Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 30 - क्षमावाणी

       (1 review)

    आज क्षमावाणी का दिन है। क्षमा की सीमा अपरम्पार है। किसी के साथ वैर-भाव, मात्सर्य भाव न रहे, किसी को भी हीन दृष्टि से, नीच दृष्टि से न देखना, अपने बराबर समझना, यह वास्तविक क्षमा है।

     

    शरीर जब शिथिल हो जाता है, तब ज्ञान में शिथिलता आ जाती है, क्षायोपशम ज्ञान में परिवर्तन हो जाता है। मन की भी ऐसी ही स्थिति हो जाती है, कषायों की बाढ़ चालू हो जाती है, परन्तु सम्यक्त्व, क्षमा, विवेक अगर साथ है, तो कषायों का वेग शांत हो जाता है। प्रतिकूल वातावरण में भी अनुकूल वातावरण का अनुभव करना, क्षमा के बिना सम्भव नहीं है।

     

    वीतराग मुद्रा को तालों में बन्द रखने से दुनिया के लोगों को शंकाएँ होती हैं, उसे ताले में बन्द नहीं रखना। मुनि लोग यही भावना करते हैं सर्वत्र कुशलता हो, किसी भी प्राणी को तकलीफ न हो। वे क्षमा, मार्दव आदि गुणों के धारक होते हैं।

     

    हमारा प्रेम पुद्गल के साथ नहीं होना चाहिए। सभी जीव सुखी रहें, दुनियाँ का कल्याण हो, यह क्षमा मूर्ति मुनि महाराज ही विचारते हैं। क्षमा के बल पर तीर्थकर प्रकृति का बंध हो सकता है। अनंत के साथ क्षमा की प्रादुभूति हो जाती है तब तीर्थकर प्रकृति का बंध हो जाता है। तीर्थकर प्रकृति का बंध करने वाला व्यक्ति चाहे मुनि हो या श्रावक। जो अनंत की सेवा (वैयावृत्य) करना चाहता है, वह अनन्तानुबन्धी को कम करता है वह यह नहीं सोचता कि सत्ता को मिटा दूँ, मैं बना रहूँ। वह सोचता है सभी का क्षेम हो, सभी को ज्ञान प्राप्त हो, सबका दुख मिट जाये।

     

    जब अनन्तानुबन्धी मिट जाती है, तब अनंत दुख मिट जाता है, आत्मा सामने खड़ा हो जाता है, अन्य पदार्थ गौण हो जाते हैं। मिथ्यात्व के अभाव में ही आत्मा की प्रादुभूति होती है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए ही क्षमा को धारण करना पड़ेगा। चारित्र तो फिर भी पकड़ में आ सकता है पर सम्यग्दर्शन पकड़ में नहीं आता। जब अंतरंग अनन्तानुबन्धी चली जाती है, तब सम्यग्दर्शन धारण हो सकता है, तभी चारित्र भी प्राप्त कर लेता है। अनन्तानुबन्धी के अभाव में जो राग होगा, वह धर्मानुराग होगा, विषयानुराग नहीं। जब अनन्तानुबन्धी खत्म हो जाती है, तभी क्षमा को यह प्राणी धारण कर सकता है। दूसरे की वैयावृत्य करते समय अपनी वेदना मालूम नहीं पड़ती वह अपने कष्ट की ओर नहीं देखकर सामने वाले को आराम देना चाहता है। यह आकांक्षा सम्यग्दर्शन वाले को होती है। वह सोचता है कि सामने वाला किसी प्रकार से बच जाये और धर्म धारण करे। आप क्षमावाणी मनाते हैं पर उनके साथ क्षमा मनाओ जिनके साथ वैर (द्वेष) है, मन की गाठों को खोलो। क्षमा वहीं है जहाँ वैरी भी आ जाए तो माध्यस्थ भाव रहे। प्रतिकूल बात हो तो दूर रहें, उनकी निंदा करते हुए क्षमावाणी नहीं मना सकते। अनंत कषाय जहां चली गयी वहाँ अनंत क्षमा आ जाती है। आपको तो मात्र शरीर, पोशाक रूपी विकार याद आता है, निर्विकार याद नहीं आता है। अपने अस्तित्व के साथ-साथ अनंत जीवों का अस्तित्व स्वीकार करना ही क्षमा है। जिस प्रकार सर्कस में पैर नहीं टिकते डावांडोल स्थिति रहती है, उसी प्रकार दुख के प्रसंग आने पर भी पांव नहीं टिकते, ऐसा दुख का प्रसंग किसी को न आवे, वह क्षमा की चरम सीमा है, यह, अनुकम्पा है।

     

    मिथ्यात्व के अभाव में दर्शन व ज्ञान समीचीन बन सकता है, पर समीचीन चारित्र तो कषाय के अभाव में ही हो सकता है, माया की ओट में सब छिप जाता है। मुँह में राम बगल में छुरी को क्षमा नहीं कहा है। दबने वाला व्यक्ति दबता नहीं है, वह तैयारी में है, लड़ाई रुक जाती है। इसका मतलब समाप्त नहीं हुई पर तैयारी हो रही है, दबना-दबाना अनन्तानुबन्धी के पीछे चलता आ रहा है। सम्यग्दर्शन को क्षमा को धारण करने वाला अस्तित्व के गुण को, उपयोग को दूसरों में भी देखता है। वह गुण की तरफ लक्ष्य रखता है, अवगुण की तरफ नहीं। वह विकार का सत्यानाश करना चाहता है, सत् का नाश नहीं चाहता। जहाँ पूर्ण क्षमा है, वहाँ गति नहीं, जहाँ गति नहीं वहाँ विश्राम है। विसंवाद छोड़ो, संवाद पर आ जावो। संवाद भी समीचीन रूप हो। मोक्ष मार्ग की चर्चा हो। दूसरों के उद्धार के साथ मेरा भी उद्धार कैसे हो यही प्रश्न दिमाग में हो। विषय कषाय को दबाओ। मोहरूपी डाट को हटाओ और वास्तविक क्षमा को धारण करो। मेरी भावना है, यही वीर प्रभु से प्रार्थना है।

     

    यही वीर से प्रार्थना, अनुनय से कर जोर।

    हरी भरी दिखती रहे, धरती चारों ओर ॥


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    शरीर जब शिथिल हो जाता है, तब ज्ञान में शिथिलता आ जाती है, क्षायोपशम ज्ञान में परिवर्तन हो जाता है। मन की भी ऐसी ही स्थिति हो जाती है, कषायों की बाढ़ चालू हो जाती है, परन्तु सम्यक्त्व, क्षमा, विवेक अगर साथ है, तो कषायों का वेग शांत हो जाता है। प्रतिकूल वातावरण में भी अनुकूल वातावरण का अनुभव करना, क्षमा के बिना सम्भव नहीं है।

    Link to review
    Share on other sites


×
×
  • Create New...