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मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता प्रारंभ ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • तेरा सो एक 1 - जीवन का लक्ष्य

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    ‘प्रभु के हृदय की बात जब तक नहीं समझोगे, तब तक उन जैसी दृष्टि, उन जैसा आचरण, उन जैसे चैतन्य की परिणति को प्राप्त नहीं कर सकते।' एक बालक का नाम सोना रखा और बाजार से आठ आने की सफेद टोपी खरीदकर पहना दी, भगवान् के मन्दिर में गये और कहने लगे भगवन्! तुम मेरी कामना पूरी करो, मैं सोने की टोपी चढ़ाता हूँ और सोने की टोपी चढ़ा दी। आप लोग बहुत समझदार लोग हैं, भगवान् को भी प्रलोभन देते हैं और वो भी मिथ्या, भगवान् कामना पूरी करें या न करें, पर आपका विकल्प चलता रहता हैं |”


    भगवान् वीतरागी हैं, वे न किसी से कुछ चाहते और न किसी को कुछ देते। अभी तक वीतरागता का रहस्य आपकी समझ में नहीं आ रहा। जिसने वीतरागता के रहस्य को समझ लिया वही वास्तविक जैन है, आप अपनी डॉयरी में भले ही अपने को जैन अंकित कर लें, किन्तु जो श्रमण-संस्कृति के सिद्धान्तों के अनुरूप चलेगा, जीवन को निष्पक्ष और भेद-भाव रहित बनायेगा, वही जैन है। धार्मिक क्षेत्र अन्तरंग भावों के ऊपर निर्धारित है। हम महावीर के प्रति कुछ नहीं कर तक हम अहिंसक नहीं बनेंगे तब तक महावीर के भक्त महावीर के अनुयायी नहीं कहे जा सकते। भगवान् की राह और भक्त की राह एक होनी चाहिए, यह बात ठीक है कि भगवान् आगे और भत पीछे होता है, किन्तु धारा, जाति-भिन्न नहीं होनी चाहिए। दोनों में ऐक्य होना चाहिए, दिशा समान होना चाहिए।


    ‘सागर दूर सिमरिया नीरी' ये पंक्तियाँ वर्णीजी की जीवन-गाथा में लिखी हैं। दूर हो कोई बात नहीं किन्तु लक्ष्य होना चाहिए, लक्ष्य निर्धारित होते ही मुक्ति दूर नहीं, यदि लक्ष्य की ओर एक पग रख लें और दिशा परिवर्तित नहीं करें तो गन्तव्य पाना सम्भव है, किन्तु विपरीत दिशा की यात्रा मंजिल से दूरी बढ़ाती है।


    आप किधर देख रहे हैं? किस ओर बढ़ रहे हैं? आप जिस दिशा में बढ़ रहे हैं उस दिशा में महावीर गये नहीं और उस दिशा में बढ़ने के लिए शिष्यों को भी वर्जित कर गये हैं।


    जब कार को रिवर्स (पीछे) ले जाते हैं तब सामने दर्पण देखते हैं, पर दृश्य पीछे का होता है। शास्त्रों में हमने पढ़ रखा है कि दिव्य-दृष्टि बनना चाहिए, हम रात-दिन दिव्य दिव्य दिव्य के साथ द्रवीभूत हुए चले जा रहे हैं, पिघल गये हैं किन्तु गाड़ी अर्थात् हमारा आचरण पीछे-पीछे की ओर जा रहा है। हम विपरीत दिशा की यात्रा करने में लगे हैं।
     

    भगवान् के दरबार में आप आये, बड़े बाबा की शरण में आप आये और आप खाली हाथ जाते हैं, आपको मैं खाली हाथ जाते देखें यह अच्छी बात नहीं है, आप वंचित हैं, स्वयं के द्वारा ठगे गये है, आशा के द्वारा ठगे गये हैं। बड़े बाबा की कृपा अनूठी होती है, बाबा के प्रसाद का आस्वादन ले लें और उठकर चले जायें, मैं नहीं मानता जो जायेंगे मैं समझेंगा वे जाने के लिए आये थे। जड़ की सेवा में प्रभु की आराधना कहाँ? उनके हृदय की बात जब तक नहीं समझोगे तब तक उन जैसी दृष्टि, उन जैसा आचरण, उन जैसी चैतन्य की परिणति को प्राप्त नहीं कर सकते। भगवान् की वीतराग-मुद्रा देखने से कैसा आनन्द आता है? चैतन्य की धारा फूटती नजर आती है, कोई लिप्सा नहीं, कोई प्रलोभन नहीं, मात्र चैतन्य की अजस्त्र-धारा बहती रहती है। जो उस धारा से स्नपित हो जाता है, वह धन्य हो जाता है।


    बडे बाबा की बड़ी कृपा, हुई मुझ पर आदीश।

    पूर्ण हुई मम कामना, पाकर जिन आशीष॥

    आपने अपने आदर्श द्वारा बड़े बाबा का आशीष प्राप्त नहीं किया, क्योंकि आप अनास्था की डोर से बँधे हैं। विषय-कषायों में रच-पच-कर आप मात्र निगोद की यात्रा करने में लगे हैं। रागद्वेष के द्वारा आत्मा को पुष्ट बनाना अधोगति का कारण है। अभी तक आप सोने की टोपी चढ़ा रहे हैं, चढ़ाते रहेंगे, पर यथार्थ में महावीर के अनुयायी बनने के लिए 'महावीर के पक्ष का अनुसरण करना होगा, उनके सिद्धान्तों के अनुसार अपने जीवन को आगे बढ़ाना होगा, स्वयं महावीर बनना होगा। 


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    रतन लाल

      

    भगवान् वीतरागी हैं, वे न किसी से कुछ चाहते और न किसी को कुछ देते। अभी तक वीतरागता का रहस्य आपकी समझ में नहीं आ रहा। जिसने वीतरागता के रहस्य को समझ लिया वही वास्तविक जैन है

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