आज का मध्यांह हम लोगों के लिए बहुत ही सहायक मालूम पड़ता है। हरेक कार्य की उत्पत्ति में अनेक कारणों की अपेक्षिता है। यदि यह मध्याह्न न होता धूप न होती, तो आप लोगों के लिए थोड़ी कठिनाई हो जाती। ठण्डी हवा, सर्दी में प्रवचन सुनने में आप लोगों को कष्ट होता। भगवान महावीर कौन थे, उनका जीवन कैसा था, समाज में उनका किस रूप में योगदान रहा ? इन सब के बारे में विचार करना है। समय का मूल्यांकन करना है, येन-केन प्रकारेण इसे नष्ट नहीं करना है।
स्त्रीणां शतानि शतशो जन्यन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ॥
सर्वा दिशो दधति भानु सहस्र-रश्मिं,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु-जालम् ॥ २२ ॥
आचार्य मानतुंगाचार्य ने भत्तामर स्तोत्र में मुक्त कंठ से नारी की प्ररूपणा की है कि जहाँ से वे महान् विभूतियां प्राप्त होती हैं, उसके लिए नारी की प्रशंसा किए बिना समाधान नहीं। दो कुलों को सुशोभित करने वाली नारी धन्यतमा कहलाती है। वह अगर न होती तो भगवान् महावीर, राम पाण्डव आदि जैसे महान् पुरुष कैसे पैदा होते। जो नारी इसी भाव को लेकर जन्म देती है। वह धन्य कहलाती है। यो तो सभी दिशाएँ ताराओं को जन्म देती है, पर प्राची दिशा ही भानु को जन्म देती है। उसी प्रकार जो महान् विभूति को जन्म देती है, उज्ज्वल भाव से जीती है और भाव करती है कि मेरी कोख से महान् विभूति का जन्म हो, वह नारी धन्य है। त्रिशला नारी ने भी महावीर को जन्म देकर हमारे लिए रास्ता बना दिया है।
पुरुष एक क्षेत्र में काम करता है, तो नारी अनेक क्षेत्रों में काम करती है, जैसे
सेवा में सेविका बने, प्रीति भोज में माँ।
देशोन्नति में मंत्री बने, हाव भाव में रमा ॥
एक रूप को धारण करने पर भी विचारों व्यवहारों को पलटती रहती है। सेवा में दासी का रूप न होता तो नन्हे- मुन्हे बच्चे कच्चे रह जाते। वह स्वयं विश्राम न लेकर ऐसा काम करती है, ताकि दूसरे को विश्राम मिल जाये। बच्चों के लिए सेवा कर सब कुछ बलिदान कर देती है। वही नारी जब भोजन कराती है, तब माँ के रूप में परिवर्तित हो जाती है। उस समय लक्ष्य यही कि सामने वाला भूखा न रहे, वह प्यासा न रहे, स्वयं के लिए चीज कम रह जाये, तो भी सामने वाले को और दे देगी, कितनी उदारता है। यह बातें छोटी-छोटी मालूम देती हैं, पर आप तो इतनी उदारता में कष्ट का अनुभव करेंगे, पर माँ नहीं करेगी। माँ बच्चे को दूध पिलाती है, तब सबको हटा देती है, बच्चे पर कपड़ा ढक देती है, रहस्य यह कि कोई देख न ले। वह चाहती है कि बच्चा जल्दी जल्दी बड़ा बने।
वही नारी देशोन्नति के समय मन्त्री का काम करती है। नारियों ने राष्ट्र की उन्नति में सहयोग दिया है। जब महाराणा प्रताप हताश हो जाते हैं, बुद्धि कुंठित होने लगती है, सोचते हैं कि शत्रु को आत्म समर्पण कर दूँ। तब रानी कहती है कि आप क्षत्रिय के कुल में कलंक लगा रहे हो, मैं आपकी अद्धांगिनी हूँ आप पर मेरा भी अधिकार है। ऐसा कभी न होगा, हम भूखे मरेंगे प्यासे मरेंगे पर क्षत्रियता पर कलंक नहीं लगाएँगे और अबला होकर भी सबला बनकर आजादी में सहयोग दिया। नारी की विचार धारा कहाँ-कहाँ घूम आती है। वह चतुरता से काम करती है। वह नवनीत के समान नरम भी है तो वज़ के समान कठोर भी है। दूसरों के दुख को देखकर नारी के हृदय में तरलता आ जाती है और शील पर आँच आने पर चाहे सुमेरु भी चलायमान हो जाये पर वह डिगती नहीं। अगर वह पतिव्रता है तब तो स्त्री है, नहीं तो इस्त्री है जो जला देती है। पुरुष तो बना बनाया पदार्थ, पर बनाने वाली, उसका उद्गम स्थान नारी है। चौथा हाव भाव में रमा है, पति को खुश रखती है, जिससे पति प्रसन्न चित्त होकर दैनिक कार्यों में लग जाये। आज ऐसी नारियाँ नहीं के बराबर हैं। आज तो किसी ने कहा है -
