वह ज्ञान जयवंत रहे जिस ज्ञान में तीन लोक और तीन लोक में विद्यमान विगत, अनागतवर्तमान पर्यायों सहित समस्त पदार्थ प्रतिबिंबित हो रहे हैं। जिस प्रकार दर्पण के सामने जो भी पदार्थ आ जाता है, वह उसमें प्रतिबिंबित होता है, उसी प्रकार केवलज्ञान में तीन लोक का प्रतिबिंब अनायास आ जाता है। संसारी जीव के पास भी ज्ञान है किन्तु उसमें सकल चराचर पदार्थ प्रतिबिंबित नहीं होते। ज्ञान होते हुए भी इतना भारी अंतर होने का एक ही कारण है कि संसारी जीव का ज्ञान आवरित है। कषाय की कालिमा से आविष्ट है। जैसे दर्पण है लेकिन उस पर कालिमा हो तो प्रतिबिंबित होने की सामथ्र्य होते हुए भी पदार्थ प्रतिबिंबित नहीं हो सकते। इसी प्रकार संसारी प्राणी का ज्ञान अपना सही कार्य नहीं कर पाता।
कई बार ऐसा होता है कि आप किसी व्यक्ति से कोई गूढ़ बात समझने जाते हैं और वह क्रोधित हो जाता है तो आप दोबारा नहीं पूछते। यदि कोई दूसरा उस समय पूछने जा रहा हो तो उसे भी आप रोक देते हैं और कहने मैं आ जाता है कि वह व्यक्ति आपे में नहीं है। कषाय से आवेष्टित जो ज्ञान-विज्ञान है, वह हमें सही-सही कुछ नहीं बता सकेगा। कोई व्यक्ति बहुत दातार है, उदार है किन्तु जिस समय वह किसी उलझन में फँसा हुआ हो उस समय उसके पास कोई भी दीन हीन जायेगा तो खाली हाथ लौटना पड़ेगा। कुछ पाना उस समय संभव नहीं है। ऐसे समय में यदि याचक उस दातार के संदर्भ में कहे कि कैसा दातार है, काहे का दातार है। तब अन्य लोग उसे समझाते हैं कि दाता तो वह है, पर आप उचित समय नहीं पहुँचे। आप उस समय पहुँचे जब वह उलझन में था। वह अपने में नहीं था। रणांगण में कोई दानवीर राजा दान नहीं कर सकता।
सही समय पर और सही क्षेत्र पर जाओ तभी दान मिलता है अन्यथा नहीं। अर्थ यह हुआ कि जब कोई अपने स्वभाव से च्युत रहता है उस समय उसका ज्ञान अपने लिए भी हानिकारक हो जाता है। उस समय जीव का ‘उपयोग' लक्षण होते हुए भी सही-सही कार्य नहीं करता। दुख का मूल कारण यही है।
जीव उपयोगवान होकर भी, अमूर्त स्वभाव वाला होकर भी वर्तमान में उस स्थिति में नहीं है। कर्म जब बंधता है उस समय आत्मा किस रूप में रहती है? कई लोगों का ऐसा सोचना है कि कर्म, कर्म से बंधता है, आत्मा तो अमूर्त है। इसलिए आत्मा से तो कर्म बंधता नहीं है। अमूर्त का मूर्त से बंधन भी कैसे संभव है? इससे ज्ञात होता है कि अभी लोगों को आत्मा अमूर्त है या मूर्त, उस बारे में सही-सही ज्ञान नहीं है। कई लोग तो ऐसी धारणा बना चुके हैं कि हम तो अमूर्त हैं और कर्म, कर्म के साथ बंधन को प्राप्त हो रहा है। उदाहरण भी दिया जाता है जैसे गाय के गले में रस्सी। गाय, अपने आप में पृथक् है और रस्सी, रस्सी में बँधी है। किन्तु यह उदाहरण सही-सही कर्मबन्ध को प्रस्तुत नहीं करता क्योंकि कर्म और आत्मा के बीच ऐसा सम्बन्ध नहीं है।
