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वतन की उड़ान: इतिहास से सीखेंगे, भविष्य संवारेंगे - ओपन बुक प्रतियोगिता ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आदर्शों के आदर्श 9 - गुरुओं के गुरु आचार्य शांतिसागर

       (1 review)

     (चारित्र चक्रवतीं आचार्य श्री १०८ शान्तिसागर जी महाराज की ८२ वीं पुण्य तिथि पर परम पूज्य आचार्य प्रवर श्री विद्यासागरजी महाराज का उपदेश)

     

    आचार्य समन्तभद्र महाराज ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में श्रावकों को जागृति देने के लिए सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का वर्णन किया है। आज समन्तभद्र महाराज हैं जो सिंह गर्जना के साथ काम करते हैं क्योंकि वहाँ पर किसी प्रकार की लचकदार बात समझ में नहीं आती। जो व्यक्ति सच्चे देव शास्त्र गुरु की उपासना करता है वही व्यक्ति सम्यक दर्शन का पात्र है। लेकिन उनके सम्यक दर्शन के बारे में प्रश्न चिह्न (?) लगता है। जो भय के कारण, कषाय के कारण अन्य कोई बात कर देता है तो उसके लिये कहा जाता है कि सम्यक दर्शन रूपी दिव्य रत्न का लाभ उस व्यक्ति के लिये नहीं होता।

     

    मोक्षमार्ग भयभीत व्यक्तियों को नहीं होता, मोक्षमार्ग लोभ लालच के साथ नहीं चलता, मोक्षमार्ग कषायों के साथ सम्बन्ध नहीं रखता, मोक्षमार्ग तो एक निभीक और निरीह व्यक्ति के लिए ही कल्याणकारी है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के ऊपर श्रद्धान करने वाला सम्यक दर्शन का पात्र होता है। विषयों से और कषायों से ऊपर उठना पहले अनिवार्य है। भले ही उस मोक्षमार्ग के ऊपर विश्वास रखने वाला विषयी हो सकता है, कषाय करने वाला हो सकता लेकिन जिसके ऊपर विश्वास रखा जा रहा है वह कषाय से रहित होना चाहिए नहीं तो मोक्षमार्ग सुरक्षित नहीं रह सकता। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने कहा है कि जिसके ऊपर श्रद्धान किया जाता है वह गुरु कैसा होना चाहिए ?

     

    विषयाशावशातीतो निरारम्भो परिग्रहः।

    ज्ञान-ध्यानतपो-रक्तस्तपस्वी सः प्रशस्यते॥

    (रत्नकरण्डक श्रावकाचार-१०)

    जो व्यक्ति मोक्षमार्ग में आरूढ़ होने के उपरान्त पक्ष व्यामोह को नहीं छोड़ सकता तो उस व्यक्ति ने मोक्षमार्ग को अपनाया ही नहीं ये ज्ञात होता है। इसलिए आ. समन्तभद्र महाराज की आचार्य शान्तिसागर जी महाराज ऐसे ही गुरु थे। पंथ व्यामोही उनको अपने ढंग से उनकी चर्या को प्रस्तुत करते हैं यह गलत बात है। ज्ञानसागरजी महाराज ने एक बार शान्तिसागरजी महाराज का एक संस्मरण सुनाया था, उसको ज्यों का त्यों आपके सामने हम प्रस्तुत कर देते हैं। राजस्थान में अजमेर जिलान्तर्गत ब्यावर एक उपनगर है। महाराज जी की समाधि के बाद हमारा प्रथम चातुर्मास वहीं पर हुआ था वहाँ की ये बात है।

     

