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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन प्रमेय 8 - ज्ञानकल्याणक (उतरार्द्ध)

       (1 review)

    जिस समय युग के आदि में वृषभनाथ को केवलज्ञान हुआ, उसी घड़ी वहाँ पर और दो घटनाएँ घटी थीं। 'भरत' प्रथम चक्रवर्ती माना जाता है, उसके पास एक साथ तीन दूत आकर समाचार सुना रहे हैं, सर्वप्रथम व्यक्ति की वार्ता थी-प्रभो! आपका पुण्य कितना विशाल है, पता नहीं चलता, काम पुरुषार्थ के फलस्वरूप पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है, दूसरा कहता है कि-हे स्वामिन्! इसकी बात तो घर तक की सीमित है तथा यह अवसर कई बार आया होगा। अभी तक हम लोग सुना करते थे कि आप छहखण्ड के अधिपति हैं, लेकिन आज आयुधशाला में एक ऐसी घटना घट गई, जैसे आप लोगों में चुनाव के लिए उम्मीदवार के रूप में खड़े होने की संभावना पर 'फलाने को टिकट मिल गया” ऐसा सुनकर जीप वगैरह की भाग-दौड़ी प्रारम्भ हो जाती है। ऐसी ही स्थिति वहाँ पर हो गई थी, आयुधशाला में चक्ररत्न की प्राप्ति हुई है, जो कि आपके चक्रवर्ती होने का प्रमाण प्रस्तुत कर रही है। तीसरा दूत कहता है-यह सब स्वार्थ की बातें हैं, हमारी बात तो सुनो। मैं इन सबसे भिन्न अद्भुत बात बताऊँगा, अर्थपुरुषार्थ करके कई बार इस प्रकार के दुर्लभ कार्य प्राप्त हुए हैं तथा कामपुरुषार्थ करके कई बार पुत्ररत्न की प्राप्ति हो गई, लेकिन धर्मपुरुषार्थ करके इस जीव ने अभी तक केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं की, पर आज आपके पिताजी मुनि वृषभनाथजी को केवलज्ञान की उपलब्धि हो गई है।

     

    इन तीनों में बड़ी बात कौन-सी है भैय्या! आप कहेंगे कम से कम लाला का मुख तो देखना चाहिए पहले, फिर दूसरी, अरे! चक्ररत्न की प्राप्ति हो गई, हुकूमत और सत्ता हाथ में आयी है। लेकिन यदि सही सत्ता की बात पूछना चाहते हो तो तीन लोक में वही सही सत्ता मानी जाती है। जिस सत्ता के सामने सारी सताएँ समाप्त हो जायें। केवलज्ञान-सत्ता ही वास्तविक सत्ता है, जिसके समक्ष अन्य सताएँ कुछ भी नहीं है। तीनों की वार्ता सुनी और चक्री उठकर चलने को तैयार हो गये, लेकिन रनवास की ओर नहीं गये और न ही आयुधशाला की ओर, उन्होंने कहा यह सब तो बाद की बात है, सर्वप्रथम तो समस्त परिवारजन को तैयार करो, अष्टमंगलद्रव्य के साथ और हाथी को उस ओर ले चलो जहाँ वृषभनाथ भगवान के समवसरण की रचना हो चुकी है, हमें सुनना है कि भगवान् अब क्या कहेंगे? पिताजी की अवस्था में कुछ और बात कहा करते थे, अब तो कुछ भिन्न ही कहेंगे, अब मुझे बेटा भी नहीं कहेंगे वे, और मैं भी तो उन्हें पिताजी नहीं कहूँगा, अब वो ऐसे बन गये कि जैसे अनन्तकाल से आज तक नहीं बने थे। आज तक उस दिव्य-दीपक का उदय नहीं हुआ था, अनन्तकाल से वह शक्ति छिपी हुई थी, केवलज्ञानावरण कर्म के द्वारा, जो आज व्यक्त हुई है, इस तरह के विचारों में निमग्न होते हुए समवसरण में पहुँचे।

     

    समवसरण में पहुँचते ही भरत चक्रवर्ती ने नमोऽस्तु कर भगवान् की दिव्यध्वनि सुनी, सुनकर वे तृप्त हो गये।‘‘मैं और कुछ नहीं चाहता, मेरे जीवन में यह घड़ी, यह समय कब आयेगा, जब मैं अपने जीवन को स्वस्थ (स्व में स्थित) बनाऊँगा। भगवान् ने स्वस्थ बनने का प्रयास लगातार एक हजार वर्ष तक किया और आज वे स्वस्थ बन गये, आज उसका फल मिल गया।

     

    मोक्ष-पुरुषार्थ किये बिना, मोह को हटाये बिना, तीनकाल में केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती, इसके उपरान्त ही मुक्ति मिलेगी, यह बात अलग है कि किसी को केवलज्ञान होने के उपरान्त अन्तर्मुहूर्त में ही मुक्ति मिल सकती है और किसी को कुछ कम पूर्वकोटि तक भी विश्राम करना पड़ सकता है।

     

    अब दिव्यध्वनि क्यों? या यह कहिए कि केवलज्ञान होने के उपरान्त उनकी क्या स्थिति रहती है, जानने-देखने के विषय में ? यह प्रश्न सहज ही उठता है क्योंकि जब श्रेणी में ही निश्चयनय का आश्रय करके वह आत्मस्थ होने का प्रयास करते हैं तो केवलज्ञान होने के उपरान्त दुनियाँ की बातों को देखने में लगेंगे क्या ? ऐसा सवाल तो तीन काल में भी नहीं होना चाहिए ना, लेकिन नहीं। नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने कहा है कि-केवलज्ञान होने के उपरान्त केवली भगवान इस तरह जानते हैं, देखते हैं।

     

    जाणादि पस्सदि सव्वं ववहारणायेण केवली भयवं।

    केवलणाणी जाणादि पस्सदि णियमेणा अप्पाणं ॥

    (नियमसार-१५९/२)

    शुद्धोपयोग अधिकार में कहा है कि केवली भगवान नियम से अर्थात् निश्चय से या यो कहें नियति से, अपनी आत्मा को छोड़ करके दूसरों को जानने का प्रयास नहीं करते, परन्तु व्यवहार से वे स्व और पर दोनों को अर्थात् सबको-सब लोकालोक को जानते हैं, देखते हैं।

     

    सर्वज्ञत्व आत्मा का स्वभाव नहीं है, यह उनके उज्ज्वल ज्ञान की एक परिणति मात्र है, अत: व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा जाता है कि वे सबको जानते हैं, ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध तो वस्तुत: अपना, अपने को, अपने साथ, अपने लिए, अपने से, अपने में जानने-देखने से सिद्ध हुआ करता है, ऐसा समयसार का व्याख्यान है। इस तरह का श्रद्धान रखना-बनाना ही निश्चय-सम्यक दर्शन कहा है तथा अन्यथा श्रद्धान को व्यवहार सम्यक दर्शन कहते हैं इत्यादि। इसलिए -

     

    सकल ज्ञेय - ज्ञायक तदपि, निजानन्द रसलीन।

    सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि रज रहस विहीन।

    (दौलतराम जी कृत स्तुति)

