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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • तपोवन देशना 19 - क्षत्रु और मित्र कौन

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    (आज प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाशजी फिरोजाबाद वाले आये आचार्य श्री जी से पूर्व उन्होंने अपनी देवशास्त्र एवं गुरु के प्रति भावाञ्जलि समर्पित की) अभी पंडितजी ने कहा कि-हम आचार्य महाराज के पास बैटरी चार्ज करने के लिये आये हैं पंडितजी आप चार्ज तो कर लेते हैं किन्तु चार्ज भी देना चाहिए।

     

    आचार्य समंतभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार की रचना की, जिसे मंगलाचरण से प्रारंभ कर अंत भी मंगलाचरण से किया है। जिसके माध्यम से हम जैसों को जागृत किया है।

    पाप मरातिर्धमो बन्धुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन्।

    समयं यदि जानीते, श्रेयो ज्ञाता ध्रुवं भवति।

     

    हमें शत्रुओं से बचना चाहिए और मित्रों से मिलना चाहिए। हमें अपाय (दुख) पहुँचाने वाले शत्रु होते हैं और सुख पहुँचाने वाले मित्र होते हैं, किन्तु हमें यह ज्ञान नहीं कि मित्र कौन है और शत्रु कौन? शत्रु बाहर नहीं भीतर है जिसके सम्बन्ध में आचार्य समंतभद्र स्वामी एक श्लोक के माध्यम से कहते हैं हमारा हित अर्थात् मित्र धर्म है और शत्रु अधर्म है।

     

    अधर्म से बचने के बाद धर्म प्राप्त करने की कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती। जैसे रेशम का कीड़ा अपनी लार से वेष्ठित होने के कारण उसी में मर जाता है वैसा ही अधर्म होता है। जैसे प्रकाश के आते ही अंधकार भाग जाता है वैसे धर्म के आते ही अधर्म भाग जाता है।

     

    अधर्म को तब तक हटाते जाओ जब तक धर्म की प्राप्ति नहीं हो जाती है। जैसे मानली २०० फीट नीचे पानी है यदि कोई कहता है कि पानी निकालो तो ऐसा कहने से पानी नहीं आने वाला किन्तु जो मिट्टी है उसे निकाली, पानी अपने आप आ जायेगा। इसी प्रकार धर्म तो आत्मा है किन्तु मात्र अधर्म रूपी मिट्टी हटाना है। हम मिट्टी निकालना नहीं चाहते और पानी चाहते हैं यह हमारी मूर्खता है।

     

    पहले के लोग आग को राख में छुपा कर रखते थे। जब उसकी आवश्यकता होती थी तब राख को हटा देते थे और आग मिल जाती थी। वैसे ही राग रूपी राख हटेगी तो हमारे अंदर वह विद्यमान चमकती हुई तेज आत्मा रूप आग प्राप्त हो जायेगी।

    Edited by admin


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