    वहाँ पर दो नसियाँ हैं। एक बड़ी नसियाँ मानी जाती है, उस नशियां में दोनों शान्तिसागरजी महाराजों का चातुर्मास हो रहा था। एक छाणी के शान्तिसागर महाराज जी के नाम से विख्यात थे और दूसरे दक्षिण के शान्तिसागर जी के नाम से प्रसिद्ध थे जिनकी आज पुण्यतिथि मनाई जाती है। जनता बहुत बावली है। जनता को हमेशा इतिहास का सही-सही ज्ञान कर लेना चाहिए। इतिहास का ज्ञान जिसको सही नहीं होता वह निश्चत रूप से पक्षपात रूपी अन्धकार में भटक जाता है और इस प्रकार का पक्षपात उसके लिये वह अभिशाप ही सिद्ध हो जाता है। उसके द्वारा बहुत प्रकार की भ्रान्तियाँ भी फैल सकती हैं तो जब ये (उस ज्ञानसागर जी) ब्रह्मचारी अवस्था में गये थे, भूरामल नाम इनका प्रसिद्ध था। वाणी भूषण कवि भूरामलजी पहुँचे। वहाँ पर। गाँधीजी की ड्रेस में और उनके उस सान्निध्य में ७-८ दिन का सौभाग्य प्राप्त किया। दो शान्तिसागर महाराज को देख करके भूरामलजी प्रभावित हो गये थे। पंडित भूरामलजी साहित्य के सर्जक थे। अपनी जिनवाणी की सेवा करते हुए गूढ़ रहस्य को समझते हुए आबाल गोपाल को साहित्य के माध्यम से जैन दर्शन क्या है? इसको समझाने का, दिखाने का प्रयास इनके मन में हमेशा बना रहा। साहित्य एक ऐसी वस्तु है जिसके माध्यम से हम मुनि कौन होते है? वीतरागता क्या होती है? यह सब ज्ञात हो जाता है। साहित्य वह पदार्थ है जिसके माध्यम से देव-गुरु-शास्त्र का स्वरूप यथार्थ के रूप में समाज के सामने रखा जाता है। मुनि-महाराजों के साहित्य की सेवा करनी चाहिए, हमेशा वो कहा करते थे।

     

    जब पं. भूरामलजी ने देखा उभय शांतिसागर महाराज जी को, उनकी मुद्रा को। यह भी शान्त लग रहे हैं और यह भी शान्त लग रहे हैं। इनको देखते हैं तो इनसे शान्त ये लगते हैं। दोनों शान्तिसागर जी महाराजों को वहाँ के लोगों ने परिचय कराया। दोनों महाराजों ने पं. भूरामल की विद्वता के बारे में पहले से ही सुन रखा था कि इन्होंने महाकाव्यों का सृजन किया है। भूरि-भूरि प्रशंसा हुई उनकी। महाराजों ने कहा कि इतना कठिन साहित्य का सृजन कठिन साधना के माध्यम से आपने कैसे किस ढंग से इसका सम्पादन किया? आदि बातें/चर्चायें हुई। उन आठ दिनों में उन्होंने मुनि चर्या के बारे में बातें जो सुनी/देखी तो कई शंकाएँ दूर हो गई। कई लोग जो शान्तिसागर जी के सम्बन्ध में कहते थे वे पंथ व्यामोह वाले हैं, भूरामलजी ने उनकी चर्या में नहीं देखी। यानि जिस प्रकार की चर्चाएँ होती हैं वे निराधार होती हैं। चर्चा करने वाले व्यक्ति हमेशा-हमेशा बीच में उसको क्या बोलते हैं नमक मिर्च मिलाकर कहते हैं। जिसको बोलना चाहिए, ये तो निश्चत बात है कि नमक मिर्च लगाने से स्वादिष्ट लगता है इसको बघार भी बोलते हैं। लेकिन कभी-कभी ज्यादा बघार के कारण बिगड़ भी जाता है, बिगाड़ देता है, जला हुआ हो जाता है। कोई भी पक्षपात नहीं, कोई भी आग्रह, पंथ व्यामोह नहीं था। ऐसी परम्परा को देखकर जो धारणा बना रखी थी वह सबसे पहले उन्होंने समाप्त कर दी और चर्चा के माध्यम से साहित्य चर्चा, सिद्धान्त चर्चा, अध्यात्म चर्चा के माध्यम से जितने दिन वहाँ व्यतीत किये वे भूरामल जी के लिए स्मरणीय रहे। पंथ व्यामोही श्रावक, हमारे गुरु- हमारे गुरु कह-कह कर गुरु के व्यक्तित्व को संकीर्ण बना देते हैं। हमारे क्या ये तो विश्व के गुरु हुआ करते हैं। पंथ व्यामोही गुरु दुनियाँ के प्राणी मात्र का कल्याण नहीं कर सकता। वह तो अपने पंथ के व्यामोहियों के व्यामोह में जकड़ कर कूप मंडूक बन जाता है। शान्तिसागर महाराज के नाम से पंथ के बारे में प्रचार-प्रसार वर्तमान में चलता है यह वस्तुत: गलत है। गुरु महाराज से सुनने के उपरांत किसी के सामने हम कह सकते हैं, प्रथम बार मैं कह रहा हूँ कि दोनों प्रकार के शान्तिसागर जी महाराज को देखने से दिगम्बरत्व का सच्चा स्वरूप पता चला। आज ये कम से कम भी ४०-४५ वर्ष पूर्व की बात हो गई कम से कम कह रहा हूँ उस समय की ये बात है। दोनों आचार्य ने कहा कि पंथ व्यामोहता श्रावकों की व्यामोहता है, आगम की नहीं। उत्तर-दक्षिण में हम भटक जाते हैं। हमें गुणों की अपेक्षा से परिचय प्राप्त कर लेना चाहिए। कुन्दकुन्द देव ने प्रवचनसार में देव-गुरु-शास्त्र के बारे में पहचान का अर्थ क्षेत्र से नहीं बताया, कुल से नहीं बताया, जाति से नहीं बताया, वंश से नहीं बताया, बताया है मूलगुणों के माध्यम से। गुण सुरक्षित रहेंगे तो हमारे देव-गुरु-शास्त्र सुरक्षित रहेंगे, वो यदि सुरक्षित नहीं रहेंगे तो केवल नाम शेष मात्र रहेगा। जिनदर्शन का मूल उद्देश्य सिद्धान्त है गुणों की उपासना करना और गुणी व्यक्तियों को पैदा कर देना जिसके माध्यम से गुणियों की पहचान समाप्त न हो जाय।