    केवली भगवान् सबको जानते हैं व्यवहार की अपेक्षा से, किन्तु आनन्द का जो अनुभव कर रहे हैं वह किसमें ? अपने भीतर कर रहे हैं, यही वस्तुतत्व है, णियमेण अर्थात् निश्चय से देखेंगे तो सबको नहीं देखेंगे, सबको नहीं जानेंगे, सबको जानने-देखने का पुरुषार्थ उन्होंने किया नहीं था, यदि सबको जानने-देखने का पुरुषार्थ कर लें तो गड़बड़ हो जायेगा, उनका ज्ञान स्वतन्त्र है, वे स्वतन्त्र हैं और उनके गुण भी स्वतन्त्र हैं, किसी के लिए उनका अस्तित्व, उनका वैभव नहीं, उनकी शक्ति नहीं, स्वयं के लिए है, पर के लिए नहीं, हमारे लिए वो केवली नहीं किन्तु स्वयं अपने लिए केवली हैं, हमारे लिए तो हमारा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान है, वही साथ-साथ रह रहा है किन्तु केवली का ज्ञान तो हमारे लिए आदर्श होगा, आदर्श से हम भी अपने मतिज्ञान, श्रुतज्ञान को मिटाकर केवलज्ञान में परिणत कर सकते हैं, ऐसा आदर्श ज्ञान देखकर हमारे भीतर भी आदर्श बनना चाहिए।

     

    छद्मस्थावस्था में उपयोग हमेशा अर्थ-पदार्थ को ही लेकर चलता है, छद्मस्थावस्था का सामान्य लक्षण भी यही बनाना चाहिए कि जो ज्ञान, पदार्थ की ओर मुड़कर के जानता है वह ज्ञान छद्मस्थ का है और जो पदार्थ की और मुड़े बिना अपने-आपसे अपने-आपको जानता है या अपने आप में लीन रहता है वह केवलज्ञान प्रत्यक्ष पूर्णज्ञान है, चाहे मतिज्ञान हो या श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान हो या मन:पर्यय, चारों ही ज्ञान पदार्थ की ओर मुड़ करके जानते हैं, यही आकुलता है, फिर ज्ञान की निराकुलता क्या है ? ज्ञान की निराकुलता यही है कि वह पदार्थ की ओर न मुड़कर के अपनी ओर, अपने में ही रहे। केवलज्ञान ही एक ऐसा ज्ञान है जो पदार्थ की ओर नहीं मुड़ता है, मुड़ना ही आकुलता है, स्व को छोड़कर के पर की ओर मुड़ा जाता है और पर को छोड़कर स्व की ओर मुड़ जाता है, दो प्रकार के मोड़ है, हमारा मोड़ तो दूसरे की होड़ के लिए पर की ओर मुड़ता है, अपनी वस्तु को छोड़कर जिसका ज्ञान, पर के मूल्यांकन के लिए चला जाता है वह छद्मस्थ का आकुलित ज्ञान, रागी-द्वेषी का ज्ञान है, केवली का ज्ञान सब कुछ झलकते हुए भी अपने-आप में लीन है, स्वस्थ है।

     

    ज्ञान का

    पदार्थ की ओर

    ढुलक जाना ही

    परम-अार्त

    पीड़ा है, दु:ख है

    और पदार्थ का

    ज्ञान में झलक आना ही

    परमार्थ

    क्रीड़ा है, सुख है............(मूकमाटी)

    हम दूसरों को समझाने का प्रयास कर रहे हैं, दूसरों के लिए हमारा जीवन होता जा रहा है, लेकिन दर्पण जिस प्रकार बैठा रहता है उसी प्रकार केवलज्ञान बैठा रहता है, उसके सामने जो कोई भी पदार्थमालिका आती है तो वह झलक जाती है, यह केवलज्ञान की विशेषता है। सुबह मंगलाचरण किया था, जिसमें अमृतचन्द्राचार्यजी ने कहा था देखो -

     

    ‘‘पदार्थमालिका प्रतिफलति यत्र तस्मिन् ज्योतिषि तत् ज्योतिः जयतु''

    पुरुषार्थसिद्धयुपाय-१

    वह केवलज्ञान-ज्योति जयवन्त रहे जिस केवलज्ञान में सारे के सारे पदार्थ झलक जाते हैं लेकिन पदार्थों की ओर ज्योति नहीं जाती, दर्पण पदार्थ की ओर नहीं जाता और पदार्थ दर्पण की ओर नहीं आते फिर भी झलक जाते हैं तो दर्पण अपना मुख बन्द भी नहीं करता, ज्ञेयों के द्वारा यदि ज्ञान में हलचल हो जाती है, आकुलता हो जाती है तो वह छद्मस्थ का ज्ञान है ऐसा समझना और तीनलोक के सम्पूर्ण ज्ञेय जिसमें झलक जायें और आकुलता न हो, फिर भी सुख का अनुभव करें, वही केवलज्ञान है। यह स्थिति छद्मस्थावस्था में तीनकाल में बनती नहीं है, छद्मस्थ अवस्था में केवलज्ञान की किरण, केवलज्ञान का अंश मानना भी हमारी गलत धारणा है। इसलिए छद्मस्थावस्था में केवलज्ञान की क्वालिटी का ज्ञान छद्मस्थावस्था में मानने पर सर्वघाती प्रकृति को भी, देशघाती के रूप में अथवा अभावात्मक मानना होगा, जो कि सिद्धान्त-ग्रन्थों को मान्य नहीं है। इस जीव की वह केवलज्ञान शक्ति अनन्तकाल से अभाव रूप (अव्यक्त) है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में एक गाथा आती है

     

    का वि अपुव्वा दीसदि पुग्गलदव्वस्स एरिसि सक्ती।

    केवलणाणसहावो विष्णासिदो जाई जीवस्स॥

    (कार्तिकेयानुप्रेक्षा–२११)

    पुद्गल के पास ऐसी अद्भुत शक्ति नियम से है, जिस शक्ति के द्वारा उससे जीव का स्वभावभूत केवलज्ञान एक प्रकार से नाश को प्राप्त हुआ है। कर्म सिद्धान्त के ग्रन्थों में कर्म के दो भेद बताए गये हैं। 'जैन सिद्धान्त प्रवेशिका' में पं. गोपालदास बरैया ने इसकी परिभाषा स्पष्ट की है, जिसे आचार्यों ने भी स्पष्ट किया है, वे दो भेद हैं-देशघाती और सर्वघाती। केवलज्ञानावरणी कर्म का स्वभाव सर्वघाती बताया है, सर्वघाती प्रकृति को बताया है कि वह इस प्रकार होती है जिस प्रकार कि सूर्योदय के समक्ष अन्धकार का कोई सम्बन्ध नहीं तथा अन्धकार के सद्भाव के साथ सूर्य का, अर्थ यह हुआ कि केवलज्ञान की जो परिणति है उस परिणति की एक किरण भी बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक उद्घाटित नहीं होगी, क्योंकि केवलज्ञानावरण कर्म की ऐसी ‘विरोधी' शक्ति है जिसको बोलते है सर्वघाती। इससे स्पष्ट हो जाता है कि पुद्गल के पास भी ऐसी शक्ति है कि जो बारहवें गुणस्थान में जाने के उपरान्त जीव को अज्ञानी घोषित कर देती है, बारहवें गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ माने जाते हैं, लेकिन वीतरागी इसलिए हैं कि मोह का पूर्ण रूप से क्षय हो चुका है, बड़ी अद्भुत बात है, मोह का क्षय होने के उपरान्त भी वहाँ पर अज्ञान पल रहा है, यह भंग प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक चलता है, चाहे वो एकेन्द्रिय हो या पञ्चेन्द्रिय, चाहे पशु हो या देव, चाहे मुनि हो या आर्यिका, कोई भी हो बारहवें गुणस्थान तक, जब तक उसका पूर्ण विकास नहीं हो जाता तब तक अज्ञान रूप भंग उसके सामने से हट नहीं सकेगा। घातिया कर्मों को नष्ट किये बिना केवलज्ञान का प्रादुर्भाव तीन काल में भी नहीं हो सकेगा, उस केवलज्ञान की महिमा कहाँ तक कही जाये, कितना पुरुषार्थ किया होगा उन्होंने, उस पुद्गल की शक्ति का संहार करने के लिए! बात बहुत कठिन है और सरल भी है कि एक अन्तर्मुहूर्त में आठ साल का कोई लड़का जो कि निगोद से निकलकर आया है, यहाँ पर उसने मनुष्य पर्याय प्राप्त की, आठ साल हुए नहीं कि, वह भी इतना बड़ा अद्भुत कार्य अपने जीवन में कर सकता है, इतना सरल है और कठिनाई को तो आप जानते ही हैं कि १००० वर्ष तक कठिन तप किया भगवान वृषभनाथ ने तब कहीं जाकर के केवलज्ञान प्राप्त हुआ।

