मोह नींद में सोये हुए संसारी जीवों के लिए यह महान् पर्व पाठ दे रहा है। अगर ये दस दिन ३६५ दिन में से व्यर्थ चले जाते हैं, तो पूरा साल व्यर्थ चला जाता है। दुनियाँ की कोई भी शक्ति आध्यात्म तक नहीं पहुँचा सकती है। पूर्व संस्कार के वश कोई कवि, विद्वान् बन सकता है, पर आत्मानुभवी नहीं हो सकता है, क्योंकि पूर्व में आत्मानुभूति की ही नहीं। आत्मा का अनुभव (Practical) करने पर होता है। ये दस दिन शिक्षा के लिए नहीं हैं, दीक्षा के लिए हैं। इन दस दिनों में दीक्षा लेने का अभ्यास होता है। दीक्षा में मात्र अनुभव की बातें आती हैं। मात्र आत्मचिंतन करना होता है। इस पयुर्षण पर्व में संसार के मूल कारण आठ कर्म छूट जाते हैं, टूट जाते हैं, भस्म हो जाते हैं, कहा भी है -
पर्वराज यह आ गया, चला जायेगा काल।
परन्तु कुछ भी ना मिला, टेढ़ी हमारी चाल ॥
हमारी चाल टेढ़ी है, पर्वराज न आता है, न जाता है। हम चले जा रहे हैं। हमको सांसारिक सम्बन्धों से छुट्टी लेनी है, परिश्रम से नहीं। व्यवहार की दृष्टि से क्षमा धर्म के लिए आज का दिन नियुक्त किया है आचार्यों ने क्षमा धर्म की बड़ी महत्ता बताई है। इसमें एक पैसा भी नहीं लगता है। कहा है कि करोड़ नारियल चढ़ाने में जितना फल मिलता है, उतना फल एक स्तुति करने में मिलता है, और जितना फल करोड़ स्तुति करने से मिलता है, उतना एक बार जाप करने से मिलता है, जितना फल करोड़ जाप करने से मिलता है, उतना फल एक बार मन, वचन, काय को एकाग्रकर ध्यान करने से होता है। मात्र परिणाम की विशेषता है। शारीरिक, वाचनिक, मानसिक क्रिया जितनी-जितनी निर्मल होती जाती है। उतना-उतना फल मिलता जाता है। कोटि बार ध्यान करने का जितना फल मिलता है, उतना फल एक क्षमा करने से मिल जाता है, वैरी को देखकर आँख में ललाई फूटती है। हमें क्षमा से तो वैर भाव नहीं रखना चाहिए। मोक्ष के लिए कारण भूत साक्षात् कोई है तो वह क्षमा धर्म ही है। आप आधि-व्याधि से तो दूर हो सकते हैं, पर उपाधि से दूर होना मुश्किल है, मैं पना नहीं निकलता। आधि मानसिक चिन्ता और व्याधि शारीरिक बीमारी है, उपाधि बौद्धिक विकार है पर उपाधि को छोड़ना इनसे ऊपर है, समाधि आध्यात्मिक है। क्षमाधारी जीव अनन्तचतुष्टय का अनुभव करते हैं। पर अन्य ? घाति चतुष्टय का। वहाँ सुख अनन्त है, यहाँ दुख अनन्त है। आत्मा के अहित विषय कषाय नहीं करना ? तभी वास्तविक क्षमा है।