     

    आचार्य शान्तिसागरजी महाराज को जिस पंथ के बारे में सोचा जाता है, मैं समझता हूँ यह अभिशाप का ही एक प्रतीक है। महाराज जी में यह तिल-तुष मात्र भी नहीं था। महाराज जी को मैं मानता हूँ और आप किस रूप में मानते हैं यह भी मैं जानता हूँ। मेरे वचन आप लोग के किये कटु लग सकते हैं लेकिन मैं गुणों की उपासना करना ही श्रेष्ठतर समझता हूँ क्योंकि मैं आचार्य ज्ञानसागर जी का शिष्य हूँ ये ध्यान रखना! और उन्होंने ये ही कहा कि गुण जब तक रहेंगे तब तक जैन धर्म रहेगा, जिस दिन गुण समाप्त हो जायेंगे जैन धर्म का नाम नहीं रहेगा। ये पवित्र धर्म गुणों के ऊपर आधारित है और गुण बाजार में खरीदे नहीं जा सकते। गुणों को पैदा करना होगा आत्मा में और गुणों के लिये साधना की आवश्यकता होती है और गुण किसी व्यक्ति के चिपकने से नहीं हो सकते। गुण के लिये द्रव्य की ओर उस स्वरूप की ओर देखना पड़ता है तब कहीं वह जाकर के सामने आता है। आज समाज के बीच में ३०-४० वर्ष से मैंने भी कुछ देखने का प्रयास किया वस्तुत: समाज, एक भोली समाज जिसे कहना चाहिए, स्वाध्याय की हीनता होने से इस स्वरूप तक नहीं पहुँचती और परिणाम स्वरूप जो आदर्श है उन आदशों के ऊपर धूल फेंकने का प्रयास करती रहती है। ध्यान रखना यदि दर्पण के ऊपर धूल चिपक जाये तो न ही दर्पण की पहचान होगी, न ही दर्पण में अपना मुँह दिखेगा।

     

    हमें अपने स्वरूप की पहचान के लिये सर्वप्रथम उस आदर्श को आदर्श के रूप में रखने का प्रयास करना चाहिए। दोनों शांतिसागर जी महाराज के बारे में जब बातें सुनीं तब ऐसा लगा और गुरु महाराज से ऐसी बात सुनीं और गुरु महाराज ने ऐसी बात कहीं तो इस बात को अवश्य रखना चाहिए समाज के सामने। जो वर्तमान में परम्परा कहकर एक अन्धकार फैलाया जा रहा है उसको निश्चत रूप से दूर किया जा सकता है लेकिन मैं इसके बारे में ज्यादा नहीं कहना चाहता है।

     