     

    जीव के पास भी ऐसी-ऐसी अद्भुत शक्तियाँ हैं, जिनसे कर्मों की चित्र-विचित्र शक्तियों को नष्ट कर देता है, भिन्न-भिन्न प्रकार के आठ कर्म होते हैं। आठ कर्मों में भी १४८ भेद और हो जाते हैं, यह संख्या की अपेक्षा है, परन्तु १४८ कर्म के भी असंख्यात लोक प्रमाण भेद हो जाते हैं। किसके कर्म किस क्वालिटी के हैं-जाति की अपेक्षा, नाम की अपेक्षा से तो मूल में आठ होते हुए भी उनकी भीतरी क्वालिटी के बारे में हम कोई अन्दाजा नहीं कर सकते, क्योंकि हमारा ज्ञान छद्मस्थ/अल्प है, इसीलिए किसी को अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान होना संभव है और किसी को हजारों वर्ष भी लग सकते हैं।

     

    केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए कई प्रकार की निर्जरा करनी पड़ती है, निर्जरा अधिकार में आचार्यों ने कहा है कि-कर्म दो प्रकार के हैं पाप और पुण्य। इनकी निर्जरा किये बिना मुक्ति संभव नहीं, केवलज्ञान नहीं और कुछ भी नहीं। पहले-पहले पाप कर्मों की निर्जरा की जाती है, पुण्य कर्म की नहीं। पाप कमों में भी सर्वप्रथम घातिया कमों की निर्जरा की जाती है अघातिया कमों की नहीं, कुछ सापेक्ष रूप से हो जाती है यह बात अलग है। जैसे कुछ पौधों को बो दिया, लगा दिया, रोप दिया, खाद पानी दे दिया तो उसके साथ घास-पूस भी उग आया, तब घास-पूस को उखाड़ा जाता है लेकिन उसके साथ-साथ कुछ पौधे, जो कि रोपे गये थे उखड़ जाते हैं, उनको उखाड़ने का अभिप्राय नहीं होता, वस्तुत: इसी तरह सापेक्षित रूप से कुछ अघातिया कर्मों की भी निर्जरा हो जाती है, की नहीं जाती। सर्वप्रथम सम्यक दृष्टि जीव निर्जरा करता है तो पाप कर्म की ही करता है, यह जैन कर्म के सिद्धान्त हैं, मैंने श्री धवल में कहीं नहीं देखा कि सम्यक दृष्टि जीव पुण्य कर्म की निर्जरा करता है, बल्कि यह कथन तो श्रीधवल (पु. १३) में बार-बार आया है कि 'सम्माइट्ठी पसत्थकम्माण अणुभागं कदाविण हणदि' प्रशस्त कर्मों के अनुभाग की निर्जरा सम्यक दृष्टि तीनकाल में कभी भी नहीं करता, क्योंकि जो बाधक होता है मार्ग में, उसी की सर्वप्रथम निर्जरा की जाती है। इसी प्रकार हम पूछते हैं कि आस्रव और बन्ध की क्रिया में भी वह कौन-सी पुण्य प्रकृति को बन्ध होने से रोक देता है? १० वें गुणस्थान तक की व्यवस्था में जो प्रशस्त कर्म बँधते हैं तो कर्म सिद्धान्त के वेत्ता बताएँ कि उनमें से कितने, कौन से प्रशस्त कर्मों को रोकता है ? अर्थ यह हुआ कि कर्मों की निर्जरा किए बिना केवलज्ञान नहीं हो सकता, लेकिन कर्मों की निर्जरा का क्रम भी निश्चित है, वह कैसा है? यह देखने की बडी आवश्यकता है विद्वानों को, स्वाध्याय प्रेमियों को और साधकों को, इस क्रम को देख करके, जान करके जब हमारा श्रद्धान बनेगा तब ही हमारा श्रद्धान सही होगा, तीन प्रकार के विपर्यासों से रहित होगा, तीन प्रकार का विपर्यास हुआ करता है-एक कारण विपर्यास, दूसरा स्वरूप विपर्यास और तीसरा भेदाभेद विपर्यास। कौन-सा कारण, किसके लिए बाधक है -

     

    जिन पुण्य-पाप नहीं कीना, आतम अनुभव चित दीना।

    तिनहीं विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ॥

    सम्यक दृष्टि पुण्य और पाप दोनों से परे होता है, न वह पुण्य करता है और न ही पाप, तब कहीं आत्मिक सुख का अनुभव करता है, लेकिन यहाँ पर ध्यान रखो! पं. दौलतरामजी संवर भावना का व्याख्यान कर रहे हैं, इसलिए पुण्य और पाप दोनों के कर्तव्य से भिन्नता की बात कही है, न कि कर्म-सिद्धान्त कि अपेक्षा से। उन कर्मों की बन्धव्युच्छित्ति आदि की अपेक्षा से भी नहीं। आगम का कथन तो है कि १०वें गुणस्थान तक पुण्य के आस्रव को रोकने का कहीं भी सवाल नहीं और १०वें गुणस्थान के ऊपर तो ना पुण्य कर्मों का और ना ही पाप कर्मों का साम्परायिक आस्रव होता है। यह सब वह भावनाकार पं. दौलतरामजी के कथन में अविवक्षित है, कारण कि वहाँ मात्र भावना की ही विवक्षा है। कल पण्डितजी जो कह रहे थे कि सम्यक दृष्टि पूर्वबद्ध पुण्य-पाप कर्मों निर्जरा करता है और नवीन पुण्य-पाप कर्मों को रोक देता है, जो पुण्यास्त्रव को रोकने का प्रयास नहीं करता, वह व्यक्ति सम्यक दृष्टि नहीं है, वह तो अभी विपर्यास में पड़ा है। अब आप ही देख लीजिए कि विपर्यास में कौन है ? बात ऐसी है कि जब हम इन (श्री धवलादि) ४० ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो बहुत डर लगने लग जाता है कि थोड़ी-सी भूल से हम जिनवाणी को दोषयुक्त करने में भागीदार हो जायेंगे। बहुत ही सावधानी की बात है। संभाल-संभाल कर बोल रहा हूँ भगवान यहाँ पर बैठे हैं, दिव्यज्ञानी हैं।

     

