आज धर्म को हम मार्दव के रूप में पायेंगे। जिसके द्वारा यह प्राणी दुख को निवृत्त कर सुख प्राप्त कर ले, वही धर्म है। मार्दव शारीरिक चेष्टा का नाम नहीं है मार्दव का मतलब कोमलता, ऋजुता का भाव है। मान कषाय का अभाव होने पर मार्दव गुण पैदा होता है। चार गतियों में चार कषायों की बहुलता है। क्रोध की बहुलता नरक में, लोभ की बहुलता देव गति में, वहाँ भोगों की सीमा नहीं है, संतोष भाव नहीं है। पशु पक्षी (तिर्यच) जिनके योगों की वक्रता होती है, चाल टेढ़ी होती है, मायाचारी चरम सीमा पर तिर्यचगति में है और मान कषाय की बहुलता मनुष्य गति में है। मान ऐसा जहर है, ऐसी विकृति है, जिसके पीछे घर-बार, खाना, पीना यहाँ तक कि देश धर्म सब कुछ छोड़ देता है। परिग्रह संज्ञा के पीछे तो परिग्रह का संग्रह हो गया और मान-कषाय के पीछे त्याग (दान) होगा। मान का प्रादुर्भाव कुल मद, जाति मद, विद्या मद, तप मद इत्यादि आठ मदों द्वारा होता है। आय के बढ़ने के साथ-साथ मान कषाय भी बढ़ती है। जब हम धार्मिक क्षेत्र में भी प्रवेश करते हैं, तो भी मान को लेकर चलते हैं। आज हमें मार्दव धर्म के बारे में सोचना है। मार्दव निजी (स्व की) चीज है। मान पर है, यह दूसरे को (पड़ोसी को) देखकर खड़ा होता है। जैसे कहा है कि Other is Hell, हमारे आचार्यों ने भी कहा है कि दूसरे को पकड़ना दुख है। मान निजी वस्तु को लेकर नहीं होता है। मार्दव धर्म ‘स्व” की ओर इंगित करता है, जिसमें बहुत कोमलता है, फूल से भी ज्यादा कोमलता। मार्दव को चिमटा आदि से, आँख-नाक-कान आदि से नहीं पकड़ सकते हैं। यह स्व की चीज है। इसे पर से नहीं पकड़ सकते। दूसरे को पकड़ने की जो चेष्टा है, वह दुख है, नरक है। अपनी चीज को पकड़ने की आवश्यकता ही नहीं है। पकड़ना पर को पड़ता है। इसी कारण अपने स्वरूप को नहीं पहचान पा रहे हैं। जहाँ वात्सल्य, प्रेम हृदय में हो उसके पास भले ही ऊँचा सर वाला आ जाये पर हृदय से ऊपर नहीं हो सकता। मान विनिमान तोलने में आते हैं। जो चीज तोलने में आती है उसका कोई मूल्य नहीं है। ऊँचे सिंहासन पर बैठने में पूज्यता प्राप्त नहीं होती बल्कि पूज्यता, पवित्रता, पावनता मात्र गुणों के विकास में, रत्नत्रय को धारण करने में है। मान सम्मान जो कर रहा है, वह अन्दर की ओर, अमूर्त की तरफ नहीं देख रहा है। जिसके पास तत्व ज्ञान नहीं है वह एक प्रकार से अन्धा ही है। वीतरागता, निरभिमानता एक अनोखी चीज है। पूजा करने वाले और घात करने वाले दोनों के प्रति जो समता रखता है वह सम्यक दर्शन की भूमिका तक पहुँचने लगता है। निरभिमानता आत्मा का स्वभाव है। मान तो आत्मा को तोलने वाला तराजू है। आत्मा की कीमत कोई आंक नहीं सकता है। जहाँ क्रोध है, वहाँ मान भी है। मानी बनना आत्मा के लिए खतरा है।
रग रग से करुणा झरे दुखी जनों को देख।
चिर रिपु लख ना नयन में, आये रुधिर की रेख ॥
- 2
- 1