दूसरों को मत देखो, अपने आपको देखो आत्मा अमूर्त है, दिखती नहीं है, इसलिए उस अमूर्त तत्व पर विश्वास करना भी कठिन कार्य अवश्य है, किन्तु असम्भव नहीं, अनादिकाल से भटकता हुआ यह संसारी प्राणी अमूर्त-तत्व पर विश्वास कम रखता है, क्योंकि वह देखने में नहीं आते, अज्ञानी प्राणी मात्र जो दृश्य देखने में आते हैं उन्हीं को सब कुछ समझता है, इसलिए प्रथमानुयोग के माध्यम से आचार्यों ने महापुरुषों के जीवन-चरित का आदि, मध्य और अन्त साकार किया है।
परिणामों का चित्रण करणानुयोग है। करण के दो अर्थ हैं, परिणाम और गणित। अत: करणानुयोग लोक-अलोक के विभाजन, युग-परिवर्तन एवं चतुर्गति जीवों के सुख-दुखों का वर्णन करने वाला होता है। दुख कोई व्यक्ति नहीं चाहता इसलिए करणानुयोग में दर्शित दुखों का वर्णन बुरे कार्यों के मध्य अवरोध उत्पन्न करता है और व्यक्तियों को सत्यपथ पर चलने की प्रेरणा प्रदान करता है। 'चरणम् अनुसरतव्यम्' चरणम् का अर्थ है चरित्र और उसका अनुसरण करना अर्थात् पालन करना। जिस चरित के माध्यम से वह अमूर्त द्रव्य भी प्राप्त हो जाता है; वह अनन्तात्मक द्रव्य कहाँ तक छिपा रहेगा? कहाँ तक अमूर्त रहेगा? साधना तो वह है जो साध्य का मुख दिखा दे। 'मूलाचार' ग्रन्थ मूल प्राकृतभाषा में है। इस पर सकलकीर्ति आचार्य महाराज ने संस्कृत भाषा में टीका लिखी। इसमें कृतिकर्म का प्रसंग है। अर्थात् साधु के करने योग्य कार्य का वर्णन 'है। इस ग्रन्थ में आचार्यों ने पद-पद पर प्रत्येक गाथा में साधुओं को उनके कर्तव्यों के प्रति इंगित किया है। जिन कर्तव्यों का पालन करके साधु-जन्म, जरा और मरण के दुखों से बचकर शीघ्र ही अनन्त सुख रूप मुक्ति का लाभ लेते हैं और जो स्वभाव विभाव में परिणत हो चुका था, उस स्वभाव को प्राप्त करके उस अमूर्त आत्म-द्रव्य का साक्षात्कार करते हैं।
'णमो लोए सव्वसाहूण"
साधु का पद महान् माना जाता है, अतः बड़े-बड़े आचार्य भी उस साधु के लिए तीन सन्ध्याओं में नमस्कार करते हैं, क्योंकि मुक्ति का साक्षात् लाभ तो न आचार्य को है और न उपाध्याय को है, मुक्ति को साक्षात् प्राप्त करने का अधिकारी तो मात्र साधु ही है, बड़े-बड़े महान् आचार्य भी जो उस साधु को नमस्कार कर रहे हैं, इसका मतलब यह है कि उनकी दृष्टि उस द्रव्य की ओर है, पर्याय की ओर नहीं। आचार्य, उपाध्याय और साधु में वैसे साधु-पद की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है क्योंकि सभी समान रूप से अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं। दूसरी बात यह है कि साधु ही साधना के अन्तिम बिन्दु पर पहुँचता है, इसलिए भी साधु-पद की महिमा बतायी गयी है।
