कल पं. जगन्मोहनलाल जी साहब ने आप लोगों के लिए एक बात प्रेरणा रूप कही थी कि अपने पास दीपक है और भगवान महावीर के पास भी दीपक जल रहा है, उसकी लौ से इस दीपक को स्पर्श किया जावे तो उद्दीप्त हो जाएगा। पर कौन से दीपक को लौ के पास ले जाना है? जिसमें बत्ती व तेल न हो ऐसा दीपक नहीं होना चाहिए। आचार्यों ने जहाँ भी किसी भी क्षेत्र के बारे में विचार व्यक्त किए, आशय को लेकर पात्र को लेकर कहे हैं ताकि प्रत्येक बहुत सरलता से अभीष्ट तक पहुँच सके। दीपक की शक्ति अपने पास है या नहीं यह भी सोच ली। बत्ती और तेल को अपने दीपक में लगाना होगा, तभी उस दीपक से स्पर्श हो सकता है। समंतभद्राचार्य ने जयघोष के साथ लिखा है कि- हे भगवान्! कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि अपने को प्रभु के चरणों में रख दी, कल्याण हो जायेगा, कोई कहता है कि ईश्वर कुछ नहीं करता है अपने को ही काम का कर्ता मानता है अलग-अलग क्षेत्र को पकड़कर लोग चल रहे हैं। भवितव्यता वह कि निमित्त और उपादान इन दो कारणों के द्वारा आविष्कृत कार्य के चिह्न को धारण करती है। जब हम एक को भी गौण/तुच्छ न मानते हुए आगे बढ़ते हैं तब काम होता है। भवितव्यता, होने योग्य कार्य को कहते हैं। भवितव्यता महान् है, शक्ति को लेकर है एक कारण को लेकर काम नहीं होगा। भगवान् क्षमा के भण्डार हैं अत: समर्पण कर दी। जब हम वीतरागता को अपनाना चाहते हैं, तब अप्रशस्त राग हेय है। हाँ, जहाँ लड़ाई करना है तब अप्रशस्त राग प्राप्तव्य है। होश लाने के लिए, रोष दिलाने के लिए अप्रशस्त राग पैदा करते हैं, वहाँ कहते हैं उठ जाओ बाहों का बल दिखाओ, तभी वहाँ अभीष्ट की प्राप्ति होती है। उसी प्रकार जहाँ वीतरागता का समर्थन करना है तब अप्रशस्त राग का विमोचन अभाव और कषायों से दूर, कषायों में मंदता होनी चाहिए।
दीपक में यदि तेल भर दिया पर बत्ती सारी जल गई है, अथवा बत्ती ठीक है पर तेल छान कर नहीं भरा है, तब भी बत्ती नहीं जलेगी। अत: अन्तरंग तथा बहिरंग निमित्त कारणों के होने पर ही कार्य पूरा होता है। प्रभु के चरणों में तो रोज लोट रहे हैं, पोट रहे हैं वीतराग बनने की पात्रता भी है पर जो कमियां हैं उसे दूर करने की कोशिश करनी है। लोहे को पारसमणि सोना बनाता है, पर लोहे पर थोड़ा भी आवरण हो तो सोना नहीं बनेगा। कमी पारस में नहीं है लोहे पर आवरण है। उसी प्रकार भगवान् महावीर में कमी नहीं है पर उनके सिद्धान्तों पर आपको वास्तविक श्रद्धा नहीं हो रही है। अगर दवाई को मुँह में लेकर थूक दिया जाये तो रोग ठीक नहीं होगा। इसमें डॉक्टर की दवाई तो ठीक है पर कमी रोगी में है। विश्वास के साथ ही कार्य होगा। वो झरना उसी स्रोत से झरेगा, जहाँ देखने से झरना प्रारम्भ होता है। चन्द्रमा से अमृत नहीं झरता है, चन्द्रमा तो अमृतमय है। पर चन्द्रमा के उदय में चन्द्रकान्त मणि से पानी निकलता है। चन्द्रकांत मणि को सूर्योदय के सामने रखने पर पानी नहीं झरेगा। भगवान् महावीर चन्द्रमा के समान हैं, अतः हमें चन्द्रकांत मणि होना है। वो श्रद्धा अन्दर से आने वाली है, बाहर से नहीं आएगी। उनके प्रभाव से हमारे में शक्ति पैदा होएगी वह शक्ति हमारे में है। वह उपादान है, आभ्यंतर है बाह्य नहीं। बहुत काल से महावीर की जय-जयकार का नारा लगा रहे हो। अब तो