आचार्यों ने इसके समाधान में यह कहा है कि आत्मा वर्तमान में अमूर्त नहीं है। जीव जब तक संसार दशा में रहेगा, तब तक वह मूर्त रहेगा। मूर्तता की अनेक श्रेणियाँ हैं। आत्मा बहुत सूक्ष्म है, कर्म भी सूक्ष्म हैं क्योंकि देखने में नहीं आते। पर दोनों के बीच ऐसी रासायनिक प्रक्रिया हुई है कि कर्म मूर्त होकर भी आत्मा के साथ बंधे हैं। आत्मा के साथ जो कर्म का बंधन है वह क्षेत्रावगाह है। बंधे हुए जो कर्म हैं उनकी सत्ता अंदर है, उनके साथ कर्म का बंध नहीं होता और उदय में आये हुए कर्म के साथ भी बंध नहीं हुआ करता। बंध की प्रक्रिया आत्मा के उपयोग के साथ आत्मा के प्रदेशों के साथ जुड़ी हुई है क्योंकि उदय में आया हुआ कर्म फल देकर चला जाता है और सत्ता में जो कर्म हैं उनके साथ स्थिति, अनुभाग आदि सभी पृथक् रूप से पूर्व में बंधे हैं, उनके साथ बंध नहीं होता। इतना अवश्य है कि सभी नये-पुराने कर्म अपना आत्मा से अलग अस्तित्व रखते हुए भी एक क्षेत्र में रह सकते हैं, रहते भी हैं।
इस तरह आत्मा की मूर्तता अलग प्रकार की है। मूर्त होने के कारण ही कर्मों का बंध निरंतर प्रत्येक समय हो रहा है। आत्मा, पुद्गल के समान रूप, रस, गंध, स्पर्श गुण वाला नहीं है, फिर भी मूर्त है। अनादिकाल से वैभाविक परिणमन की अपेक्षा मूर्त है। इसके लिए एक उदाहरण है। शुद्ध पारा होता है, उसे आप हाथ से या चिमटी आदि किसी चीज से पकड़ नहीं सकते। उस पारे की यदि भस्म बना दी जाये तो वह सहज ही पकड़ में आने लगता है। अब वह पारा, पारा होते हुए भी एक तरह से पारा नहीं रहा, वह भस्म हो गया। पारा अपना स्वभाव छोड़कर विकृत या विभाव रूप में परिणत हो गया। यह भस्म यदि खटाई का संयोग पा जाये तो पुन: पारे में परिणत हो जाती है। पारे की भस्म दवा के रूप में रोग के इलाज में काम आती है। लेकिन शुद्ध पारे का एक कण भी मृत्यु का कारण बन सकता है।
यहाँ शुद्ध पारे को जो कि पकड़ में नहीं आता, हम कथंचित् अमूर्त मान सकते हैं और पारे की भस्म जो कि पकड़ में आ जाती है उसे मूर्त मान सकते हैं। आत्मा की यही स्थिति है। आत्मा शुद्ध पारे के समान शुद्ध दशा को जब प्राप्त कर लेती है तब पकड़ में नहीं आती, उस समय वह अपने अमूर्त स्वभाव में स्थित है। लेकिन जब आत्मा पारे की भस्म के समान अशुद्ध दशा में रहती है, विकृत या वैभाविक दशा में रहती है तब वह मूर्त ही मानी जाती है। पकड़ में आ जाती है। इसलिए जो आत्मा को सर्वथा अमूर्त मानकर ऐसी धारणा बना लेते हैं कि कर्म, कर्म से बंधता है, उनकी यह धारणा गलत साबित होती है, आगम के विरुद्ध भी है।
आगम में करणानुयोग में लिखा है कि आत्मा से कर्म बंधता है। ‘आत्म-कर्मणो: अन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बंध:।' बंध की प्रक्रिया आत्मा और कर्म के बीच ही हुई है। दोनों के प्रदेश एकमेक हुए हैं। यह ठीक है कि आत्मा कर्म के साथ बंधकर भी अपने गुणधर्म को नहीं छोड़ती। आत्मा के साथ कर्मबन्ध होना वैभाविक आत्मदशा है, जिससे वह कर्म के माध्यम से पकड़ में आती रहती है। यदि कर्म के साथ कर्म का बंध होता, तो कर्म का फल आत्मा को नहीं मिलता। ध्यान रहे कर्म भोक्ता नहीं है, भोक्ता आत्मा है क्योंकि वह चेतन है। भोगने की क्रिया संवेदन पूर्वक ही हुआ करती है।
कर्म फल का जो संवेदन आत्मा करती है वह अमूर्त नहीं अपितु मूर्त होता है। संवेदन से तात्पर्य फल की अनुभूति से है। संवेदन का अर्थ मात्र जानना-देखना नहीं है। मात्र जानने-देखने रूप चेतना तो सिद्ध परमेष्ठी के होती है। यहाँ उसका सवाल नहीं है किन्तु फल की अनुभूति रूप संवेदना मूर्त अवस्था में ही होना संभव है। यही आत्मा का विपरीत परिणमन है। आत्मा का स्वभाव-परिणमन शुद्ध पारे के समान है और विभाव-परिणमन पारे की भस्म के समान है जो कि पकड़ में आ जाती है।