आचार्य शब्द का अर्थ है कि- आचरति आचारयति इति आचार्य:! (सर्वार्थसिद्धि:) जो स्वयं आचरण करे एवं अपने शिष्यों को आचरण कराये, वह आचार्य कहलाता है। अध्यात्म और आचारपरक महान् ग्रन्थों को लिखकर आचार्यों ने हमारे ऊपर महान् उपकार किया है। कल्याण करने के लिए दिशा-बोध दिये गये हैं, फिर भी उनकी उपेक्षा करके स्वार्थ-सिद्धि के लिए हम किस ओर खिंचते चले जा रहे हैं। बड़े-बड़े शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी 'अनुभूति के नाम पर हम कुछ नहीं कर पाये। स्मृति के माध्यम से बुद्धि का आयाम करके मात्र कोश बना लिया है दिमाग में। ज्ञान जब हृदयंगम होकर चरित्र में उतरता है तभी उपयोगी होता है, अन्यथा नहीं। अध्यात्म तो है ही किन्तु हमें सुख-शान्ति प्राप्ति हेतु चरणानुयोग का ज्ञान भी आवश्यक है, क्योंकि उस अध्यात्म की प्राप्ति चरित्र के बिना तीन काल में भी सम्भव नहीं।
चरणानुयोग से भी कोई मुमुक्षु-प्राणी दृष्टि ले सकता है। सामने जो चल रहा है, आचरण ही जिसका जीवन बना हुआ है, उसे देख कर भी आपका जीवन भव्य बन सकता है। यह बात उसके लिए है जिसकी होनहार ठीक हो। होनहार का अर्थ है अच्छा होने की योग्यता। ‘निकट-भव्य' की दृष्टि उस ओर जाती है और वह आचरण देखकर अपने आचरण को सुधार लेता है।
गौतम स्वामी ग्यारह अंग और नौ पूर्व के ज्ञाता थे, किन्तु यह सब बीज सम्यग्दर्शन के थे। सम्यग्दर्शन होने के पूर्व तक वे एक तापस, एक ब्राह्मण परिचालक थे, किन्तु उनमें अंकुर लक्षण बहुत होनहार को लेकर थे। एक इतिहासकार का कहना है कि वर्तमान में एक अंग का अंश मात्र ज्ञान शेष है, वह भी क्रमश: क्षीण होता जा रहा है, वह इन्द्रभूति ब्राह्मण ग्यारह अंग और नव पूर्व के क्षयोपशम-ज्ञान की शक्ति लेकर चलने वाला था, मात्र पानी के सिंचन की आवश्यकता थी। ज्योंही उसने महावीर के समवसरण को देखा त्योंही मान गल गया और जो सम्यग्दर्शन शक्ति रूप में था वह प्रकट हो गया और वह संयमी बन गया। उसी प्रकार प्रत्येक भव्य आत्मा में भी ऐसी ही शक्ति विद्यमान है, उसके क्षय, क्षयोपशम की आवश्यकता है और वह शक्ति उसे प्राप्त हो सकती है। उस शक्ति को प्रकट कर जीव अपने योग और उपयोग को शुद्ध कर सकता है। वह योग पवित्र है। संयोग एक दो में नहीं अनेक में है। अनन्त का मिटना मुश्किल कार्य है, वियोग भी दो के ही मध्य होता हैं | संसारी प्राणी संयोग और वियोग के पीछे पड़ा हैं, उसने योग कभी नहीं साधा योग क्या चीज है? संयोग और वियोग को भूल जाओ, योग पर दृष्टि रखो, योग में न कोई संघटन है न विघटन, न कोई इट-वियोग, न कोई अनिष्ट-संयोग होता है। जो कुछ होता है वह होता ही है, उसका दर्शक मात्र योगी होता है। जिसकी दृष्टि में पदार्थ का परिणमन मात्र है, उसे इष्ट-अनिष्ट का अनुभव कैसे होगा? अकेले में क्या संयोग और क्या वियोग । जब योग शब्द पर लगे हुए 'वि' और 'सम' उपसर्ग हट जाते हैं, और ‘उप’ यानी निकट का सम्बन्ध लग जाता है तब वह योग उपयोग में परिणत हो जाता है, अर्थात् सिर्फ साधक की परिणति उपयोगमय हो जाती है। अत: हमारा तो सबसे यही कहना है-बंधुओं आज आप सभी लोग उपसर्ग, संयोग-वियोग इन सभी चीजों से हटकर अपने उपयोग का सही-सही उपयोग करो।