    (History of Achary Shanti Sagar Jee)  क्या है, ये जानने का प्रयास करना चाहिए।

    दूसरा एक संस्मरण जो संस्मरण के रूप में नहीं किन्तु श्रमण के जीवन परिचय से मिला। आ. शान्तिसागर जी अपने संघ के साथ उस व्यक्तित्व के पास गये। कालान्तर में शान्तिसागर जी महाराज को भी उन जैसा बनना था, पद प्राप्त करना था। एक संन्यस्त महाराज हैं जिनकी दक्षिण में समाधि हुई है। एक लेख जो पढ़ा था, जो ५० वर्ष पूर्व का लेख हो सकता। लेख से क्या है? कैसा है? यह मैं नहीं जानता। लेकिन शान्तिसागरजी महाराज वहाँ पर उपस्थित अवश्य थे और उनका फोटो भी अपने सामने आता है। आचार्य शान्तिसागरजी शान्त मुद्रा में उस व्यक्ति को देख रहे हैं, दर्शन कर रहे हैं और जो उनकी साधना सल्लेखना की चल रही है, उसको वे सराह रहे हैं। सुना उसमें जो पढ़ा। ये वे व्यक्ति संन्यस्त थे, जो प्राय: करके गुफा में रहते थे। एक एन. उपाध्ये के बारे में भी एक लेख पढ़ा जो सम्भव है, उन्हीं का हो सकता है। महाराज कम से कम सात दिन में एक बार आहार के लिए उठते थे। इस लेख के अनुसार तो ये ज्ञात होता है और अन्त में जब उन्होंने सल्लेखना ले ली तो एक साथ सर्वविध भुति का त्याग कर दिया। कई लोगों ने इसके बारे में टीका टिप्पणी प्रारम्भ कर दी, एक साथ कैसे त्याग कर दिया? जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में ८ या ९ दिन में आहार लेने की साधना की है उस व्यक्ति की युक्ति के बारे में आपकी टीका टिप्पणी वह कानों तक ही नहीं ले जायेगी। उस आदर्श मूर्ति के सामने जाकर आचार्य शान्तिसागरजी महाराज अपने संघ सहित बैठे हैं। उसका शायद चित्र भी हमने देखा होगा, चित्र भी है संभव है। उस चित्र की गवेषणा कर लेनी चाहिए। कौन बड़ा? यहाँ पर कौन छोटा? इसको अपने मस्तिष्क से निकाल दीजिए और यदि आप नहीं निकालते तो ध्यान रखना आप सही मायने में आचार्य शान्तिसागरजी महाराज को नहीं जानते हैं। बीच के व्यक्तियों की बात सुनना नहीं चाहिए। जो शान्तिसागरजी महाराज पहले स्वीकार कर रहे हैं उस बात को पहले समझने का प्रयास करना चाहिए। गुफाओं में रहने वाले वे मुनि महाराज, वे कौन हैं? नाम से ही तो गड़बड़ हो जाता है लेकिन शान्तिसागर महाराज जी उनके पास गये उस आदर्श को देखे, फोटो सामने है। क्यों गये शांतिसागर महाराज जी? सोचने की बात है। इसलिए गये, जिसने अपने जीवन काल में इस प्रकार की कठिन तपस्या करके अंत में

     

    अन्त:क्रियाधिकरणं, तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते।

    तस्माद्यावद्विभवं, समाधिमरणे प्रयतितव्यम्॥१२३॥

    (रत्नकरण्डक श्रावकाचार)

    और मुनिपन की बात तो करते हैं और उस सल्लेखना के प्रति कितनी रुचि साधकों की है। वह रिजल्ट सामने आ रहा है। कौन-कौन उसके लिये समर्पित है? आचार्य समन्तभद्र स्वामी जयघोष के साथ कहते हैं मुझे सब मालूम है कि तुम्हारा तप कितना है? तप का फल 'सल्लेखना'! उसमें जो पास होता है, वही तप में पास, बाकी सब ठीकठाक है। इसलिए तप करते हुए सल्लेखना को ध्रुव के रूप में, आदर्श के रूप में सामने रखिये। जब वहाँ सल्लेखना के बारे में देखा, जाना, पहचाना, पूछा और अनुमान लगाया होगा कि हमारे लिये क्या होगा? जिन्होंने दस-दस उपवास करने के साथ आहार करने का अभ्यास किया। आप यदि संकल्प लेकर के करें तो कितना कर सकते हैं, जिसका अनुमान आप लगा सकते हैं। आप लोग अष्टमी के दिन एक उपवास करते हो तो एक महीने पहले सोचना पड़ता है। महाराज शान्तिसागर जी का नाम लेने से काम नहीं चलेगा। वह आदर्श जिनके जीवन में था, उनके सामने बैठे। लोगों की टीका टिप्पणी सुनकर के ऐसा लगा क्या बात हो गई आचार्य शान्तिसागरजी महाराज देखने के लिये गये हैं। आप उस व्यक्ति के बारे में क्या सोच रहे हैं? जो गुरु महाराज अपनी परीक्षा के बारे में सोच रहे हैं- मुझे क्या करना है? और आप लोग क्या सोच रहे हो? आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के बारे में। ये सब गलत है। समाज में आज परम्पराओं को लेकर आचार्य पद को लेकर के जो इन दिनों में पत्र पत्रिकाओं में पुस्तकपुस्तिकाओं में टीका-टिप्पणी आलोचनाएँ यहाँ तक कि कोर्ट कचहरी तक हो गई। ये बहुत शर्म की बात है।

