यह संसार परिणामनशील है। इस सांसारिक रंग-मंच पर अनेक पात्र आते हैं और अपना खेल दिखाकर चले जाते हैं, लेकिन, यह रंग-मंच आज तक खाली नहीं हुआ। एक लड़का अपनी माँ की गोद में बैठकर माँ से अच्छी-अच्छी बातें सुनाने का अनुरोध करता है, जिससे उसका जीवन समृद्धिशाली बन सके, माँ सोचकर कहती है कि पड़ोसी व्यापारी का लड़का पढ़ने में काफी होशियार है, कक्षा में हमेशा प्रथम आता है, बड़ा होने पर व्यापार सँभालने लगा है और काफी कमा रहा है इत्यादि-इत्यादि। माँ के द्वारा उस लड़के की प्रशंसा में आधा घण्टा व्यतीत कर देने पर वह लड़का अपनी माँ से कहता है कि तू तो पर ही की प्रशंसा किये जा रही है, कुछ अपनी भी तो बात कर, अपने लड़के की कोई बात ही नहीं कर रही है, जब माँ उसकी बात नहीं मानती तो वह पर की वस्तु-स्थिति जो थी उसे सुनने से इंकार-कर गोद छोड़कर भागने लगता है, माँ उसका हाथ पकड़कर पुन: गोद में बैठा लेती और कहती है कि तू ठीक कह रहा है, तेरी मान्यता भी ठीक है पर क्या तू अपनी ही बात सुनना चाहता है? आज कौन अपनी बात सुनना चाहता है? मैं तेरी माँ बन बैठी हूँ, फिर भी मुझे ही अपनी बात अच्छी नहीं लगती है, यदि मैं तुझे अपनी सही-सही बात कहूँगी तो तुझे भी अच्छी नहीं लगेगी, इस पर लड़का कहता है-‘नहीं माँ! मुझे बिल्कुल अच्छी लगेगी।” तो फिर सुन-तू, मेरा बेटा नहीं है।
मेरा लाड़ला नहीं है, मैं तेरा हित करने वाली नहीं हूँ, इत्यादि-इत्यादि। तब वह लड़का धीरेधीरे सोचने लगता है कि माँ जो कुछ कह रही है ये सही बात कह रही है। अभी तक इस सांसारिक प्राणी की स्वार्थ-बुद्धि हुई नहीं है, कहने के लिए वह स्वार्थ कहता है, यह संसार महान् स्वार्थपरायण है, लेकिन वह न अपनी प्रशंसा सुनना चाहता है न दूसरों की ही, अपनी प्रशंसा की जाये कि आत्मा अनन्तज्ञान का सुख भण्डार है, आत्मा का पर से-किसी भी सांसारिक पदार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है-आत्मा यदि है तो ज्ञान-दर्शन वाला है, आत्मा यदि है तो वह अपने आप में है और यदि नहीं है तो पर की अपेक्षा नहीं है, तो इसे भी कोई सुनता नहीं है, तो सुनाने वाला क्या सुनाये 'पर' की प्रशंसा या 'स्व' की प्रशंसा? यह काफी विचित्र है। लोग प्राय: कहते हैं कि महाराज! आज रविवार है, हम ‘छुट्टी” लेकर आये हैं तथा संसार से छुट्टी पाना चाहते हैं, तो मैं कहता हूँकि यदि ये ‘की’ संसार से छुट्टी पाने के लिए है तो वरदान सिद्ध होगी, लेकिन ऐसा होता नहीं है। जब तक 'स्व" क्या है?'पर" क्या है? ये ज्ञान नहीं होता तब तक कुछ भी कहना, सुन पाना बड़ा कठिन है, पर की कथा यदि पर को सुनाई जाये तो भी ठीक नहीं, स्व की कथा यदि स्व को सुनाई जाये तो स्व ही उसे पहचान नहीं पाता, यदि पहचान कराने का प्रयास भी कराया जाये तो भी उसे पसन्द नहीं आता, क्योंकि भूतकाल से अभी तक उसे 'स्व" का परिचय नहीं हुआ, दूसरे के माध्यम से 'स्व' का वर्णन सुनने पर उसे रुचता नहीं, संसारी प्राणी की दशा काफी खराब है, इसके बाद भी गुरु लोग कहें
"कहैं सीख गुरु करुणा धार।"