आत्माराम की जय बोलो। अपने उपादान को न भूलो, उसे समर्थ बनाने के योग्य जो कारण है उसे सामने रखो ताकि भूले नहीं। पारस पहाड़ भी ले आओगे तो भी आवरण सहित सुई भी सोना नहीं बनेगी। आपने आँखें बन्द कर रखी हैं, उन्हें खोली, दरवाजे को बन्द मत करो, आँखें खोलकर दर्शन करो। कुछ लोग कहते हैं कि सूर्योदय कब होता है, पता नहीं। वे उठते देरी से हैं, ब्रह्ममुहूर्त में उठते ही नहीं। जब कभी भी महावीर का स्मरण किया जाये तो वीतरागता तो उनमें है, व रहेगी, वे तो अपना काम कर ही रहे हैं, पर हमारी आँखें खुलती ही नहीं। आप चाहते हैं कि कोई आकर आँखें खोलदे, तो यह महान् गल्ती ही होगी। टीटी के द्वारा जब वह टेंक से जुड़ी है, तब स्नान ही स्नान होता है, पर टोटीं अलग करने पर टोटीं से स्नान नहीं हो सकता। जल का स्रोत वह टोटी नहीं है। उसका स्रोत तो अन्दर से आ रहा है। भगवान् महावीर के चरणों में कुछ पराग रखी है, वह आप लोगों के लिए नहीं। उन्होंने प्रयास किया है, तब वे अनन्त शक्ति के धनी बने। अत: आप चाहें माथा रखे रहो तो भी आपमें वह अनन्त शक्ति नहीं आएगी। वह तो अन्दर का टेंक खोलने पर ही आएगी। भगवान् महावीर आपसे कुछ लेंगे भी नहीं तो देंगे भी नहीं। अगर हम उनके अनुरूप काम करेंगे तो उस रूप बन जाएँगे। वीतरागी बनना चाहते हो, उसकी उपासना करना है तो अप्रशस्त राग को छोड़ना है, फिर विचारना है कि हेय क्या है ? ज्ञेय क्या है ? इसके लिए मंद राग की आवश्यकता है। जब तीव्र कषायों की परिणति चलती है, तब हेय उपादेय को जानने की शक्ति नहीं रहती है, अनन्त दुख का अनुभव करना पड़ता है। प्रशस्त राग हेय भी नहीं है तो ध्येय भी नहीं है, वह बीच की अवस्था है। वह साधन आलम्बन के रूप में है, अत: वो भी छोड़ना है। प्रशस्त राग बीमारी को निकालने वाला है बीमारी निकलने पर उसे भी छोड़ना है। पेट में जब तक खराबी होती है, तभी तक दवाई ली जाती है उसके बाद नहीं। दवाई के द्वारा शरीर नहीं टिकता है, वह तो अन्न के द्वारा ही टिकता है। दवाई तो सिर्फ शरीर के रोग को दूर करती है। आज मोक्षमार्ग की प्ररूपणा में भी अति हो गई। महावीर ने महान् अध्ययन के बाद यह घूंटी पिलाई है। जैसी पात्रता वैसा उपदेश। हमारे आचार्यों ने यही तरीका अपनाया है।
समंतभद्राचार्य ने कहा कि हे भगवन्! आप मेरे द्वारा नमस्कृत इसीलिए हैं कि औरों में यह विशेषता नहीं है। आप किसी को खाली हाथ नहीं भेजते हैं, देते हैं, जिससे उसके जीवन का विकास होता है। मधुर शब्दों के द्वारा विरोधी के कान भी ठण्डे पड़ जाते हैं। हम अमृत की विशेषता बताते समय जहर की बात करते हैं। अपने को सिर्फ अमृत की विशेषता बतानी है। यही अनेकांत है, दूसरे का निषेध नहीं करना। सामने वाले पर कैसे प्रभाव पड़े दूसरे का खण्डन नहीं, अपना मंडन होना चाहिए। ५० प्रतिशत मूर्ख कहने के बजाये ५० प्रतिशत बुद्धिमान कहना बेहतर है। हरेक व्यक्ति को इस प्रकार बोलना चाहिए कि सामने वाला चुम्बक की तरह खिंचता चला आय। महावीर ने यही विस्तृत विवेचन किया है। सिद्धान्त का समर्थन करते हुए लोगों को अपनाना है, उन्हें आदर देना है। अनादिकाल से वीतरागता के रहस्य को आपने समझा ही नहीं। हमारी शक्ति विरोध करने में खर्च हो रही है, अपना समर्थन करने में नहीं। अत: बाहरी शक्ति को आदर देकर अपना बना सकते हैं।