    पं. दौलतरामजी ने बहुत मार्के की बात कही है ‘जिन पुण्य-पाप नहीं कीना' इसका अर्थ हुआ कि साम्परायिक आस्रव १०वें गुणस्थान तक होता है। साम्परायिक का अर्थ होता है कषाय, जिसके माध्यम से आगत कर्मों में स्थिति और अनुभाग पड़ जाता है। इसके उपरान्त ईर्यापथ आस्रव होता है वह भी एक मात्र सातावेदनीय का। जो दुनियाँ को साता देता है, उस साता के अभाव में आप तिलमिला जायेंगे। केवल असाता-असाता का बन्ध कभी नहीं होता है, न ही संभव है। क्योंकि साता-असाता दोनों आवश्यक हैं संसार की यात्रा के लिए, पुण्य और पाप दोनों चाहिए। अकेला पुण्य का आस्रव दसवें गुणस्थान तक कभी भी नहीं होता और अकेले पाप का भी नहीं, केवल साता का आस्रव ११-१२-१३वें गुणस्थान इन तीनों में होता है, इस कर्मास्त्रव (पुण्यास्त्रव) से हमारा कोई भी बिगाड़ नहीं होता, मुक्ति के लिए बिगाड़ फिर भी है, लेकिन केवलज्ञान के लिए यह कर्मास्त्रव (पुण्याखव) बेड़ी नहीं है, क्या कहा ? सुना कि नहीं। केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए केवल घातिया कर्मों का नाश करना होता है, घातिया कर्मों में, चाहे मूल प्रकृति हो या उत्तर प्रकृति, कोई भी प्रकृति प्रशस्त प्रकृति नहीं होती। इसलिए जैनाचार्यों का कहना है कि सर्वप्रथम पाप कर्मों की निर्जरा करके नवीन कर्मों को तू रोक ले, पुण्य तेरे लिए कोई विपरीत काम नहीं करेगा, बाधक नहीं होगा, पुण्य को रखने की बात नहीं कही जा रही है, लेकिन निर्जरा का क्रम तो यही होगा कि सर्वप्रथम पाप का संवर करें, नवीन पापास्त्रव को रोकें, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करें और वर्तमान बन्ध को मिटा दें तो नियम से वह केवलज्ञान प्राप्त करा देगा। यह भी ध्यान रखना कि जब तक साता का आस्त्रव होता रहेगा तब तक उसे मुक्ति का कोई ठिकाना नहीं है, केवलज्ञान होने के उपरान्त भी आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि वर्ष तक भी वह रह सकता है। वैभाविक पर्याय में और केवल साता का आस्रव होता रहता है, उस आस्रव को रोकने के लिए आचार्य कहते हैं कि तृतीय व चतुर्थ शुक्लध्यान आवश्यक है, वे ही भीतर बैठे हुए अघातिया कर्मों का नाश करने में समर्थ हैं। अघातिया कर्मों की निर्जरा करने का नम्बर बाद में आता है, लेकिन घातिया कर्मों की निर्जरा करने का प्रावधान पहले है।

     

    संवर के क्षेत्र में, बन्ध के क्षेत्र में भी इसी क्रम की बात आती है। इसलिए 'जिन पुण्य पाप नहीं कीना', इस दोहे का अर्थ-मर्म सही-सही वही व्यक्ति समझ सकता है जो कर्म सिद्धान्त के बारे में सही-सही जानकारी रखता है। यदि इस प्रकार की सही-सही जानकारी नहीं रखता हुआ भी वह कहता है कि सम्यक दृष्टि पाप-पुण्य दोनों प्रकार के कर्मास्त्रव को रोक देता है, वह भी चतुर्थ गुणस्थान में रोक देता है तो उसे तो अपने-आप ही बन्ध होगा और कोई छोटा बन्ध नहीं, बहुत बड़ा बन्ध माना जायेगा क्योंकि सामने वाला सोचेगा कि विकल्प तो मिटे नहीं फिर भी यह कह रहे हैं कि पुण्य नहीं होना चाहिए और हो रहा है तो इसका अर्थ है कि मेरे पास सम्यक दर्शन नहीं है और धर्मात्मा भी नहीं हो सकता जब तक, तब तक कि पुण्य बन्ध को न रोकूं। ऐसा करने वाले व्यक्ति के पास जब खुद के सम्यक दर्शन का पतियारा (ठिकाना) नहीं है, तो चारित्र की बात करना ही गलत हो जाएगी। इस प्रकार यदि श्रद्धान बना लेता है तो दोनों ही संसार की ओर बढ़े चले जा रहे हैं - उपदेश सुनने वाला भी और उपदेश देने वाला भी। जैसा कि कहा है -

     

    "केचित्प्रमादान्त्रष्टाः केचिच्चाज्ञानान्त्रष्टाः, केचिन्त्रष्टैरपि नष्टाः ''

    -बृहद द्रव्यसंग्रह टीका से.... 

    कुछ लोग प्रमाद के द्वारा नष्ट हो जाते हैं, कुछ लोक अज्ञान के द्वारा नष्ट हो जाते हैं और कुछ लोग नष्ट हो रहे लोगों के पीछे-पीछे नष्ट हो जाते हैं। हम सिद्धान्त का ध्यान नहीं रख पाते हैं, इससे बातों-बातों में कितना गलत कह जाते हैं, यह पता भी नहीं चलता। इसलिए बन्धुओ! यदि आप स्वाध्याय का नियम लेते हैं तो दूसरों को सुनाने का विकल्प छोड़कर लीजिए, तभी नियम ठीक होगा, दूसरों को समझाने की अपेक्षा से भी नहीं, दूसरों को समझाने चले जाओ तो लाभ कम होगा, हानि ज्यादा होगी। इसके द्वारा जिनवाणी को सदोषी बनाना और हाथ आ जायेगा। भीति लगती है कि ४० ग्रन्थों में कहाँ-कहाँ पर कैसे-कैसे भंग बनते हैं, यह भी पता नहीं चल पाता और अपनी तरफ से उसमें निष्कर्ष देने लगते हैं। जबकि हम उसके अधिकारी नहीं होते। इसलिए सोच लेना चाहिए कि चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक दृष्टि को कौन-कौन से पुण्य कर्म का संवर होता है ? १४८ ही तो कर्मों की संख्या है और कोई ज्यादा नहीं है जो कि याद न रह सके। यहाँ दुनियादारी के क्षेत्र में तो हम बहुत कुछ याद कर लेते हैं, लेकिन १४८ में से चतुर्थगुणस्थान में कौन-कौन से कर्म का आस्रव रुका, संवर हुआ, उनमें प्रशस्त कितने, अप्रशस्त कितने हैं ? पाप कर्म कितने हैं, पुण्य कितने हैं, यह याद नहीं रह पाता ? यदि इसको ठीक-ठीक समझ लें तो अपने आप ही ज्ञात हो जायेगा कि हमारी धारणा आज तक पुण्य कर्म को रोकने में लगी रही, लेकिन आगम में ऐसा कहीं लिखा नहीं है।

     

    बात खुरई (सागर, मध्यप्रदेश) की है जब आगम में निकला कि "सम्माइट्ठी पसत्थकम्माण अणुभागं कदावि ण हणदि" तो देखते रह गये। वाह.......वाह! स्वाध्याय का यह परिणाम निकला। आप इस प्रकार के स्वाध्याय में लगे रहिए। ऐसा स्वाध्याय करिए, इसे मैं बहुत पसन्द करूंगा। इस प्रकार के सही-सही स्वाध्याय से एक-दो दिन में ही आप अपनी प्रतिभा के द्वारा बहुत-सी गलत धारणाओं का समाधान पा जायेंगे। लेकिन यह ध्यान रखना कि ग्रन्थ आर्षप्रणीत मूल संस्कृत और प्राकृत के हों, उनका स्वाध्याय करना। उसमें भाषा सम्बन्धी कोई खास व्यवधान नहीं आयेगा। यदि कुछ व्यवधान आ भी रहे हों तो उसमें स्वाध्याय की कमी नहीं, हमारे क्षयोपशम की, बुद्धि में समझ सकने की कमी हो सकती है। आप बार-बार पढ़िये, अपने आप समझ पैदा होगी, ज्ञान बढ़ेगा। महाराजजी ने एक बार कहा था कि 'एक ग्रन्थ का एक ही बार अवलोकन करके नहीं छोड़ना चाहिए। तो फिर कितनी बार करना चाहिए ? १०८ बार करना चाहिए कम से कम, लेकिन वह भी ऐसा नहीं कि तोता रटन्त पाठ करो किन्तु पहले की अपेक्षा दूसरी बार में, दूसरी की अपेक्षा तीसरी बार में आपकी प्रतिभा बढ़ती रहनी चाहिए, तर्कणा पैनी होनी चाहिए, तो अपने आप शंकाओं का समाधान होता चला जाता है।

