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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 7 - करे सो भरे

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    नमस्कार का निषेध करने पर क्या होगा, यह हमें देखना होगा। व्यक्ति का साधन व माध्यम भिन्न हो सकता है, पर केन्द्र एक होगा। 'श्री' शब्द लक्ष्मी वाचक है। दुनियाँ में लक्ष्मी अनेक प्रकार की मानी गई है। वर्तमान में स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए विश्व का प्रयास चल रहा है। कोई स्वास्थ्य का अवलोकन धन में, कोई तन में और कोई वन में कर रहा है। स्वास्थ्य दुनियाँ में नहीं है। स्वास्थ्य का मतलब है अभीष्ट की प्राप्ति, कल्याण, अविनाशी सुख। यह दुनियाँ के पदार्थों में नहीं है। जो स्वास्थ्य कभी मिट जाये, कभी पैदा हो जाये, वह स्वास्थ्य नहीं है। स्वास्थ्य जब चरम सीमा पर पहुँच जाये तब ही स्वास्थ्य है। मधु से लिपटी तलवार को चाटने में थोड़ा सा सुख का अनुभव होते ही जीभ दो भागों में विभक्त हो जाएगी। जैसे ही यह जीव भोग के सन्निकट जाता है वैसे ही जो सुख, जो ज्ञान प्राप्त है, वह भी लुट जाता है और रोग के सन्निकट पहुँच जाता है, स्वाधीनता का अभाव हो जाता है। भोगों द्वारा जो क्षणिक सुख प्राप्त होता है, वह सुख, दुख को निमन्त्रण देता है। सोना जो आपको प्रिय लगता है पर ज्यादा भारी सोना स्वास्थ्य में बाधक है। किसी ने अच्छा ही कहा है

     

    वा सोने को जारिये जा सों टूटे कान

    तृष्णा की वजह से शांति प्राप्त नहीं होती है। रोग से पृथक्र, भोग से पृथक् तथा योग से युक्त जो वस्तु है, वह वास्तविक हितकारी है।नमस्कार जिसने नहीं किया है, उसे क्या फल मिलेगा। इसके लिए रावण व बाली मुनि का उदाहरण सामने है। मन बहुत चंचल है। प्राय: करके स्खलित हो जाया करता है पेड़ पर चढ़ना आसान है पर उतरने पर नीचे गड़ा नजर आता है, उतरना बहुत मुश्किल है। अपने आपका आलम्बन छोड़ना, स्वावलंबन को छोड़ना है और पराधीनता को पकड़ना है। तेरा नमस्कार करना दुनियाँ की सुरक्षा करना नहीं, अपनी सुरक्षा करना है। दुनियाँ की सुरक्षा करते-करते तो वर्षों बीत गये।

     

    जब असाता वेदनीय कर्म का उदय होगा, तब नाम, यश-कीर्ति सब मिट जाएँगे और अगर नाम रखने की भी कोशिश की तो वह नाम बदनाम हो जायेगा। शारीरिक शक्ति, धन की शक्ति और शासन की शक्ति से भी बढ़ कर आत्मा की शक्ति अलौकिक है। नमस्कार करें तो चमत्कार हो जाये, और तिरस्कार करें तो बहिष्कार हो जाता है। तीन लोक की सम्पदा नमस्कार करने पर मिल सकती है और न करने पर रोना पड़ता है। स्वाधीनता, सरलता और समताभाव को धारण करो, क्योंकि यही आत्मा की निधि है। इसको नहीं अपनाने पर दुख का कारण होता है। जीव मिटता नहीं है, उसे दुख का अनुभव तो करना ही पड़ेगा। किए हुए कार्यों से यह जीव संसार परिभ्रमण करता है। आप लोग रात दिन कुटिलता, ममता, वक्रता के साथ कितना पाप कर रहे हैं, यह विचार करना चाहिए। मायाचार अपना स्वभाव नहीं है। परतंत्रता को छोड़कर स्वाधीनता की ओर आना चाहिए, तभी सफलता मिलेगी।


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