एक बार की बात है, समवसरण की रचना हुई और भगवान समवसरण में सिंहासन पर विराजमान थे, दिव्यध्वनि खिर रही है, असंख्य देवी-देवता एकल होकर बड़े मनोयोग से उसे सुन रहे हैं, दो श्रावक भी उसे सुनने जाते हैं, रास्ते में उन्हें अंडौआ (एरण्ड) के पेड़ के नीचे बैठे एक मुनि-महाराज दिखाई पड़ते हैं, वे उन्हें वन्दना करके कहते हैं- हे महाराज! हम भगवान् के समवसरण जा रहे हैं, वहाँ जाकर पूछेगे कि हमारा पुरुषार्थ कब तक जागृत होगा? हम उसके माध्यम से मुक्ति पा सकेंगे या नहीं? अगर आपको भी कुछ पूछना हो, कुछ शंका समाधान करना हो, तो कहिये, हम पूछकर बता देंगे।” महाराज! कहते हैं कि यदि तुम्हें मेरे बारे में कुछ पूछना ही है तो पूछ लेना कि इस प्रकार साधना करते-करते हमें कब मुक्ति मिलेगी? (यह कथा श्वेताम्बरों में आती है, हमें इसका भाव ग्रहण करना है।) दोनों श्रावक समवसरण जाते हैं तो पहले अपने हित की बात पूछते हैं, उन्हें भगवान् की ओर से जवाब मिलता है कि तुम सात-आठ भवों से मुक्ति पा जाओगे, ये सुनकर वो काफी प्रसन्न होते हैं, इसके बाद वे मुनि महाराज की बात भगवान् को बताते हैं तो भगवान् कहते हैं-जाओ, उनसे जाकर कह दो कि वे जिस पेड़ के नीचे बैठे हैं उसमें जितने पते हैं उतने भवों के बाद उन्हें मुक्ति मिलेगी, ये सुनकर वे सोचने लग जाते हैं कि भगवान् ने तो कह दिया लेकिन भगवान ने जो कह दिया सो कह दिया।
लौटते समय रास्ते में वे देखते हैं कि मुनि महाराज एरण्ड के वृक्ष के पास से उठकर कहीं और बैठ गये हैं, वे उन्हें देखकर नमोऽस्तु कहते हैं और उदास हो जाते हैं, उन्हें उदास देखकर मुनि महाराज मुस्कराकर पूछते हैं—कि क्या भगवान ने आप लोगों के बारे में कुछ अन्यथा कह दिया! तुम्हें मुक्ति होगी कि नहीं? वे कहते हैं-महाराज! हमें तो मुक्ति होगी, तो फिर क्या मुझे नहीं होगी? हमें तो होगी सात-आठ भव में, लेकिन आपके लिए हम भवों की संख्या नहीं बता सकते, आप जिस पेड़ के नीचे-आकर बैठ गये हैं उस पेड़ में जितने पते हैं उतने जन्मों में आपको दाखिल होना पड़ेगा, आप बबूल के पेड़ के नीचे आकर बैठ गये हैं और इसमें तो असंख्य पते हैं, यह सुनकर महाराज उदास होने के बजाय प्रसन्न हो उठते हैं, वे उन्हें धन्यवाद देते हुए कहते हैं-धन्य हूँ, धन्य हूँ, मैं भव्य तो हूँ और एक दिन इस संसार से, महान् कीचड़ (कर्दम) से ऊपर उढूँगा। वे श्रावक सोचने लग जाते हैं, कि ये कैसा साधु है। अपने असंख्य भवों से डर नहीं रहा है, डर किसका है? यदि संसार से नहीं छूटे तब डर है, संसार से तो मुझे छूटना है, संसार से छूटने के लिए ये संयम है, प्रवचन है, तीर्थ-यात्रायें आदि अनेक कार्य हैं। धार्मिक कार्य में श्रीगणेश से लेकर इति तक, प्रारम्भिक दशा से अन्तिम दशा तक, जितनी भी क्रियाएँ होती हैं वे सब संसार से छूटने के लिए ही हैं, ये निर्णय या प्रतिज्ञा कर लेना आवश्यक है, ये बात अलग है कि किसी की क्रिया में विलम्ब हो सकता है, लेकिन ये ध्यान रखो जिसने भी ये दृढ़-संकल्प कर लिया है कि मुझे इन क्रियाओं के द्वारा कर्म काटना है एक भव, दो भव, ज्यादा से ज्यादा सात-आठ भव लग सकते हैं, फिर वह नियम से इस पार से उस पार तक पहुँच जायेगा, जिसके हृदय में ऐसा विश्वास हुआ है या प्रतीति हुई है या आस्था बन चुकी है, तो उसी को आचार्य सम्यग्दृष्टि बोलते हैं। ये सुनाकर वे चले जाते हैं, जब कभी भी मुमुक्षु भव्य-प्राणी अकेला बैठकर (वैसे वो अकेला ही रहता है) विचार करता है तो उसकी एकमात्र ध्येय-आस्था और विश्वास की डोर ही काम करती है, अन्य कोई साथी रहता नहीं है, वो अकेला ही जन्मता है। अकेला ही मरण करता है, अकेला ही धर्म-साधन करेगा और अकेला ही मुक्ति पायेगा, इसमें भी एकत्व ही रहेगा, अनेकत्व कहीं नहीं आयेगा। भले ही हम अनेकान्तवाद के उपासक हैं लेकिन ये एकान्त है कि एकान्त में ही अकेले की मुक्ति होगी, वहाँ अनेकान्त नहीं रहेगा, वहाँ भी अपने को अपने आप का ही अनुभव करना पड़ेगा, तनिक भी किसी दूसरे का अनुभव नहीं होगा।
