समंतभद्राचार्य उस धर्म की व्याख्या करने जा रहे हैं, जिस धर्म के द्वारा समस्त संसार सुख का अनुभव करेगा, एक क्षण को भी दुख का अनुभव नहीं करेगा। कल्प वृक्ष, कामधेनु और चिन्तामणि आदि चीजें सुख को देने वाली हैं, किन्तु धर्म एक ऐसी चीज है, जिसके सामने कल्पना, कामना, चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। इसके द्वारा विश्व मात्र, प्राणी मात्र अपनी अपूर्ण स्थिति को पूर्ण कर सकता है। आज सुख की खोज में अनेक दौड़ रहे हैं। पर सुख क्या चीज है ? यह नहीं जानते हैं। मौत से डरते हैं, पर मौत के पास जाते हैं और मौत के कारणों को जुटा रहे हैं। अग्नि को बुझाने के लिए पानी की आवश्यकता है, तेल की नहीं। जहाँ पर तृण व ईधन नहीं है, वहाँ अगर अग्नि रख भी दी जाये, तो भी वह अपने आप बुझ जायेगी। अग्नि को बुझाना है तो उसमें ईधन मत डाली। धर्म की परिभाषा को आज तक आप लोगों ने समझा ही नहीं है। साधन के द्वारा साध्य को प्राप्त करना है। धर्म का मतलब साधन (उपाय) है। सुख को प्राप्त कराने वाला धर्म है। सुख से पहले हम को दुख के कारणों व उसको भगाने (दूर करने) की खोज करनी है। गेहूँ को बीनने के लिए कंकड़-पत्थर का ज्ञान आवश्यक है। मन्दिर, मस्जिद आदि धर्म नहीं हैं, इनके माध्यम से धर्म समझ में आता है। ये धर्म को समझने में, धार्मिक भाव को जागृत कराने में माध्यम हैं। जब तक मन और वचन शुद्ध नहीं होंगे, तब तक कार्य नहीं होगा। उपयोग को केन्द्री-भूत करने के लिए स्नान, वस्त्र की शुद्धि, मौन आदि आवश्यक है परन्तु मौन, स्नान, वस्त्र की शुद्धि ये लक्ष्य नहीं हैं। ये धर्म साध्य नहीं हैं। धर्म तो इनसे ऊपर है। कुछ लोग एक बार खाना, शोध का खाना, पानी छानना, पूजा करना, माला फेरना इसे ही धर्म मानते हैं। माला फेरने में ही धर्म है, तो फिर माला बनाने वाला तो बहुत धार्मिक हो सकता है, क्योंकि वह तो बहुत बार माला फेरता है। वास्तव में हमारा मन फिरना चाहिए। महावीर भगवान् के सामने ढोक देते-देते नाक रगड़ लें तो नाक घिस सकती है, पर मोह कम नहीं होता। स्नान से शरीर शुद्ध हो सकता है, पर आत्मा राम नहीं। बाहरी साधनों के द्वारा मन पवित्र नहीं हो सकता है। बाहरी कारणों के साथ-साथ उपयोग को भी एक कारण माना है। सब सामग्री मौजूद होने के बाद भी अगर कुम्हार का उपयोग नहीं हो तो घड़ा कभी तैयार नहीं होगा। मात्र शरीर जिसमें लग जाता है, वही धर्म नहीं है। हम एक ही पहलू को तो याद करते हैं, पर दूसरे पहलू को भूल जाते हैं। आपने व्रत भी किया है, स्नान भी किया है, आसन पर भी बैठे हो, पर अगर सामायिक करते समय ऊँघने लग जाओ तो वह सामायिक नहीं होगी। जो व्यक्ति अपूर्ण ज्ञान को दुख का कारण मानता है, वही उसे पूर्ण बनाने में लग जाएगा।
खाने (भोजन) से तृप्ति नहीं है, वह तो तृप्ति का माध्यम है। करने के बारे में पूरी तैयारी है पर किया नहीं तो क्या फायदा! आपने विश्रांति के लिए २४ घंटे में एक घंटा भी नहीं निकाला। थक कर बाद में आराम करना, विश्रांति नहीं है। थकने पर तो मन भी थक जाता है। बिना थके, होश में रहकर उपयोग को जागृत रख कर आपने विश्रांति नहीं की। सामायिक नींद में नहीं है। थक कर आराम करने से शरीर को तो विश्रांति मिल जाती है, पर आत्मा के लिए उपयोग के लिए विश्रांति नहीं मिलती है। आज तक आपने सुख की खोज बन्धन में की है। जब वास्तविक उपयोग बढ़ जाता है, तभी वास्तविक अनुभूति होती है।
हम तीर्थ यात्राएँ करते हैं, पर कषायों को कम नहीं करते। कषायें कम हो जायें उसे हम यात्रा कहते हैं। जो अन्दर मेंज जाये, वही व्यक्ति सच्ची यात्रा करता है। उस व्रत, नियम को अंगीकार करो, जिससे मन में संक्लेश न हो। धर्म के माध्यमों के प्रति लक्ष्य नहीं, धर्म के प्रति लक्ष्य होना चाहिए। चुनाव में विरोधी को भी ध्यान में रखकर चुनाव लड़ते हैं। हमें भी Against (विपरीतता) को ध्यान में रखना है, पर अपने को भी नहीं भूलना है। यही धर्म का वास्तविक लक्ष्य है। दुख का विचार करो, पर सुख के मार्ग को मत छोड़ो। कंकड़ के साथ गेहूँ को भी मत फेंको, वरना रोटी नहीं मिलेगी।