आज हमारे चारों ओर अंधकार ही अंधकार है, उजाले का ठिकाना नहीं है। सूर्य और चंद्रमा के कारण दिन एवं रात का विभाजन तो हो जाता है किन्तु मोह के कारण दिन में भी रात होती है। मोह का अभाव हो जाने पर रात्रि में भी दिन जैसा ही प्रकाश भासित होता है। विषयों के प्रति लगाव को सम्यग्ज्ञान के द्वारा ही शांत किया जा सकता अन्यथा नहीं। यह सावधानी रखना आवश्यक है कि आज का संयोग कल नियम से वियोग में परिणित होगा ही । इस सत्य से हम शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं और अपने समय को प्रभु की भक्ति में/अपने आत्म कल्याण में लगा सकते हैं। जिसे हम प्रभु का निर्वाण कहते वास्तव में उनका आज जन्म हुआ है। महावीर जयंती को तो शरीर धारी बालक का जन्म हुआ था, किन्तु आज उनका मुक्त अवस्था में ऐसा जन्म हुआ जो आगामी अनंतकाल तक व्यय नहीं होगा अथवा भविष्य के जन्मों का आज ऐसा व्यय हुआ कि जिनका पुनः अब उत्पाद नहीं होगा। उनके कारण हम सभी को जो ज्ञान की किरण मिली वह प्रत्येक को नहीं मिलती, अब उसका सदुपयोग कर उन जैसे अहत्पद का हम संवेदन करें।
समकित संयम आचरण, इस विध द्विविध बताय।
वसुविध-विधिनाशक तथा, सुर सुख शिव सुखदाय॥
हम सभी ने एक दो नहीं अपितु अनंत बार पूर्व में शरीर को धारण किया है। जन्म लेने के बाद वृद्धावस्था आ जाने पर भी हमें क्या करना है, यह नहीं सोच पाते। आयु समाप्ति के उपरांत आगे क्या होगा? इसका समाधान पाने का प्रयास नहीं करते। त्रिलोकी तीर्थकर प्रभु भी इस, पर घर को छोड़कर स्व-घर को चले गए, हम लोगों को अपने निज घर प्राप्ति की चिन्ता ही नहीं है। इस भौतिक नश्वर शरीर को ही अपना घर मान लिया, यही अज्ञान है।
एक तोता पिंजड़े में बंद परतंत्रता का अनुभव करता हुआ उसे ही अपना आवास समझ बैठा है, किन्तु दूसरा तोता पिंजड़े के ऊपर (बाहर) बैठा हुआ मुक्ति-स्वतंत्रता का संवेदन कर रहा है। इस तोते को देख भीतरी तोते को वास्तविकता का बोध प्राप्त होता है और वह शीघ्र ही पिंजड़े से मुक्त होने की कामना एवं प्रयास करता है। ऐसे ही प्रभु के मुक्ति गमन से हम सभी अपने कल्याण के लिये प्रयास करें, यही दिशा बोध एक न एक दिन अवश्य ही हमें संसार के बंध रूपी पिंजड़े से मुक्ति दिलायेगा।
मात्र नग्नता को नहीं, माना प्रभु शिव पन्थ।
बिना नग्नता भी नहीं पावो पद अरहंत ||
आज प्रातःकाल हुए सूर्य ग्रहण को लक्ष्य कर गुरुवर आचार्यश्री ने कहा कि उस समय का मौसम कैसा हो गया था इस पर विचार करने पर लगा कि चंद्रमा की स्थिति तो फिर भी ठीक होती है, पर प्रताप शाली सूर्य के ऊपर ऐसा चक्र छा गया जिससे वह पूर्ण ढक सा गया। यह ग्रहण तो कुछ ही समय के लिये था किन्तु हमारे जीवन में निगोद अवस्था में पूर्ण जैसी स्थिति रही, जो अनंतकाल से अभी तक चली आ रही है। भले ही अभी पूर्ण ग्रहण-जैसा नहीं है पर हमारी चेतना को आशिक रूप से ग्रसित किए हुए है। इस मोहरूपी ग्रहण को एक बार समाप्त करने पर ज्ञान रूप केवलज्ञान की प्राप्ति होगी। ज्ञानी जीव को दुख कष्ट का अनुभव होते हुए भी भविष्य में सुख की प्राप्ति अवश्य होगी, ऐसा दृढ़ विश्वास है। अत: उसे संसार के विषय भी फीके लगने लगते और उनके प्रति उसकी इच्छा भी समाप्त हो जाती है। सन् १९८० में जब सिद्ध क्षेत्र द्रोणागिरी (छतरपुर) में संघ का प्रवास था, उस समय पूर्ण खग्रास सूर्य ग्रहण हुआ था। तब देखा कि पशु अपने-अपने घर को लौट रहे व पक्षी भी अपने-अपने वृक्षों पर पहुँचकर बोलने-चहकने की क्रिया बंद कर, रात्रि समझ स्वयमेव ही शांत हो गये थे। वैसे ही हम भी विचार करें कि हमारे ज्ञान पर आज तक ग्रहण लगा हुआ है। समीचीन ज्ञान की प्राप्ति के बाद तो विषय कषायों की ओर वृत्ति स्वयमेव बंद हो जानी चाहिए।
महावीर भगवान् की जय!
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