     

    आज हमारी स्मरण शक्ति, बुद्धि १४८ कर्मों के नाम भी नहीं जानती और आद्योपान्त ग्रन्थ का अध्ययन करना तो मानो सीखा ही नहीं और हम चतुर्थ गुणस्थान में पुण्य-पाप, दोनों कर्मों के आस्रव से उस सम्यक दृष्टि को दूर कराने के प्रयास चालू कर देते हैं, लेकिन सफल नहीं हो पाते और न आगे कभी सफल हो सकेंगे।

     

    बन्धुओ! यह बात अच्छी नहीं लग रही होगी। परन्तु माँ जिनवाणी की ही है, मैं नहीं कह रहा हूँ। मैं तो बीच में मात्र भाषान्तरकार के रूप में हूँ जिनवाणी कह रही है आप सोचिए और पं. दौलतरामजी को सही-सही समझने का प्रयास कीजिए, वे संवर के प्रकरण को ले करके, सर्वप्रथम मुनियों की बात कह रहे हैं कि बारह भावनाओं का चिन्तन कौन करता है ? आप कहेंगे महाराज! क्या श्रावक नहीं कर सकते? नहीं, करना तो सभी को चाहिए, बात करने की नहीं लेकिन भावना फलीभूत किसकी होगी ? ठीक-ठीक किसकी होगी ? तो आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में स्वयं कहा है कि -

     

    ‘‘ स गुप्तिसमिति-धर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ?"

     तत्त्वार्थसूत्र – ९/२

    भावना सही-सही होनी चाहिए, भावना केवल पाठ न रह जाए, अत: चारित्र को अंगीकार करके परीषहों के साथ बारह भावनाओं का चिन्तन, धर्म को समीचीन बनाते हुए, समितियों में सम्यक्रप्पना लाते हुए, गुप्ति की ओर बढ़ना, यही एकमात्र संवर का यहाँ पर तात्पर्य परिफलित होता है। तो बारह भावनाओं का चिन्तन ज्यों ही तीर्थकरों ने किया तो फिर वे वन की ओर चले गए। उस समय ऊपर की ओर से कौन आते हैं ? देवर्षि आते हैं। कौन होते हैं वे देवर्षि ? लौकान्तिक देवों को कहते हैं देवर्षि, बालब्रह्मचारी होते हैं, पंचम स्वर्ग के ऊपर उनकी कॉलोनी बनी है उनमें रहते हैं। द्वादशांग के पाठी होते हैं, सफेद वस्त्र धारण करते हैं, वहाँ कोई भी देवियाँ नहीं होती तथा हमेशा बारह भावनाओं का चिन्तन करते रहते हैं। वे कहाँ से गए हैं ? तो, जाते तो हैं वे मात्र भरत, ऐरावत एवं विदेहक्षेत्र की कर्मभूमियों से, भोगभूमि से कोई नहीं जा सकता वहाँ पर! महाराज क्या सम्यक दृष्टि वहाँ जा सकते हैं ? हाँ सम्यक दृष्टि ही जाते हैं लेकिन 'अविरत सम्यक दृष्टि लौकान्तिक देव नहीं हो सकते हैं।” किसी एक व्यक्ति से कल हमने सुना-वह कह रहे थे कि महाराज! वहाँ पर रात्रि में चर्चा चल रही थी कि अविरत सम्यक दृष्टि लौकान्तिक देव हो सकते हैं। लेकिन आप तो कह रहे थे कि मुनि बने बिना नहीं जा सकते हैं। कौन कहता है कि अविरत सम्यक दृष्टि लौकान्तिक देव हो सकता है ? मैं तो अभी भी कह रहा हूँ कि प्रत्येक मुनि के पास भी लौकान्तिक बनने की योग्यता नहीं। जो रत्नत्रय को पूर्णरूपेण निभाता है, वह भावनाओं के चिन्तन में अपने जीवन को खपाता है, महाव्रतों का निर्दोष पालन करता है, इस प्रकार की चर्या निभाते हुए अन्त में वह लौकान्तिक बनता है। तिलोयपण्णत्ति को उठा करके देख लेना चाहिए। जो व्यक्ति मुनि हुए बिना चतुर्थ गुणस्थान से लौकान्तिक देव बनने का प्रयास कर रहा है वह व्यक्ति इस ओर नहीं देख रहा है जो तिलोयपण्णति में कहा गया है। इस प्रकार की कई गल्तियाँ हमारे अन्दर घर कर चुकी हैं। यदि अज्ञान के कारण कोई बात अन्यथा हो जाए तो बात एक बार अलग है, क्षम्य है। लेकिन तत्सम्बन्धी जिसे ज्ञान भी नहीं और ऊपर से आग्रह है तो उन्हें इस प्रकार के उपदेश या प्रवचन नहीं देना चाहिए। प्रवचन देने का निषेध नहीं है किन्तु जिस विषय के बारे में पूर्वापर ज्ञान हमें सही-सही नहीं है और उसका हम प्रवचन दें तो इसमें बहुत सारे व्यवधान हो सकते हैं। यदि इसमें कषाय और आ जाए तो फिर बहुत गड़बड़ हो जाएगा। मोक्षमार्ग बहुत सुकुमार है और बहुत कठिन भी। अपने लिए कठोर होना चाहिए और दुसरो के लिए सुकुमार होना चाहिए किन्तु कषायो की वजह से दूसरों को कठोर बना देते हैं और अपने लिए नरम बना लेना चाहते हैं। लेकिन मोक्षमार्ग है आपकी इच्छा के अनुसार नहीं बनने वाला, भैय्या !

     

    भगवान के दर्शन अच्छे ढंग से करो, उनकी भक्ति करो, भगवान की भक्ति करने से हमें कुछ नहीं होता, ऐसा नहीं सोचना चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द जैसे आचार्य भी कहते हैं कि -

     

    अरिहंत णमोक्कारो, भावेण य जो करेदि पयडमदी।

    सो सव्वदुक्खमोक्ख, पावदि अचिरेण कालेण।

    (मूलाचार-१/५०६)

    जो प्रयत्नवान हो करके अरहन्तों की भक्ति करता है, भावों की एकाग्रता के साथ करता है तो नियम से वह कुछ ही दिनों में, घड़ियों में सभी दु:खों से मुक्ति पा जायेगा।' भावेण' यह शब्द बहुत मार्के का है। अर्थ यह है कि अरहन्त भक्ति करो पर 'हेयबुद्धि' से करना, इस पर मन कुछ सोचने का कहता है, कई लोग ऐसा व्याख्यान देते हैं कि भक्ति आदि क्रियाएँ हेयबुद्धि से करना चाहिए, लेकिन वह मेरे गले नहीं उतरता है। कई लोग कहते हैं कि महाराज! कम से कम अरहन्तभक्ति करते समय हमारी हेयबुद्धि कैसे हो ? हम तो हैरान हो जाते हैं कि भैया! इस प्रकार का प्रश्न तो आपने कर दिया हमारे सामने किन्तु इसके लिए उत्तर मैं कहाँ से ढूँडू? और यदि इसका उत्तर समीचीन नहीं देता हूँ तो मुझे दोष लगेगा। आपको कुछ नहीं कहने पर आप और भी इस तरह की गलत धारणा बना लेंगे। दूसरी तरफ आगम में ऐसा कुछ कहा भी नहीं जिससे आपका समाधान हो सके। अब तो फंदे में पड़ गये हम, किन्तु फिर भी ढूँढता रहता हूँ कि कौन-सा शब्द कहाँ पर किस रूप में प्रयुक्त होता रहता है ? मैं मंजूर करता हूँकि अरहन्त-भक्ति करते-करते किसी को भी केवलज्ञान नहीं हुआ, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि अरहन्त-भक्ति के द्वारा संवर और निर्जरा भी नहीं होती, ऐसा कदापि नहीं मानना। संवर, निर्जरा नियम से होती है, इस संवर-निर्जरा के द्वारा साक्षात् केवलज्ञान नहीं होता, यह बात बिल्कुल अलग है कि जो केवलज्ञान प्राप्ति की भूमिका में है और 'अरहन्त-भक्ति (अरहन्त-सिद्ध)' करता रहेगा तो उसे अरहन्त पद नहीं मिलेगा क्योंकि उसकी स्थिति अभी पराश्रित है।