     

    समाज को इसके बारे में शान्ति रखना चाहिए। आचार्य शान्तिसागरजी की बात करते हो और अशान्ति फैलाते हो। उनकी जीवन चर्या का अध्ययन करने का प्रयास कर लेना चाहिए। पक्षपात से ऊपर उठोगे तभी मुनि की चर्या के बारे में आप सोच सकोगे, पहचान सकोगे और उनसे कुछ प्राप्त कर सकोगे नहीं तो दोनों कर खाली रखोगे। ये ध्यान रखना ये शान्तिसागर महाराजजी जब उनकी चर्या से प्रभावित हुए, क्यों हुए? "अन्त: क्रियाधिकरण तप: फल" मुझे भी सल्लेखना लेना है, क्या साधना है, उस सल्लेखना के समय पर ज्ञात हो जायेगा। इस प्रकार का एक आदर्श उनके सामने था। आ. शान्तिसागर जी के समय पर दूसरे शान्तिसागरजी थे, ये कई लोगों को ज्ञात नहीं होगा और जो ब्यावर में चातुर्मास इनका मिलकर के हुआ, आप ही बताओ यदि शान्तिसागरजी एक किसी पंथ को रखने वाले होते तो दोनों कैसे मिल करके एक ही जगह चातुर्मास करते?

     

    हमारा भी उसी नसियाँ जी में चातुर्मास हुआ था। एक दिन भी वहाँ पर किसी पंथवाद को लेकर के चर्चा आदि नहीं हुई। वर्तमान में आचार्य शान्तिसागरजी महाराज को लेकर के जो बातें आ गई हैं, वे वस्तुत: शान्तिसागरजी से परे लगती है। भले वह बुरी लगती होंगी वर्तमान के युग को लेकिन इन बातों से तो ये जाहिर हो जाता है। उसको सुधारने का प्रयास करना चाहिए। मेरा कोई आग्रह नहीं, लेकिन सही बात कहने से चूकना नहीं चाहिए। जब आपने बिठा ही दिया इस बात को सुनाने के लिये तो अच्छी तरह सुन लेना चाहिए और आचार्य शान्तिसागर जी कौन थे इसके बारे में सोच लेना चाहिए। अभिरुचि होना प्रत्येक साधु के लिये सहज होना चाहिए। जोश नहीं होना चाहिए रुचि होना चाहिए और रुचि पहले से ही होनी चाहिए और पहले से ही रुचि होगी तो अन्त में उसको सफलता मिल सकती है। मिले भी यह कोई नियम नहीं है। भगवती आराधना में एक प्रसंग है- जो व्यक्ति अपने जीवनकाल में सल्लेखना कर रहा है। उसके पास जाता है आस्था करके, देखकर के अपने साधना की तुलना करता है। उसमें योगदान देता है, सल्लेखना में क्षपक के लिये वैय्यावृत्ति आदि करता है। भगवती आराधना में उल्लेख मिलता है कि उसकी भी सल्लेखना निश्चत होती है क्योंकि जो जिसको चाहता उसके बारे में अभी से सार निकाल रहा हो तो उसको भी वह मिल सकता है किन्तु ये बिना रुचि के सम्भव नहीं, बिना साधना के सम्भव नहीं, बिना निष्ठा के सम्भव नहीं। मुझे भी ऐसा लगा एक साथ भक्त-प्रत्याख्यान कर दिया। ये क्रम कैसे रखा। लेकिन उसके साथ में जब नीचे की पंक्ति पढ़ी तो ज्ञात हुआ जो ८-९ उपवास Minimum एक ही वस्तु लेते थे, ये बात तो अलग ही है। ८-९ उपवास Minimum इसी बात को लेकर के आचार्य शांतिसागरजी उनके पास गये और देखा कैसे हैं? वहाँ पर जाकर देखा जिसके ६,७, ८, ९ उपवास हमेशा चलते रहते हैं, उनके भक्त प्रत्याख्यान तो पहले से किया हुआ लगता है। जो एक ही भोजन लेते हैं तो उसके लिये क्या त्याग करना? उसके लिए क्या बार-बार त्याग करवाना और त्याग बारबार करवाने के उपरान्त भी आप लोगों को याद आ जाती है। अपनी भावना से त्याग करने की भी भावना नहीं होती इसलिए त्याग करवाना पड़ता है। ऐसे भी आदर्श होते हैं जो पहले से ही त्याग। इतना त्याग? "त्याग के बिना मुनि की शोभा नहीं होती। सिंह वृत्ति के बिना मुनि का जीवन नहीं है।"  दूसरों के कहने में जो मुनि महाराज आ जाते हैं उनके जीवन की शोभा नहीं है। जो असंयमी मुनियों के लिये कुछ कहना चाहते तो वह संयम मार्गणा में क्या समझता है? और वे मुनि महाराज कैसे जो असंयमी की बात मान रहे हैं? दोनों बातें सोचनीय होती हैं। इतिहास के पढ़ने से पता चलता है कि मुनि महाराजों में सिंह वृत्ति के दर्शन होते हैं। जो सिंह गर्जना से कम नहीं है। वो सिंह भी उन्हीं के चरणों में बैठ जाते हैं। उनके चरणों में नहीं बैठते, जो गुस्सा करता है। उनके चरणों में बैठते हैं जो शान्त स्वभावी होते हैं। वहाँ आकर के "उपल खाज खुजावते ।" वाली बात घटित हो जाती है।