पत्नी मांगती स्नो पाउडर, नई-नई नाइलोन साड़ी,
जिस बात को सुनकर के, पति की बढ़ती है दाढ़ी।
जल्दी-जल्दी साड़ी लाओ, पाउडर लाओ, ये लाओ, वो लाओ। यह नहीं सोचती कि वेतन कितना मिलता है एक नाइलोन की साड़ी के कितने रुपये लगते हैं। महावीर ने कहा था कि यदि महाव्रत का पालन न कर सको तो कम से कम अणुव्रतों का पालन तो करो। ज्यादा मांग से पति का आर्थिक विकास रुक जाएगा, पति चिन्ता में घुल जायेगा। नारी पति का अनुसरण करे, पति से आगे न बढ़ें। ज्यादा माँगने पर पति वेतन में काम न चलने पर चोरी, रिश्वतखोरी करेगा। पति के पास जब वेतन में से बच जायेगा तो वह बिना मांगे चीज ला देगा।
पति पत्नी का जोड़ा होता है। दोनों एक दिशा में चलेंगे तो वीर चरणों में चले जायेंगे। परिग्रह प्रमाण रख कर सुख शांति का अनुभव हो सकता है। पत्नी का तथा पति का कर्तव्य है कि परिवार को सम्भाले, बोझ कम करे। पत्नी अगर अपनी इच्छा को पूर्ण करने में आगे दौड़ेगी तो परिवार आगे नहीं बढ़ सकता। नारियों ने बच्चों के संस्कारों पर प्रभाव डालकर सच्चे बच्चे बना दिये।विवेकानन्दजी गुरु पत्नी (श्री राम कृष्ण परमहंस) के पास गये और बोले माँ मैं विदेश जा रहा हूँ, मुझे आशीष दो। माँ खाना बना रही थी, उसने कहा ठहरो, पहले सामने पड़ा चाकू लाओ। विवेकानन्द जी ने चाकू का मुख अपने हाथ में लेकर मूठ माँ की ओर बढ़ा दी। माँ खुश हो गई और आशीर्वाद दिया कहा कि तेरे अन्दर दुनियाँ के प्रति करुणा, अनुकम्पा है, दूसरों के दुख मिटाने की लालसा है। यह भाव होने पर ही दुनियाँ पर तेरे बोध का प्रभाव पड़ सकता है।
एक सुशिक्षिता महिला सौ मास्टरों का काम करती है। चाकू माँ को हाथ में देते समय विवेकानन्दजी ने सोचा चाकू माँ के हाथ में न लग जाये भले ही मुझे कुछ भी लग जाये। यही अहिंसा, करुणा का प्रतीक है। लेकिन आज कल की नारियों का हाल विचित्र है। उन्हें सिवाय अपनी चिन्ता के, न धर्म की, देश की, समाज की उन्नति की चिंता है, इसमें भले ही दूसरों का नाश हो जाये। नारी भी गुरु बन सकती है अपने विचारों से। प्राची दिशा ही सभी को प्रकाश देने वाले सूर्य को जन्म देती है। इसी प्रकार भगवान महावीर की माता धन्य हैं जिसके द्वारा ऐसा बालक मिला, जिसने दुनियाँ को संदेश दिया, मार्ग प्रशस्त किया। जिसके संदेशों पर चलने से जीवन को विशाल बना सकते हैं।
हृदय को ऐसा बनाओ जिससे अपना कल्याण हो तथा दूसरों के लिए उदाहरण बन जाये। आवश्यक को रखे पर अनावश्यक को नहीं यही महावीर का संदेश था। वस्तु के अभाव में मंहगाई नहीं होती पर वस्तु संग्रह से मंहगाई होती है। एक बुढ़िया ने कहा कि विवाह के बाद बढ़ियाबढ़िया दर्जनों कपड़े न लाना पहनने के लिए, क्योंकि वह दिन भर कपड़े बदलने में ही पूरा समय खर्च कर देगी और सेवा नहीं कर पायेगी। आज का जीवन कैसा है? पहले दो रुपये में लूगड़ा आता था जिसके फटने पर गुदड़ी भी बना ली जाती थी। पर आज उतने रुपये में रिबिन भी नहीं आता, जिसका बाद में भी उपयोग नहीं होता। ऐसे में अर्थ (धन) भी और समय भी चला जाता है। और मौलिक कार्य नहीं हो पाता। अत: आवश्यकताओं को सीमित करो, अपरिग्रह अणुव्रत को धारण करो तभी देश का विकास होगा और आत्मा में सुख शांति मिलेगी। अन्त में एक संदेश और सुनिये -
आप सभी जन यत्न से,
छेद नारी पायय ॥
पुरुष हो पुरुषार्थ करो,
वेद भेद मिट जाये ॥