वर्तमान में आत्मा अमूर्त नहीं है मूर्त है किन्तु अमूर्त बन सकता है। अमूर्त बनने की प्रक्रिया बहुत आसान है। जैसे पारे की भस्म की खटाई का योग मिल जाने से वह पुन: पारा बन जाती है उसी प्रकार आप लोगों को भी वीतराग रूप खटाई का योग मिल जाये तो आप भी मूर्त से अमूर्त बन सकते हैं। जो अपने अमूर्त स्वभाव को प्राप्त करना चाहता है उसे वीतरागता का संयोग करना होगा।
कर्म का आत्मा के साथ सम्बन्ध बड़ा अद्भुत है। जिस समय यह संसारी प्राणी-एक गति से दूसरी गति में जाता है उस समय विग्रह गति में कार्मण-काययोग रहता है। उस समय आत्मा का कुछ जोर नहीं चलता, कर्म ही आत्मा को इस गति से उस गति में ले जाता है। यदि कर्म का मात्र कर्म से ही संयोग होता तो आत्मा को न ले जाकर कर्म को ही कर्म के साथ जाना चाहिए था। नरक कौन जाना चाहता है भैया। जाना तो कोई नहीं चाहता किन्तु नरकायु का बंध होने के उपरान्त जाना पड़ता है। कर्म के पास यह शक्ति है। यदि कर्म, कर्म के साथ बंधता और आत्मा से बिल्कुल पृथक् रहता तो आत्मा को चारों गतियाँ में नहीं ले जा सकता।
जब रस्सी को खींचते हैं तो गाय साथ में चली आती है। यदि रस्सी मात्र रस्सी से बँधी होती तो गाय पृथक् रही आती और खींचने पर केवल रस्सी खीच पाती। लेकिन गाय नहीं भी जाना चाहे तो भी रस्सी से बँधी होने के कारण खिची चली जाती है। रस्सी से रस्सी की गांठ लगी है किन्तु गाय खिची चली जाती है। यह बंध की प्रक्रिया अनोखी प्रक्रिया है। संसारी प्राणी बंध को नहीं चाहता लेकिन बंधन के साधन अपनाता चला जाता है, यही उसका सबसे बड़ा अपराध है। वीतरागता उसे इस अपराध से मुक्त कर सकती है। हम यदि रागद्वेष छोड़कर वीतराग अवस्था को प्राप्त कर लें तो हम अमूर्त बन जायेंगे, अपने आपे में आ जायेंगे।
अभी हमारा ज्ञान पूजनीय नहीं बल्कि वह मूर्त है। आचार्यों ने उस कैवल्य ज्योति को जयवंत कहा जिसमें तीन लोक के सारे पदार्थ प्रतिबिंबित होते हैं। ऐसा वह केवल ज्ञान किसी के आधीन नहीं है। अनंत उज्ज्वलता उसमें विद्यमान है। हमें उस ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। बंध की प्रक्रिया को समझकर उससे मुक्त होने का उपाय करना चाहिए। बंध की प्रक्रिया रागद्वेष के माध्यम से चल रही है। वीतराग के माध्यम से ही इसका विमोचन होगा। लेकिन यह भी ध्यान रखना कि दूसरे का वीतराग भाव हमारे काम नहीं आयेगा। हमें उसे निमित्त बनाकर स्वयं वीतरागी बनना होगा। हम वीतराग भगवान् के चरणों में पड़ जायें और कहें कि हे भगवान्! थोड़ी कृपा कर दो, आपके पास रसायन है हमें थोड़ा दे दो, तो ऐसा संभव नहीं है।
पारसमणि के स्पर्श से लोहा, सोने में बदल जाता है। पारसमणि लोहे को सोना तो बना सकती है किन्तु पारसमणि नहीं बना सकती। लोहे के पास सोना बनने की योग्यता है और उसे पारसमणि का योग मिल जाये तो वह सोना बन जाता है। यदि योग्यता न हो तो स्पर्श का असर भी नहीं होगा। एक व्यक्ति अपने गुरु से प्राप्त पारसमणि को लोहे से स्पर्श कराता है किन्तु लोहा स्वर्ण नहीं बनता। वह वापिस आकर गुरु को उलाहना देता है कि आपने झूठ कहा था। यह पारसमणि नहीं है। लोहा, स्वर्ण नहीं बना। गुरु ने कहा, झूठ नहीं है बेटा, बता कौन सा लोहा स्पर्श कराया तूने। शिष्य वह लोहा ले आया। गुरु ने वह लोहा देखा और कहा- बात ऐसी है कि यह पारसमणि तो सही है किन्तु लोहा सही नहीं है।
