता है। आचार्य श्री ने कहा कि- जैसे भीतर भाव रहेगा वैसा ही व्यक्त होगा, जड़ में भी चेतना आ जाती है। मन-वचन जहाँ जुड़ जाता वही धार्मिक उत्साह हो जाता है -
चिन्ता छूती कब तुम्हें, चिंतन से भी दूर।
अधिगम में गहरे गये, अव्यय सुख के पूर॥
युगों-युगों से युग बना विघन अघों का गेह।
युग दूष्टा युग में रहें, पर ना अघ से नेह।
"अहिंसा परमो धर्म की जय !"
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