समंतभद्राचार्य यद्यपि मुनि थे, उन्होंने उस वक्त जो गृहस्थाश्रम में शिथिलता तथा आचार विचारों में कमियां देखी, वे कमियां दूर हों और गृहस्थों को यथोचित मार्ग मिल जाये, इसी दृष्टि को लेकर मुनि होते हुए भी स्नकरण्डक श्रावकाचार की रचना की। ८४ लाख योनियों में मनुष्य योनि दुर्लभतम है। इस जीव को त्रस पर्याय मिलती है जिसकी अवधि ज्यादा से ज्यादा २ हजार सागर वर्ष की है। यदि इनमें यह जीव अपना विकास कर निकल गया, मुक्ति पा ली तो, उसे पुन: एकेन्द्रिय आदि आयु नहीं मिलती, वरना उसे निगोद यात्रा को निकलना ही पड़ता है। दो हजार सागर वर्ष में भी विकास योग्य पर्यायें मात्र ४८ मिलती हैं।
उसमें भी वास्तविक आत्मानुभूति प्राप्त करने की पर्यायें ८, १६ व २४ हैं। ८ पुरुष, १६ स्त्री पर्याय और २४ नपुंसक, पुरुष बहुत कम होंगे। इसमें विकलांगी, अल्पायु व लब्ध पर्याय वाले होंगे, म्लेच्छखण्ड में भी हो जायें। पुरुष होने पर भी ज्ञान न मिले तो यों ही सब चला जाये, उसके बाद निगोद की कोई सीमा नहीं है। ठण्डे दिमाग से सोची-विचारो की कितनी दुर्लभतम पर्याय को प्राप्त किया, उसे भी विषय-वासना के लिए खर्च कर दो, तो यह कोई हमारी बुद्धिमत्ता नहीं। इस पर्याय में कार्यक्रम बनाना चाहिए आधा जीवन तो सोने में (नींद में) चला जाता है। बाकी बचे १२ घण्टे, उसमें आहार, विहार, निहार, गपशप में चला जाये, जमा में कुछ भी नहीं है।
वह प्राणी जीवन में विकास कर सकता है, जो उसमें डिवीजन (भाग) बना ले, और कार्य निर्धारित कर ले, तब तो बहुत जल्दी विकास हो सकता है। काल की अवधि आयु का पता नहीं Death keeps no calendar. अतः विकास के लिए समय निकालना चाहिए, ताकि जीवन सुधर जाये। जीवन चला तो सब रहे हैं, पर सुधार की ओर दृष्टि नहीं। जिसे निगोद से डर है, वह ही मौलिक जीवन में सुधार के कार्य करेगा।
जिस प्रकार ५५ साल के बाद Government रिटायर कर देती है, उसी प्रकार २ हजार सागर में जीवन विकास न करने पर निगोद जाना ही पड़ेगा, जहाँ अनंत काल तक रहना पड़ेगा यह सिद्धान्त है। जिसका इस पर विश्वास है, वह मौलिक कार्य करेगा जीवन में विकास के लिए मनन चिंतन करेगा। सुख और दुख के लिए आपका भाग्य ही उपादान कारण है। यह जरूरी नहीं कि अभी आप जैसे हैं, वैसे ही बने रहेंगे। अनागत जीवन का विश्वास नहीं वर्तमान में जो मिला है, उसे काम में लेओ। मात्र खा पीकर मस्त नहीं होवें, समय न खोवें और भगवान् भजन, अरहंत सिद्ध में समय लगावें, जिससे असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा हो जाये। इसके लिए मैं यही कहता हूँ कि उदासीनाश्रम बन जाएगा, तो काम हो जायेगा। वरना धन या तो बच्चे ले लेंगे या Govt. ले लेगी। अत: उदासीनाश्रम में धन लग गया तो उसमें रहने वाले अरहंतसिद्ध का जापकर अंत में समाधीपूर्वक मरण कर सकेंगे। अगले व इस जन्म में सुख मिलेगा। धन तो सरकार ढूँढ ही लेगी। अत: उसके द्वारा धार्मिक कार्य करो। धन न तो सरकार का है, न आपका।