शुद्ध लोहा ही सोना बन सकता है। अशुद्ध, जंग खाया हुआ लोहा, या मिट्टी आदि की पर्त चढ़ा हुआ लोहा स्वर्ण नहीं बन सकता। पहले लोहे को शुद्ध बनाओ। भगवान् शुद्ध हैं, हम अशुद्ध हैं। शुद्धत्व के योग्य भूमिका में ढले बिना उनका स्पर्श हमें शुद्ध नहीं बना सकेगा। यह ध्यान रहे कि हम जहाँ कहीं भी रहते हैं, वह शुद्ध तत्व अर्थात् केवली भगवान् हमारे पास प्रतिदिन तीन बार आया करते हैं। कर्म सिद्धांत के अनुसार छह सौ आठ जीव छह महीने आठ समय में मुक्ति को प्राप्त करते हैं। तो एक महीने में लगभग सौ जीव मोक्ष पा जाते हैं और एक दिन में लगभग कम से कम तीन जीव जाते होंगे और मुक्त होने से पहले केवली समुद्घघात हो तो उस समय लोक में एक भी प्रदेश ऐसा नहीं रहता जिसमें केवली भगवान् स्पर्श न करते हों।
केवलज्ञानी का स्पर्शन तीन लोक में फैल जाता है। उस तीन लोक में तो सभी आ जाते हैं। हम सभी को भगवान् एक ही दिन में तीन बार छू लेते हैं फिर भी हम अशुद्ध के अशुद्ध ही रहे आते हैं। किसी बार छह महीने का अंतराल पड़ जाता है तब उसकी पूर्ति शेष आठ समय में हो जाती है। परोक्ष रूप में यह सारी घटना होती रहती है लेकिन कर्म बंध में फँसा हुआ जो व्यक्ति है उसको इसका भान नहीं हो पाता। भगवान् को पाना चाहो तो कहीं भागो मत, अपने पास ही रहो। लौकिक दृष्टि से प्रचलित सूक्ति है कि 'भगवान् भी भक्त के वश में हैं।' उपयोग बदल जाये अर्थात दृष्टि में वीतरागता आ जाये तो भगवान् को पाना आसान है।
जैसे दीपक जल रहा है जिस समय वह वायु में प्रवाहित नहीं होता उस समय उसकी लौ बिल्कुल सीधी व सही होती है किन्तु जिस समय वह किसी कारणवश भभकने लगता है उस समय वह लौ, आपे में नहीं रहती। प्रकाश की मात्रा तब कम हो जाती है। दीपक का स्वभाव प्रकाश तो रहता है किन्तु उसमें विकार आ जाता है। उसी प्रकार संसारावस्था में जीव में ज्ञानदर्शनात्मक उपयोग तो रहता है लेकिन सही काम नहीं करता। भभकने वाला दीपक प्रकाश कम देता है। हमारे अंदर भी अपने क्षयोपशम के माध्यम से जो वीर्य प्राप्त होता है वह कषाय करने से भभकते दीपक के समान हो जाता है।
हम जब कषाय तीव्र करते हैं तो हमारी शक्ति का अपव्यय होता है। हमारी शक्ति हमारे ही द्वारा समाप्त हो जाती है, उसका सदुपयोग नहीं हो पाता और यह अनर्थ, जीवन में प्रति समय हो रहा है। जो जीवन में प्रकाश हमें मिलना चाहिए था, जो कार्य होना चाहिए था वह नहीं हो पाता और जीवन यूँ ही समाप्त हो जाता है। बंध की प्रक्रिया के उपरान्त हुई अपनी स्थिति को हमने बुद्धि पूर्वक अपना लिया है और उसी में आनंद का अनुभव मान रहे हैं। विचार तो करो, केवली भगवान् का स्पर्श होने के उपरान्त भी हमें भान नहीं हो पा रहा।