     

    समयसारादि ग्रन्थों में कहा गया है कि अरे! तू मुनि हो गया, अब शुद्धोपयोग धारण कर, शुद्धोपयोग में लीन हो जा, यदि शुद्धोपयोग में लीन हो जाएगा तो तू भी उसी के समान बन जाएगा जिसकी भक्ति कर रहा है।

     

    सुबह भजन में कोई सज्जन कह रहे थे कि "भक्त नहीं भगवान् बनेंगे।" मैंने सुना क्या बोल रहे हैं भजनकार ? भैय्या! यह तो बहुत गड़बड़ बात होगी कि जो भक्त तो नहीं बनेगा और भगवान बनेगा, भगवान तो बनना है लेकिन भक्त बनकर भगवान् बनेंगे, ऐसा क्रम होना चाहिए। नहीं तो सारे के सारे लोग भक्ति छोड़कर भगवान बनने बैठ जायेंगे तो मामला गड़बड़ हो जाएगा। प्रसंग को लेकर अर्थ को सही निकाला जाए तो कोई विसंवाद नहीं, किन्तु उसी पर अड़ जायें तो मामला ठीक नहीं, भक्ति के द्वारा जो केवलज्ञान माने, तो वह समयसार नहीं पढ़ रहा है और समयसार पढ़ते हुए यदि हम यह कहें कि ‘भक्ति से कुछ नहीं होता” तो भी समयसार नहीं पढ़ रहे हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि -

     

    मग्गप्पहावणार्डे, पवयणभक्तिप्पचोदिदेणा मया ।

    भणियं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं सुक्त।

    (पञ्चास्तिकाय-१७३)

    प्रवचनभक्ति के द्वारा प्रेरित हुई मेरी आत्मा ने इस प्रवचन (आगम) के साररूप पञ्चास्तिकाय– संग्रह सूत्र को कहा। मार्ग की प्रभावना को दृष्टि में रखकर ऐसी भावना उद्भूत हुई। भक्ति से ओतप्रोत होकर जिनवाणी की सेवा करने का ऐसा भाव यदि इस भूमिका में नहीं होगा तो कौन-सी भूमिका में होगा ? क्या सप्तमभूमि में होगा ? नहीं होगा। करुणा से युक्त हृदय वाले ही भक्ति कर सकते हैं। यदि कुन्दकुन्दाचार्य की अरहन्तभक्ति-श्रुतभक्ति नहीं होती तो यह जिनवाणी भी हमारे सामने नहीं होती। आप भी तो बोलते हैं कि 'तो किस भांति पदारथ पांति, कहाँ लहते रहते अविचारी' हाँ.....हाँ! जिनवाणी -भक्ति में क्या मार्मिक बात कही है कि हमारा अस्तित्व कहाँ, यदि यह जिनवाणी न होती तो ? किसी उर्दू शायर ने भी कहा है उसे भी याद ला रहा हूँ, बहुत अच्छी बात कहीं-उनकी ये दृष्टि हो या न हो, लेकिन मैंने तो इसका इस प्रकार अर्थ निकाला है -

     

    नाम लेता हूँ तुम्हारा लोग मुझे जान जाते हैं।

    मैं एक खोई हुई चीज हूँ जिसका पता तुम हो।

    मेरा कोई 'एड्रेस' नहीं, पता नहीं, अगर कुछ है तो तुम ही हो! तुम्हारी शरण छूट गयी तो हमारे लिये कोई शरण नहीं भगवान।

     

    "अन्यथा शरणां नास्ति त्वमेव शरणां मम'''...अरहंते सरणां पव्वज्जामि ।

    समाधिभक्ति – १५

    हे भगवान! (पञ्चपरमेष्ठी) आपके चरण-कमलों की शरण को छोड़ करके कौन-सी मुझे शरण है ? भगवान की भक्ति करते हुए यदि हेयबुद्धि लाने का प्रयास करोगे तो बन्धुओ! ध्यान रखो। 'शुद्धोपयोग' की भूमिका आपको नहीं मिलेगी और अशुभोपयोग की भूमिका छूटेगी नहीं। भक्ति शुभोपयोग हुआ करती है। लेकिन शुभोपयोग के द्वारा केवल बन्ध होता है, ऐसा नहीं है, शुभोपयोग के द्वारा संवर-निर्जरा भी होती है। सर्वप्रथम प्रवचनसार में आत्मख्याति लिखते हुए अमृतचन्द्राचार्य ने गाथा की टीका में लिखा है कि -

     

    एसा पसत्थभूदा समणाण वा पुणो घरत्थाण।

    चरिया परेति भणिदाताएव परं लहदि सोक्ख॥

    यह जो श्रावकों की अरहन्त-भक्ति, दान और पूजादि रूप प्रशस्तचर्या है, इसके द्वारा "क्रमतः परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्या मुख्यः" ये शब्द अमृतचन्द्राचार्य के हैं (प्रवचनसार २५४ टीका)। जयसेनाचार्यजी ने इसका और खुलासा किया है। सर्वप्रथम इन अध्यात्म ग्रन्थों में ‘क्रमत:' शब्द का प्रयोग किया है तो अमृतचन्द्राचार्यजी ने ही। जो (अमृतचन्द्राचार्य) क्रमत: अर्थात् परम्परा से परम निर्वाण के सुख को प्राप्त करने के लिए सराग चर्या और अरहन्त-भक्ति को कारण मानते हैं तो उसके लिए 'एकान्त से संसार का ही कारण मानना, ऐसा कह देना, आचार्य अमृतचन्द्राचार्य को दुनिया से अपरिचित कराना है।”

     

    शुद्धोपयोग के साथ कुछ भी आस्रव नहीं होता, बिल्कुल ठीक है। परन्तु शुभोपयोग के द्वारा केवल आस्रव ही होता है, ऐसा नहीं है। इसलिए तो अमृतचन्द्राचार्यजी ने ये शब्द दिये ‘क्रमत: परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्य:” और कुन्दकुन्द भगवान क्या कहते हैं ?'ताएव परं लहदि सोक्ख' अर्थात् उसी सरागचर्या के द्वारा क्रमश: निर्वाण की प्राप्ति होती है। यहाँ पर यदि मुनि कहे कि हम भी ऐसा ही करें तो आचार्य कहते हैं कि-बाबला कहीं का! तुम्हारी शोभा इसमें नहीं, तुम्हारी तो भूमिका शुद्धोपयोग की है, शान्ति से बैठ जा और आत्मा का ध्यान कर ले! तुम्हें क्रमश: नहीं 'साक्षात्' की भूमिका है। लेकिन वर्तमान में बन्धुओ! इस विवक्षा को नहीं समझोगे तो उस भक्ति को भी खो दोगे और उधर भी कुछ नहीं मिलेगा, तब कहाँ रहोगे? इस सब अवस्था को देखकर भगवान कुन्दकुन्द को कितना दु:ख होगा, अमृतचन्द्राचार्य को कितना दु:ख होगा? उन्होंने प्रयास किया लिखने में, टीका करने में और हम अर्थ निकालने वाले ऐसा अर्थ निकाल रहे हैं ? बेचारी इस भोली-भाली जनता का क्या होगा ? इसलिए आचार्यों ने टीका के ऊपर टीकाएँ, कुंजी, नोट्स ये.वी.सब कुछ लिखे हैं। लेकिन टीका की कीमत, कुंजी की कीमत, तब तक ही है जब तक मूल है। ताला ही मूल नहीं तो टीका, कुंजी का बड़ा-सा गुच्छा अपने पास रख ले तो भी कुछ (कोई भी) कीमत नहीं।