    निन्दा करे स्तुति करे तलवार मारें या मणिमयी आरती सहसा उतारें।

    साधु तथापि मन में समभाव धारे, वैरी सहोदर जिन्हें इक सार सारे।

    ऐसी कुछ पंक्तियाँ हैं जो कि ब्याज में ही लिखी गई थी। इसमें कुछ सन्देह नहीं है वो फोटो भी आज दिखती है। उभय शान्तिसागरजी महाराज के उस संघ में आर्यिका नहीं, कोई बह्मचारिणी नहीं, कुछ भी नहीं। आज भी फोटो देखना हो तो देख सकते हैं। आचार्य शान्तिसागरजी की क्या परम्परा थी? इसका दर्शन करना हो तो ब्यावर चातुर्मास से अवगत कर लेना चाहिए। जो जैसा है उसको वैसा ही स्वीकार करना, वैसा ही कहना, उसका वैसा ही प्रस्तुतिकरण करें। जो जैसा है वैसा ही उसके ऊपर श्रद्धा करें इसी का नाम सम्यक दर्शन होता है। यदि आदर्श को अन्यथा रूप से अपनी पंथगत धारणाओं के अनुकूल बताकर दुनियाँ के सामने रखेंगे तो लोगों का उस आदर्श के प्रति भी अनास्था भाव हो जायेगा। आपके दोष आदर्श को दोषी बना देंगे। इसलिए आदर्श को आदर्श के रूप में ही रखना चाहिए अन्यथा उनके प्रति अनास्था भाव बहुत जल्दी आ जायेगा वैसे ही आस्था जमाना मुश्किल हो रहा है और उसमें थोड़ी सी गड़बड़ी हम बता देंगे तो अनास्था भाव उसके हो ही जायेंगे। वह सोचेगा ये ऐसे तो वो ऐसे कैसे? इसलिए आचार्य शान्तिसागर महाराज ने जिस जमाने में अपनी कठिन साधना को अपनाया, उसको अन्त तक निभाया उन्होंने। जीवन के बारे में क्या कहा जाये क्योंकि हमेशा-हमेशा वे साधना प्रिय थे।

     

    जिस समय वे थे उस समय रेडियो शायद ही होगा, उस समय टेलीफोन बगैरह बहुत कम काम करते थे। टेपरिकार्ड का प्रचलन कम था। पण्डित जी के मुख से सुना था, जब सम्मेदशिखर जी में संघ गया था तब महाराज जी का दर्शन करने सारा का सारा बिहार प्रान्त ही वहाँ पर आया हुआ था। प्रवचन सभा में जनता ज्यादा हो गई। माइक तो थे ही नहीं उस समय तो क्या करें? तो चारों कोनों में चार महाराजों को भी बिठा दिया। अलग-अलग कोनों की जनता ने अलग-अलग महाराजों से प्रवचन सुना। आज १० व्यक्ति होते हैं तो पहले माइक की आवश्यकता होती है, इतना अन्तर हो गया इस समय और उस समय में। ये प्रभावना का काल आ गया और वो भावना का काल था। प्रदर्शन के अलावा आज कुछ नहीं रहा। सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक्र चारित्र रूप स्नत्रय अलग वस्तु होती है और बाहरी क्रियायें अलग वस्तु होती हैं। क्रियाओं के माध्यम से परम्परा को निर्धारित करना यह एक प्रकार से इतिहास को नहीं जानने का प्रयास करना है अथवा आचार संहिता को भुलाने का प्रयास करना है।