यहाँ कोई व्यक्ति शंका कर सकता है कि जब आज भी केवली का स्पर्श हमें प्राप्त है तो आज भी तीर्थकर प्रकृति का अर्जन हमें होना चाहिए। क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होनी चाहिए। तो ध्यान रखना कि किसी गुण को प्राप्त करना चाहते हो तो गुण प्राप्ति के लिए गुणवान के निकट जाना पड़ता है। वे हमारे पास आ जायें, तो आ सकते हैं। लेकिन जब तक हम नहीं जायेंगे वह गुण प्राप्त भी नहीं होगा। जब हम क्षायिक सम्यग्दर्शन या तीर्थकर प्रकृति का अर्जन करते हैं तब उसके लिए केवली या श्रुतकेवली के चरणों में चले जाना आवश्यक होता है। मेहमान को आप निमंत्रण दें तभी वह आता है, वैसे नहीं आता। आपको स्वयं जाना होगा उसके पास, उसके चरणों में बैठकर भावों को उज्वल करना पडेगा।
जब भावों को पुरुषार्थ के माध्यम से उज्ज्वल करेंगे तब यह प्रक्रिया घट सकती है अन्यथा नहीं। आपके भावों को उज्ज्वल करने के लिए वे तीन लोक के नाथ आपके पास नहीं आते, वे तो समुद्घघात की प्रक्रिया के माध्यम से अपने शेष कर्मों की स्थिति को समान बनाते हैं। इस कार्य को करने के उपरान्त वे तीसरे व चौथे शुक्ल ध्यान को अपना लेते हैं और मुक्ति पा लेते हैं। आप भी मुक्ति के भाजन हैं, इसमें कोई संदेह नहीं लेकिन उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास निरन्तर करना होगा।
यदि बंध की प्रक्रिया का सही-सही अध्ययन आप कर लें तो ज्ञात होगा कि तेरहवें गुणस्थान में केवली भगवान् भी अभी कर्मबन्ध की अपेक्षा मूर्त हैं। अमूर्तत्व का अनुभव शुद्ध पर्याय के साथ होना संभव है। भगवान् भी ही अहन्त अवस्था में स्वयं को मूर्त समझकर अमूर्त होने की प्रक्रिया अपनाते हैं और तीसरे व चौथे शुक्लध्यान के माध्यम से योग-निरोध करके सिद्धत्व को प्राप्त कर लेते हैं। ध्यान की आवश्यकता अमूर्त हो जाने के उपरान्त नहीं होती, अमूर्त होने के लिए अवश्य होती है। सिद्ध भगवान् ध्यान नहीं करते, कृतकृत्य हो चुके हैं।
अत: संसारी दशा में यह मत समझो कि हम अमूर्त हैं। अभी हम मूर्त हैं लेकिन अमूर्त होने की शक्ति हममें विद्यमान है। जो व्यक्ति स्वयं को बंधन में मानता है वही बंधन से मुक्ति की प्रक्रिया अपनाता है। जिस समय रागद्वेष हम कर लेते हैं उसी समय आत्मा कर्म के बंधन में जकड़ जाता है। एक आत्मा के प्रदेशों पर अनन्तानन्त पुद्गल वर्गणाएँ कर्म के रूप में आकर एक समय में चिपक रही हैं। इसके उपरान्त भी यदि कोई कहे कि हम मुक्त हैं, अमूर्त हैं तो यह आग्रह ठीक नहीं है। अनादिकाल से जो रागद्वेष की प्रक्रिया चल रही है जब तक वह नहीं रुकेगी तब तक कोई बंध से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिये बंध की प्रक्रिया को रोकने का उपाय करना ही श्रेयस्कर है। उपाय सीधा सा है कि कर्म के उदय में हम शान्त रहें।
मैंने किया विगत में कुछ पुण्य-पाप, जो आ रहा उदय में स्वयमेव आप।
होगा न बंध तब लौ जबलों न राग, चिन्ता नहीं उदय से बन वीतराग।
यदि हम वीतरागता को अपना लें तो कर्मबन्ध की प्रक्रिया रुकने लगेगी। संवर और निर्जरा को प्राप्त करके मुक्ति के भाजन बन सकेंगे। अपने वर्तमान मूर्तपने को जानकर अमूर्त होने का उपाय अपनाना ही आत्म-कल्याण के लिए अनिवार्य है। एक बार शुद्ध पारे के समान हमारी आत्मा शुद्ध बन जाये, अमूर्त हो जाये तो अनन्त काल के लिए हम अमूर्तत्व का अनुभव कर सकते हैं। यही हमारा प्राप्तव्य है।