सभी चीजों का कोई न कोई प्रतिपक्ष होता है, अपने से भिन्न द्रव्य जितने हैं वे सारे के सारे प्रतिपक्ष हैं, चाहे वे भगवान हों, चाहे वे देव हीं, चाहे दानव हीं, चाहे मानव हीं, चाहे पुद्गल हों, चाहे चेतन हों, चाहे अचेतन हों, चाहे मुक्त हों या संसारी हों । सब हमारे लिए प्रतिपक्ष हैं और उनके लिए हम प्रतिपक्षी हैं, इस प्रकार का दृढ़-श्रद्धान जब तक किसी को नहीं होता है तब तक मुक्ति के मार्ग में उसे रस नहीं आ सकता है, मुक्ति के मार्ग पर चाहे कितने ही व्यक्ति हों वे एक दूसरे के प्रतिपक्षी हैं, जब तक एकत्व का चिन्तन नहीं होगा तब तक इस संसारी प्राणी की दीनता तीन काल में छूट नहीं सकती है, इस बात को कुन्दकुन्द आचार्य डके की चोट पर कहते हैं, संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसका आश्रय लेने का भाव इस संसारी प्राणी ने नहीं किया हो। अचेतन का लेता है, चेतन का लेता है, माँ बेटे का सहारा लेती है, बेटा माँ का, पिता पुत्र का सहारा लेता है, पुत्र पिता का, सारी की सारी वस्तुएँ सहारे से ही चल रही हैं, बिना सहारे कोई चलता ही नहीं है, आज का यह मानवीय जीवन अन्योन्याश्रित हो चुका है और इसी अन्योन्याश्रय को छुड़ाने के लिए अध्यात्मवाद खड़ा हुआ है, वह अध्यात्म है जिसमें एकमात्र आत्मा ही रह जाती है, परमात्मा गायब हो जाता है। इतना साहस जिस व्यक्ति के व्यक्तित्व में आ जाता है वही अकेला इसे झेल सकता है अन्यथा तीन काल में भी सम्भव नहीं है। ये जीवन आनन्दमय तभी हो सकता है जब वहाँ एकत्व हो। जहाँ अनेकत्व है वहाँ रोने के सिवा कुछ नहीं है, मोक्षमार्ग पर आकर भी जो अनेकत्व का चिंतन करता है उसके सारे के सारे दिन रोने में चले जाते हैं। जिसने अपने जीवन में एकत्व की स्थापना नहीं की चाहे वह मोक्षमार्गी हो या संसारमार्गी उसे सुख नहीं मिल सकता 'न भूतो न भविष्यति' घर छोड़ते समय आप ये ध्यान रखना कि ऐसा घर नहीं छोड़ना कि वो एकत्व भी छूट जाये और ये भी तो ध्यान रखना कि बीच में न कोई गुरु सहयोग देंगे न कोई साथी क्योंकि वे भी अकेले हैं।
'आप अकेला अवतरे मरे अकेला होय।'
जब हम इतिहास पलटते हैं तो देखते हैं कि इस संसारी प्राणी ने अनंतों भव काटे हैं, मनुष्य बना है या नहीं बना है कोई महत्व नहीं रखता, लेकिन पर्यायें तो अनंतों मिली हैं, क्योंकि यह संसार परिणमनशील है, इस सांसारिक रंगमंच पर अनेक पात्र आते हैं और अपना भेष दिखाकर चले जाते हैं, लेकिन यह रंगमंच आज तक खाली नहीं हुआ है, इस सांसारिक रंगमंच में ४ मंच हैं-एक तिर्यञ्चगति, एक देवगति, एक मनुष्यगति और एक नरकगति।