     

    आज किताब का तो अध्ययन कोई करता नहीं और कुंजियों के द्वारा पास होने वाले विद्यार्थी बहुत हैं। उन विद्यार्थियों को देखकर ऐसा लगता है कि जब ताला नहीं मिलेगा तो कुंजी का प्रयोग कहाँ करेंगे ये लोग ? उस कुंजी ‘की’ कीमत तब है जब मूल किताब में कहाँ पर क्या लिखा है, उसको देखने में ‘की’ (key) लगा दो तो ठीक है, लेकिन जब नवम्बर और अप्रैल आ जाता है उस समय कालेज के भी विद्यार्थी पढ़ाई प्रारम्भ करते हैं तो पास कैसे होंगे? की पढ़कर ही जैसे भी हो वैसे पास हो जायें, बस यही सोचते हैं। कदाचित् वे पास हो भी जाएँ लेकिन यहाँ पर ऐसा नहीं चलेगा भैय्या! यहाँ पर पूरा का पूरा प्रयास करने की आवश्यकता है। आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने अरहन्त-भक्ति में तो विशेष रूप से कमाल किया है, वे कहते हैं -

     

    न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ! विवान्तवैरे।

    तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः॥

    (स्वयम्भूस्तोत्र-१२/२)

    हे भगवन्! हम आपकी भक्ति कर रहे हैं, स्तुति कर रहे हैं और आपको स्मरण कर रहे हैं, इससे आपका कोई भी प्रयोजन नहीं है, क्योंकि आप तो वीतरागी हैं। हे भगवन्! कोई भी आकर, आपकी निन्दा करे तो आपको कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि आप वीतदेषी हैं। आपके चरणों में भक्ति कर रहा हूँ मैं, इससे आपको तो कोई लाभ-प्रयोजन नहीं किन्तु मेरा ही मतलब सिद्ध हो जाता है, कारण कि अभी तक बिगड़ा रहा, अब आज आपकी भक्ति के माध्यम से सुधर जाऊँगा, इसके लिए आप मना भी नहीं करते हैं। उन्होंने पाँच कारिकाओं के द्वारा वासुपूज्य भगवान की स्तुति करते हुए मात्र पूजा का ही वर्णन किया है। वे कहते हैं कि -

     

    पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य, सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ।

    दोषाय नालं कणिका विषस्य, न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ ॥

    (स्वयम्भूस्तोत्र-१२/३)

    हे भगवन्! आपकी स्तुति, पूजापाठ आदि करते-करते कोई श्रावक दोष का भागीदार नहीं होगा, सावद्य पूजन होने पर भी, क्योंकि पूजन के द्वारा इतना फल मिलता है-कर्मों की निर्जरा होती है कि क्या बताऊँ ? और उसके साथ-साथ यदि कुछ कर्मों का बन्ध भी हो रहा हो तो वह उसके लिए बाधक नहीं होगा, दोषकारक सिद्ध नहीं होगा। क्या उदाहरण दिया है ? समुद्र है, वह भी अमृत का, उसमें यदि विष की एक कणिका डाली जाय तो वह समुद्र को किसी भी प्रकार से विकृत नहीं बना सकती। मैं पूछना चाहता हूँ बड़ी-बड़ी सिटियों से लोग आये होंगे यहाँ पर। वहाँ पर आप सबकी दुकानें तो होंगी, भले ही घर की न हो, किराये से ले रखी हो, माल तो आपका ही होता है, मकान आपका नहीं लेकिन आप चाहते होंगे कि सागर में दुकान चकराघाट पर या तीनबती पर खुल जाए, ताकि हमारी दुकान चौबीसों घण्टे चलती रहे, ग्राहकों का तांता लगा ही रहे। लेकिन मैं पूछना चाहता हूँ कि वहाँ पर दुकान मिलेगी कैसे ? जो माँगे वह देने को तैयार है, हम दस लाख की पगड़ी देने को तैयार हैं, लेकिन मिल तो जाय कम से कम। मान लो मिल गई और धड़ाधड़ चलने भी लगी, मालामाल हो गये तो मालूम है किराया लेने वाला (मालिक) क्या कहता है कि आपको किराया और बढ़ाना होगा? तब आप कहते हैं-बढ़ाओ कोई बात नहीं, ले लो और ले लो, एक माह हुआ नहीं कि २९ तारीख के दिन ही निकाल करके रख देते हैं। आया नहीं कि दे दिया। क्योंकि गड़बड़ किया तो दुकान खाली करनी पड़ेगी, तब तो मुश्किल हो जाएगा। इसलिए सब कुछ देने को तैयार हो जाते हैं। दुकान अच्छी चल रही है। अपनी गांठ का देना होता तो थोड़े ही निकालते। जो आ रहा है, उसी में से थोड़ा-सा दे दिया। ये स्थिति होती है जिसकी निजी दुकान नहीं है, उसकी यह बात है, तब तो जिसकी दुकान भी घर की है, जिसको कुछ भी, एक पाई भी न देना पड़े, खुद का घर, खुद की दुकान, नौकर भी नहीं, सब कुछ स्वयं करते हैं तो मालामाल हो जायेंगे। देने की आवश्यकता ही नहीं, मात्र लेना ही लेना है।

     

    इसी प्रकार अरहन्त-भक्ति में, पूजा में लाभ ही लाभ है। अत: भक्ति आदिक धार्मिक कार्य 'हेयबुद्धि' से नहीं किये जाते किन्तु आचार्यों ने कहा है "परमभक्तया एव अरहन्तभत्ति कुरु" परमभक्ति के द्वारा अरहन्तभक्ति करो किन्तु उस भक्ति के द्वारा जो भी पुण्यबन्ध होता है, उस पुण्यबन्ध के उदय का जब फल मिलेगा तब उसमें आकांक्षा-रागद्वेष-हर्ष विषाद नहीं करना। पं. दौलतरामजी कहते हैं कि -

     

    पाप पुण्य फल मांहि हरख विलखो मत भाई।

    यह पुद्गल परजाय उपज विनसे थिर नाई।

    क्या कहते हैं वे ? पुण्य और पाप के फल-काल में न तो हर्ष होना चाहिए, न ही विषाद, किन्तु संसारी प्राणी का बिना इसके (हर्ष-विषाद के) चल नहीं सकता। फल के लिए जो व्यक्ति अंरहत भक्ति आदि पुण्य करता है, उसका वह पुण्य पापानुबन्धी पुण्य है और जो व्यक्ति अंरहत भक्ति आदि पुण्य संवर और निर्जरा के निमित्त करता है, कर्मक्षय के लिए करता है, वही सार्थक है।

     