अर्थ का उपार्जन परमार्थ के साधन के लिए है, अनर्थ के लिए नहीं। वही धन परिग्रह है जो धार्मिक क्षेत्र में खर्च न होकर अन्य सांसारिक कार्यों में हो। मूच्छ का नाम परिग्रह है। धन के द्वारा धर्म की प्रभावना हो सकती है, इसके द्वारा दूसरों का उपकार व अपना विकास कर सकते हैं। कुछ लोग चाहते हैं कि हम उदासीन बनकर रहें, भगवान को सुमरण करें और अंत में मरते समय सारा पैसा उदासीनाश्रम में दे जायें इसके लिए उदासीनाश्रम की आवश्यकता है। ऐसा न होने पर तो जीवन यों ही चला जायेगा, धन भी चला जायेगा। यहाँ पैसे, स्थान की कमी नहीं, उदासीन व्यक्तियों की कमी नहीं। यह अजमेर तीर्थ बन जाएगा। जहाँ समाधिपूर्वक मरण होता है, वह स्थान तीर्थ बन जाता है। मेरी दृष्टि में इससे बढ़कर कोई सत् कार्य नहीं है। जहाँ व्रती बन कर रहेंगे, आराम विलासिता को नहीं अपनाएँगे, वे भी लघु मुनि हैं। वे मुनि नहीं बनेंगे तो १२ व्रतों का पालन करेंगे, सल्लेखना जहाँ हो तो, वह स्थान तीर्थ है। जो इसमें सहयोग देगा, उसकी भी समाधि अवश्य होगी, वह भी कमियों को निकालकर इस भव व अगले भव को सुधरेगा और धीरे-धीरे अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करेगा।
आपको कुछ दिन पूर्व शास्त्रीजी ने बताया था कि साधु मुनि बनने का उपदेश देते हैं। मैं शंका दूर कर लूकि या तो आप मुनि बनना चाह रहे हैं, यदि नहीं तो उदासीन तो बनो। धर्म ध्यान के लिए, समाधिमरण के लिए वर्तमान में उपयुक्त स्थान नहीं है। उदासीनाश्रम में उदासीनता के, परीषह, उपसर्ग के चित्र लगेंगे जहाँ भावों को निर्मल बनाकर आगे बढ़ सकते हैं। घर में, नसियां आदि में ऐसा सम्भव नहीं है। जिसके जीवन के अन्त में समाधिमरण नहीं, वहाँ जीवन भर के पूजा प्रक्षाल, धार्मिक कार्य विफल हो जाते हैं। यह समाधिमरण जीवन की अंतिम परीक्षा है, जो इसमें पास हो जाता है, वह दुख नहीं उठाता है। जिसकी समाधि हो जाती है, वह उत्कृष्टता से २-३ तथा जघन्य से ७-८ भव में मुक्ति पा लेता है। फिर उसको शारीरिक मानसिक चिंता नहीं होगी, जिनेन्द्र के तीर्थ से बिछुड़ना न होगा, जिनवाणी न छूटेगी, धार्मिक भावों का अभाव न होगा, सम्यग्दर्शन का अभाव न होगा।
अन्त में, यहाँ पर उदासीनाश्रम हो जाये तो अच्छा रहेगा। णमोकार मंत्र बोलते हुए जीवन निकलना चाहिए। उदासीनाश्रम से आध्यात्मिक लाभ उठाएँगे। जहाँ विषय कषाय सम्बन्धी बातें न होगी, पूजन-प्रक्षाल, स्वाध्याय, वैयावृत्य होगा, यह आदर्श की बात है। इसे उचित समझकर करोगे तो हो सकता है कि अन्त में आपके परिणाम मुनि बनने के हो जायें इससे चारित्र धारण करने वालों पर उपकार हो जायेगा। धार्मिक वृत्ति सुधर जाएगी, धन Govt. के Tax से बच जायेगा। नाम भी हो जायेगा काम भी हो जायेगा, विश्राम भी हो जायेगा। चातुर्मास होकर भी उसकी परम्परा चले, ऐसा विशेष कार्य होना ही चाहिए। मैं आदेश नहीं दे सकता हूँ, पर उपदेश के द्वारा कह सकता हूँ इस काम में समाज मदद करें उपकार ही है। कहा भी है कि
मरहम पट्टी बाँध के वृण का कर उपचार,
ऐसा यदि न हो सके, डंडा तो मत मार।
अगर मरहम पट्टी बाँध कर घाव का उपचार न कर सको तो डंडा तो मत मारो। विरोध अगर नहीं है तो भी एक तरह से मदद ही है। अत: ऐसा कार्य करो, जिससे सब आनन्द का अनुभव कर लें।