घी का दीपक मंगल का प्रतीक है, घी के दीपक से आँख की ज्योति बढ़ती है। घी के बिना हम भोजन कर सकते हैं लेकिन घी के जले बिना हम प्रकाश प्राप्त नहीं कर सकते, जीवन को भोजन नहीं प्रकाश चाहिए। विदेश में घी नहीं है इसलिए वहाँ आरती भी नहीं है, विदेश में दूध है, मक्खन है, दही है, मलाई है, लेकिन घी नहीं, घी भारत की पहचान है। अत: वह घी की मूल प्रदाता गाय की रक्षा करना आज का हमारा प्रथम कर्तव्य है। हमको घी की नहीं गाय की रक्षा करना है। गाय की रक्षा होने पर घी की रक्षा स्वयं हो जावेगी।
घी का दीपक जलता है लेकिन उसके जलने से दूसरों को प्रकाश मिलता है। तुम जलना प्रारंभ कर दो, जलाना नहीं, तुम मिटोगे नहीं, मरोगे नहीं, तुम समाप्त नहीं होगे। तुम जलोगे, दूसरों को प्रकाश मिलेगा, तुम जलाओगे स्वयं मिट जाओगे। आज हम दूसरों को जला रहे है, हिंसा से बढ़कर और कौन सी आग हो सकती है? भारत ने कितने कत्लखाने खोल लिये, इन कत्लखानों में प्रतिदिन कितना खून हो रहा है, कितनी गायें कट रही हैं, मांस का निर्यात हो रहा है सरकार विदेशी मुद्रा की लालच में अपनी पशु सम्पदा का विनाश कर रही है। इन पशुओं के कटने से प्रकृति असन्तुलित हो रही है, प्रकृति के प्रकोप बढ़ रहे हैं, लेकिन हमने अपने स्वार्थ के लिये यह सब अनदेखा कर दिया है, मात्र अर्थ के लिए हम अपनी प्रकृति का विनाश कर रहे हैं, परमार्थ की हमने अथीं निकाल दी। जिस परमार्थ के लिये यह जीवन था उसी परमार्थ की आज अथों बन गई। याद रखो! परमार्थ की अर्थी बनना ही प्रलय का लक्षण है। आज हम प्रलय के निकट हैं, किस वक्त हमारे ऊपर प्रलय का प्रहार हो जावे यह घटना अनिश्चित है।
भारत की आजादी के उपरांत भारत में गाय बैलों के कत्ल की रफ्तार तेजी से बढ़ गयी है। भारत में पशुओं का कत्ल करके उनके मांस को बेचकर विदेशी मुद्रा कमाने की अवैध नीति अपनाकर कृषि प्रधान देश के धवल माथे पर कलंक की काली बिन्दी लगा दी जो भारत के लिए अभिशाप है।
ये पशु-पक्षी देश की अमूल्य सम्पदा है। इनसे ही धरती की हरियाली सुरक्षित रहेगी, ये पशु जीवित रहेंगे तो यह धरती प्रसन्न रहेगी, पशुओं को मारकर धरती को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। हमारा कर्तव्य है कि हम इन तमाम पशु-पक्षियों की रक्षा करें, इनको मारें नहीं, उनको सतायें नहीं, उनको अपनी शरण दें, सेवा करें, उनकी रक्षा करें, वस्तुत: यही सच्ची धार्मिकता है।
जीवों पर दया करना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है, राष्ट्रीय कर्तव्य को भूलकर हम अपने राष्ट्र को उन्नत नहीं कर सकते। जिस राष्ट्र में दया नहीं है, मैं समझता हूँ उस राष्ट्र में कोई शास्त्र नहीं क्योंकि दया से बड़ा और कौन सा शास्त्र हो सकता है। आखिर हमारे शास्त्र पुराण हमको दया करना ही तो सिखलाते हैं। फिर भी हमने यदि दया का पालन नहीं किया तो शास्त्रों को पढ़कर या अपने पास रखकर उनकी पूजा आरती करने से भी कुछ नहीं होगा।
दया से बढ़कर और कौन सी पूजा है, जिसके दिल में दया नहीं वह आरती करके भी क्या करेगा? आरती तो दिल को साफ-कोमल करने के लिये की जाती है, लेकिन कठोर दिल वाला आरती करके भी क्या प्राप्त करेगा? दया करना परमार्थ है, आज हम धर्म को बेचकर धन कमा रहे हैं उसी का यह परिणाम है कि हमारा देश ५० वर्ष को पार करके भी गरीबी को नहीं भगा सका।
विकास नहीं तो प्रकाश नहीं और प्रकाश के बिना क्या उचित क्या अनुचित एक बराबर है। हम विकास करें लेकिन प्रकाश के साथ अन्धकार के साथ नहीं। हिंसा एक अंधकार है, जबकि अहिंसा प्रकाश है। अहिंसा के साथ जो विकास होगा वही हमारी वास्तविक उपलब्धि मानी जा सकती है। हिंसा का विकास विनाश का निमंत्रण है। पशु रक्षा करना अहिंसा है और कत्लखाने, मांस निर्यात हिंसा है अब हिंसा से भारत को बचाना है।
इसी पुनीत भावना के साथ अहिंसा परमो धर्म की जय।
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