    शुद्धोपयोग की भूमिका नहीं है तब क्या करूं? तो आचार्य कहते हैं कि चिन्ता मत कर बेटा! मैं कह रहा हूँ, रास्ता यही है तेरे लिए 'क्रमत: परमनिर्वाण सौख्यकारणत्वाच्च मुख्य:” इस भव में नहीं तो ना सही, किन्तु मिलेगा तो, परम आह्वाद की प्राप्ति होगी नियम से, सभी को आह्वाद पहुँचाने का प्रयास करो, जिससे व्यक्ति अरहन्त भक्ति करने लग जायेगा ऐसा प्रवचन दीजिए, ऐसा नहीं कि 'भुति की भक्ति' शुरू कर दें। 'अहन्त भक्त' बनेगा तो नियम से वह मुनि बनेगा और अपनी आत्मा में स्वस्थ होगा। यह सब यदि करना चाहते हो तो नियम से, अच्छे ढंग से अरहन्त भक्ति करना चाहिए।

     

    अरहन्त भक्ति करते-करते प्राण निकल जाये, ऐसा आचार्य समन्तभद्र और कुन्दकुन्द भगवान का कहना है। सल्लेखना के समय पर जिस व्यक्ति के मुख से अरहन्त भगवान् का नाम निकलता है, वह बहुत ही भाग्यशाली है। जिसके मुख से 'अरहन्त' नाम भी नहीं निकलता है, उसका तो कर्म ही फूट गया, खोटा है। महान् बड़भागी होते हैं वे जो जीवन पर्यन्त उपाध्याय परमेष्ठी का काम करते हैं और अन्त में भी 'णमोकार मन्त्र' दूसरों को सुनाते जाते हैं, बहुत भाग्य की बात है।' अरहन्त-सिद्ध' मुख से नहीं निकलता, किन्तु कहते हैं- 'हायरे ! जल लाओ, भीतर तो सभी कुछ जला जा रहा है।” जीवनभर समयसार भी पढ़ लो, गोम्मटसार भी रट लो, प्रवचनसार के प्रवचन भी कर लो, लेकिन जब अन्त समय प्राणपखेरु उड़ने लग जाते हैं तो अरहन्त कहते नहीं पाये जाते, ऐसे भी कई उदाहरण आगम में दिये गये हैं। ४८ मुनियों को वैय्यावृत्ति में लगाया जाता है और बार-बार कहा जाता है कि 'आपके माध्यम से हमें मार्ग मिला है' और आप कह रहे हैं कि जल लाओ, भोजन लाओ। रात तो देखो, अपनी अवस्था को भी देखो, आप किस अवस्था में हैं और यह क्या कह रहे हैं, पूर्व की याद करो, नरकों की याद करो, जहाँ ‘सिन्धु नीरतें प्यास न जाए तो पण एक न बूंद लहाय॥'

     

    यह प्यास, भूख तो अनन्तकाल से साथ दे रही है। अब तो केवली भगवान् की बात सुनिए-घबराओ नहीं, अरहन्त भक्ति को याद रखो, आज भी नियमपूर्वक, विधिपूर्वक सल्लेखना करने वाला उत्कृष्ट से २-३ भव और जघन्य से ७-८ भव में मोक्ष जाता है।

     

    पं. दौलतरामजी कहते हैं कि यदि तू मुनि नहीं बन सकता तो कम से कम श्रावक के व्रत तो पालन कर/धारण कर। दो ही धर्मों का व्याख्यान शास्त्रों में आता है-एक अनगार, दूसरा सागार। तीसरा कोई धर्म नहीं है। आप कहीं भी चले जायें दो ही धर्म मिलेंगे, दोनों में चलने को कहा है। एक बात और कहना चाहूँगा कि अमृतचन्द्राचार्यजी ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा हैआप लोग बहुत पढ़ते हैं उसको, जब भी उपदेश देओ तो सर्वप्रथम मुनि बनने का उपदेश देना बाद में श्रावक धर्म का क्योंकि सामने वाला यदि मुनि बनने की इच्छा से आया है और आप उसे गृहस्थाश्रम के योग्य धर्म का उपदेश देंगे तो दण्ड के पात्र होंगे। केवल एक धर्म का कभी भी वर्णन नहीं होना चाहिए। मात्र सम्यक दर्शन कोई धर्म नहीं है किन्तु सम्यक दर्शन-सम्यक ज्ञान और सम्यक्र चारित्र, तीनों मिलाने पर ही धर्म बनते हैं, ऐसा आचार्यों का कहना है।

     

    बन्धुओ! या तो श्रावक बनी या मुनि बनो, तीसरा कोई मार्ग नहीं है। यदि धर्म का पालन नहीं कर सकते तो, भाव तो रखो मन में कम से कम, इस प्रकार की भावना होना भी महादुर्लभ है।

     

    कृष्णजी के सामने समस्या आ गई, वे कह देते हैं प्रद्युम्न आदि सब चले जाओ, सबको हमारी तरफ से छुट्टी है मुनि बनने की, दीक्षा लेने की। बेटे ने कहा-आप भी चलेंगे पिताजी, मेरी भावना नहीं हो रही है, क्यों नहीं हो रही है पिताजी? कितने मार्के की बात है देखो, "सिद्धान्त कहता है कि जिस जीव को मनुष्यायु, तिर्यञ्चायुया नरकायुका बन्ध हो चुका है उसको कभी भी संयम लेने की भावना तक नहीं होती।" लेकिन वह सम्यग्दृष्टि है तो दूसरे को दीक्षा लेने में कभी व्यवधान नहीं डालेगा। जो व्यक्ति शिक्षा-दीक्षा का निषेध करता है वह व्यक्ति नियम से संयम के प्रतिपक्षी होने के कारण मिथ्यादृष्टि है। बन्धुओ! यह ध्यान रखो, खुद मोक्षमार्ग पर नहीं चल सकते तो कोई बात नहीं किन्तु तुम चलो बेटा, तुम चलो बेटा, तुम चले जाओ। हम बाद में आ जायेंगे, जब कभी हमारी शक्ति आ जायेगी तब, ऐसा प्रोत्साहन तो देता है। ‘मैं नहीं चल रहा हूँ इसलिए तुम कैसे आगे पहुँच सकते हो।” इस घमण्ड से दूसरों के मार्ग में बाधक का कार्य नहीं करो, 'आज मोक्षमार्ग पर कोई नहीं बढ़ सकता', ऐसा भी कभी मत कहना, क्योंकि नियमसार की एक गाथा है आचार्य कुन्दकुन्ददेव की-अनेक प्रकार के भाव होते हैं, अनेक प्रकार कर्म होते हैं, अनेक प्रकार की उपलब्धियाँ होती हैं। इसलिए आपस में इस प्रकार का संघर्ष कषाय करके ‘स्व' और ‘पर' के लिए कभी भी ऐसे बीज मत बोओ, जिसके द्वारा विष फल खाना पड़े और नरक-निगोद आदि गतियों में जाना पड़े।

     

    दिव्यध्वनि में भगवान् ने दो ही धर्मों का वर्णन किया है और सम्यक दर्शन के साथ दोनों धर्म हुआ करते हैं। इनमें से एक परम्परा से मुक्ति का कारण है और एक साक्षात्। मुनिधर्म साक्षात् मुक्ति का कारण है और श्रावकधर्म परम्परा से, परन्तु आज तो दोनों ही धर्म परम्परा से हैं क्योंकि आज साक्षात् केवलज्ञान नहीं होगा। इसलिए इस सत्य को, इस तथ्य को सही-सही समझ करके अपने मार्ग को आगे तक प्रशस्त करने का ध्यान रखिए क्योंकि -

     

    ज्ञान ही दु:ख का मूल है, ज्ञान ही भव का कूल।

    राग सहित प्रतिकूल है, राग रहित अनुकूल॥

    चुन-चुन इनमें उचित को, मत चुन अनुचित भूल।

    सब शास्त्रों का सार है, समता बिन सब धूल।


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