     

    क्रियाओं के माध्यम से नहीं चलता धर्म। आगम ग्रन्थों में कहा गया है कि भिन्न-भिन्न देश की भिन्न-भिन्न क्रियाएँ हैं। लेकिन २८ मूलगुणों की प्रक्रियाएँ क्या भिन्न-भिन्न हैं? इसके बारे में सोच लेना चाहिए। ये मूलाचार का सिद्धान्त माना जाता है। एक संघ दूसरे संघ से मिल जाते हैं उस समय पता चल जाता है। इनकी और उनकी क्रियाओं में कितना अंतर है। आज शांतिसागर जी का नाम लिया जाता है, उनको अपनी क्रियाओं में शामिल करके परम्परा की दुहाई दी जाती है। जो शान्तिसागर की परम्परा थी, उसको भुला दिया और अपनी परम्परा को शान्तिसागर की परम्परा बताकर गुमराह किया जा रहा है। यह आचार्य शान्तिसागरजी की परम्परा नहीं मानी जा सकती। अखबार बाजी को महत्व देना ठीक नहीं। प्रत्येक व्यक्ति से ये हम सुनते रहते हैं और आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के बारे में क्या कहा जाये आदर्श क्या है? अभी ये आपके सामने नहीं रखा। आपको देखने, जानने, मनन करने का इशारा किया है। आप लोग उस आदर्श मूर्ति को आदर्शमय रखने का प्रयास करेंगे। आज से दक्षिण और उत्तर, वो और इस प्रकार के भेदभाव किये बिना २८ मूलगुणों की उपासना करने वाले उन आदर्श मूर्तियों के बारे में आस्था करने का प्रयास करना चाहिए।

     

    एक बात अन्त में और कह देता हूँ। आचार्य ज्ञानसागर महाराजजी ने दूसरा एक संस्मरण (ब्यावर) सुनाया था। उनके सामने हुआ था घटित। आचार्य शान्तिसागर महाराज जी बैठे थे और चरणों में जाकर के एक पंथ व्यामोही व्यक्ति गया, वह व्यक्ति महाराज के चरणों के ऊपर दो फूल गुलाब के रखने लगा। महाराज जी ने तात्कालिक कहा ये क्या कर रहे हो तुम? महाराज ये पूजन सामग्री है, मैं तो चढ़ाऊँगा। कैसे कर रहे हो? तुम तो समझदार हो। महाराज! इससे आपको क्या मतलब, ये तो हमारा कार्य है, हम भगवान् के चरणों में भी चढ़ाते हैं। भगवान् के चरण और आपके चरण एक ही तो बात हैं। महाराज ने कहा-गलत बात है। जो बात शास्त्र में नहीं उसे क्यों करना चाहते हो। चरणों के ऊपर क्यों चढ़ाते हो? नीचे पाटे पर चढ़ाओ। प्रतिमा पर भी नहीं चढ़ाना चाहिए जो भी द्रव्य चढ़ाना है उसे वेदी पर चढ़ाना चाहिए। यह आचार्य शान्तिसागरजी ने जवाब दिया था और एक महान् विद्वान के लिए जबाब दिया था। इसकी चर्चा आज कहीं भी नहीं की जाती। इसका अर्थ आचार्य शान्तिसागरजी को पंथवाद में डालना चाहते हैं आप लोग? उनके जीवन का अध्ययन करने का प्रयास कीजिये।

     

    आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के बारे में, दया के बारे में क्या धारणा आप लोगों की है, यह सब ज्ञात होता चला जा रहा है। कहाँ उनकी दया दृष्टि और कहाँ तो तुम लोगों की पंथ-दृष्टि। उन्होंने कभी किसी पंथ का समर्थन नहीं किया। उन्होंने केवल अपने आगम के माध्यम से अपनी चर्या निभाने का प्रयास किया। ये बात अलग है कि कुछ क्रियाएँ उनके पास अलग हो सकती हैं, उस जमाने में जो मुनियों के पास होती थीं। इसका अर्थ ये नहीं है कि वे किसी पंथ के थे। मैं उनको किसी पंथ से बाँधना नहीं चाहता। इसलिए मैं आप लोगों के सामने ज्यादा कहना अब पसंद नहीं करता क्योंकि आप लोगों को ये सुनकर लगेगा कि महाराज जी ये ठीक नहीं कह रहे हैं। आपके लिये भले ही ठीक नहीं हो सकती। मैं आपकी मानसिकता के बारे में कुछ ज्यादा कहना नहीं चाहता लेकिन मैं यह कहना चाहता हूँकि आपको जब यह बात सही लगेगी तभी आ शान्तिसागर जी की पहचान सही होगी।

     

    कई बातें हैं जो आज एक दिन में कही नहीं जा सकी। समय पर इसका उद्धाटन अवश्य हो सकता है। लेकिन शास्त्र, आगम प्रमाण और महाराज जी की साधना के साथ ही कही जा सकती है। उनके जीवन में उन्होंने जो संघर्ष किये उसके लिये कौन-कौन निमित्त हुए? क्या-क्या हुए? इसके लिये भी यह इतिहास उस बात का साक्षी है।

     

    आप लोगों को सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की उपासना करना चाहिए तभी आपका सम्यक दर्शन सुरक्षित रह सकता है। किसी एक व्यक्ति की पूजा जैन धर्म स्वीकार नहीं करता। व्यक्तित्व होना चाहिए और वह व्यक्तित्व पर्सनल्टी नहीं होती है। वह व्यक्तित्व गुणों की उपासना करने के फलस्वरूप प्राप्त होता है। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने हमारे लिये जो कृपा की, आशीर्वाद दिया, दिशाबोध दिया, उसके माध्यम से इस साधना का मर्म क्या है? समझने का और सोचने का और उस तक चलने का हमें सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

     

    आचार्य शान्तिसागर जी के बारे में आचार्य ज्ञानसागर जी पूर्ण विदित थे, परिचित थे, और वे कहते नहीं थे क्योंकि उनकी बात जो समझता नहीं उनके सामने कहने से उसका कोई महत्व नहीं होता। आप लोग सुनने के लिये बैठे इसलिए हमने कहा। हमारी तरफ से कोई यह इरादा नहीं मैं सुना दूँबुला-बुला करके क्योंकि रुचि के बिना सुनाना भी गलत होता है, ये एक नीति भी है। इसका अर्थ नहीं कि मैं आचार्य शान्तिसागरजी के बारे में कुछ नहीं कह सकता या जानता नहीं हूँ लेकिन मैं इसलिए नहीं कहता हूँकि सुनने की भी एक पात्रता होनी चाहिए और उसको समझने का भी एक साहस होना चाहिए और जो येन-केन-प्रकारेण ग्रहण कर लिया है उनके बारे में उसको तिलाञ्जलि देने का भी एक साहस होना चाहिए।

     

    उसी व्यक्ति के लिये ये रामबाण सिद्ध हो सकते हैं नहीं तो ये रावण बाण भी सिद्ध हो सकते हैं क्योंकि जिस व्यक्ति की जिस प्रकार की धारणा रहती है उसी के अनुसार अर्थ निकालता रहता है। अर्थ अपने दिमाग से नहीं निकाला जा सकता, प्रसंग के अनुसार ही अर्थ निकाला जा सकता है और निकालना भी चाहिए। ऐसे गम्भीर व्यक्तित्व के बारे में, ऐसे महान् साधक के बारे में जो वर्तमान में, परम्परागत जिसको बोलना चाहिए, आस्थाएँ बन चुकी हैं, वह वस्तुत: आस्थाएँ साधार नहीं है। इस प्रकार कहने में हमें कोई बाधा नहीं होती है। ऐसे साधक की सिद्ध गति जल्दी-जल्दी हो ऐसी भावना है। आचार्य शान्तिसागरजी महाराज की साधना को नहीं कहना चाहते हैं बल्कि पण्डित एवं कुछ साधु गण उनको पंथवाद में घसीटना चाहते हैं। उनके अन्तिम क्षणों में उन्होंने किस ढंग से साधना की थी, उसके बारे में समाज अवगत है। कुछ लिखा हुआ भी है, उसको आप पढ़िये, समझ लीजिये, जान लीजिये। उन्होंने दीर्घ साधना की थी उसको समझ करके आस्था का विषय बनाने का प्रयास कर लीजिये।


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