वे दो श्रावक पुन: समवसरण जाते हैं, वे भगवान् से पूछते हैं कि भगवान् उन महाराज का क्या हुआ? भगवान् कहते हैं तुम तो इसी भव में हो और तुम्हारे जीवन में जो बूढ़े महाराज थे न, उनका अवसान हो गया और उन्हें मुक्ति मिलने वाली है, वे कहते हैं कि हे भगवान्! तो फिर ये 'रत्नकरण्डकश्रावकाचार' की कारिका तो फालतू हो गयी? आपने तो कहा था कि उस पेड़ के जितने पते हैं उतने भव उनके हैं? हमारा तो एक भी भव पूर्ण नहीं हुआ है और वे यहाँ तक कैसे आ गये? हे भव्य जीवों तुम्हें मालूम नहीं है, तुम्हें अपने ऊपर जो अभिमान था कि हम महाराज से पहले मुक्ति पावेंगे वो गलत था, मुक्ति का साधन भवों के ऊपर निर्धारित होकर भी पुरुषार्थ के ऊपर निर्धारित है। उन मुनि महाराज ने इस प्रकार निदान किया था और निदान करने के फलस्वरूप उन्हें निगोद का बन्ध हुआ था और वहाँ
"एक श्वांस में अठदस बार, जन्मो मरयो भरयो दुखभार।
निकस भूमि जल पावक भयो, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो।"
एक श्वांस में अठारह बार वहाँ जन्म-मरण कर कुछ ही दिनों में उन्होंने अपने भवों की अनंत संख्या समाप्त कर ली, इसके बाद मनुष्य जन्म ग्रहण किया और पुन: मुनि-दीक्षा ग्रहण कर ली और उसी स्थान पर जिस स्थान पर बैठे थे तपस्या कर रहे हैं और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त होने वाला है। यहाँ आने वाले हैं, दर्शन कर लेना।
इसी प्रकार हम लोगों का जीवन चल रहा है, अपने आप को पर्याय बुद्धि मत मानिये। संसार में यदि शरण लेने योग्य हैं तो देव, गुरु, शास्त्र और उसमें भी एकमात्र अनन्य शरण है तो आत्म-धर्म और कोई शरण नहीं है, पहले शुरू में व्यवहार शरण, फिर देव गुरु शास्त्र की शरण का माध्यम लेकर आत्म शरण ।
आज यदि किसी के साथ आपका बैर है और वह यदि बैर नहीं रखता तो आप तो यहीं रह जाओगे और वह बैर समाप्त कर मुक्ति का भाजन बन जायेगा, कोई किसी को रोक नहीं सकता है। शरीर के ऊपर बन्धन है वचनों के ऊपर बन्धन हैं लेकिन विचार-शक्ति के ऊपर किसी का बन्धन नहीं, वहाँ पर इमरजेंसी का कोई काम नहीं, यह स्वतंत्र सत्ता का प्रतीक है, वह सत्ता दूसरी सत्ता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखती, सिद्ध परमेष्ठी के साथ सजातीयता होकर भी वे हमारे प्रतिपक्ष, हैं उनके हम प्रतिपक्ष हैं, सर्वप्रथम भगवान् का देव गुरु शास्त्र का पक्ष लेना होगा, राग का नहीं, यह व्यवहार सम्यग्दर्शन है। फिर इसके उपरांत निश्चय पक्ष यदि है तो भगवान् को भी प्रतिपक्षी समझ करके अपना ही पक्ष लेना होगा, भगवान् स्वयं कहते हैं कि यदि आत्मा में लीन होना चाहते हो तो मेरा भी पक्ष छोड़ दो। इसी प्रकार सभी पक्षों से अतीत होना होगा तभी हम आत्मा में तैर सकते हैं, भगवान से और सभी पक्षों से अतीत होकर एकमात्र आत्मानुभूति प्राप्त करना होगा, लेकिन ध्यान रखना, दो ही शरण हैं देव-गुरु-शास्त्र या आत्म-धर्म, इसके अलावा कुछ नहीं, यही आज के इस रविवार के उपदेश का आशय है, वे मुनि महाराज अन्यत्र कहीं नहीं गये, अनंत-शक्ति के धारक होकर लोक के अग्र भाग पर उच्च सिंहासन पर विराजमान हैं, जो आपने नहीं दिया उन्होंने अपने सम्यक्र पुरुषार्थ के माध्यम से प्राप्त किया, उस पावन पद को आप भी अपने पुरुषार्थ के माध्यम से अनंतकाल तक के लिए प्राप्त कर सकते हैं, बस, काल की ओर मत देखी। वह तो सदा मौजूद है, एकमात्र अपने परिणामों को सुधारते हुए मुक्ति के पथ पर अविरल बढ़ते जाइये, आप मुनि-महाराज की कथा और उन दो सज्जनों की जो भ्रान्ति थी उसे भी याद रखेंगे और सिर्फ याद ही नहीं उसके माध्यम से अपने भव्यत्व का उद्धाटन कीजिये और इसके लिए कोई काल सापेक्षिक नहीं है। दृढ़ संकल्प कर लो कि हमें उसे प्राप्त करना है, नियम से प्राप्त हो जायेगा।