एक व्यक्ति ने कहा-मैं बहुत दुखी हूँ, मैंने पूछा-तुम्हारा दुख क्या है? वह बोला-मैं बड़ा बनना चाहता हूँ, मैंने कहा-यह शुभ बात है, किन्तु बड़ा बनना नहीं बड़ा हूँ यह देखना है, बड़े बनने की इच्छा छोड़ दो, बड़ा-छोटा ये कल्पना मात्र है, छोटी-बड़ी कोई चीज नहीं है। जब हम एक वस्तु के आगे दूसरी वस्तु रखते हैं तब चीजें छोटी-बड़ी दिखती हैं तथा तुलना करने से अच्छे-बुरे की कल्पनाएँ जन्म लेती हैं, अतः दूसरों को मत देखो, अपने आपको देखो, सब कुछ तैयार है, कुछ करना नहीं है, मात्र कल्पनाएँ करना छोड़ दो, कल्पनाएँ छोड़ना है और कुछ नहीं करना है। यह कार्य साधारण नहीं, विषय-कषायों से युक्त प्राणियों के लिए यह कार्य असाध्य तो नहीं, पर, दु:साध्य अवश्य है।
धार्मिक क्षेत्र में प्रवेश पाने के लिए जो दोनों हाथों में धन-सम्पत्ति का कचरा है उसे फेंक दो और दोनों हाथों में दया दान, संयम के साधन आदरपूर्वक ले लो। दोनों कानों से जिनवाणी को सुनो, आँखों से भगवान का दर्शन करना चाहिए, एक कान से ध्यानपूर्वक सुनकर दूसरे कान को बन्द कर लेना चाहिए ताकि बात निकले नहीं, हृदयंगम हो जाये,
अनादिकालीन आपके अपने जो संस्कार हैं उनको तोड़ना है, आप नये संस्कार जमायें, नये संस्कार जमाने में बहुत प्रयत्न करना पड़ता है, दीवार पर रंग करना है, प्रत्येक वर्ष करते हैं तो मात्र झाडू लगाकर कर लो, पर यदि अनेक वर्षों से दीवार पर रंग नहीं किया है तो पहले खरोंचें, मारमारकर उसकी पतें उतारनी पड़ती हैं, तब कहीं जाकर दीवाल पर रंग आता है। अनादिकाल से आत्मा की इस दीवार पर धर्म का कोई रंग-रोगन तो किया नहीं अभी तक और अब नया रोगन लगाना चाहते हैं, अध्यात्म एक प्रकार का रंग है, इसका अलग ही ढंग है, जब तक दीवार पर पुराने रंग का रंग है, उसका निवारण नहीं होता, तब तक समझना-अभीष्ट वस्तु बहुत दूर है।
धर्म अधर्म की आपने संक्षिप्त परिभाषा जानना चाही, नोट कर लो भैया! ‘‘जो आपको आज तक अच्छा नहीं लगा वह है धर्म और जो आज तक अच्छा लगा वह है अधर्म ।' वैसे आप धर्म का स्वरूप बहुत अच्छी तरह समझते हैं, इसीलिये तो धर्म से दूर हो जाते हैं, संसारी प्राणी धर्म को खूब समझता है।
इसीलिए वीतरागता से दूर है। आप लोगों को भी वैराग्य होता है, किन्तु धर्म से, त्याग से, आत्मा से वैराग्य होता है। . लेकिन आत्मा में वैराग्य नहीं होता। विषय, कषाय, राग-द्वेष आपको हेय नहीं लगते, आप सोचते होंगे यदि वीतरागता प्राप्त हो जाये तो मैं लुट जाऊँगा, सब हमारे आनेजाने के मार्ग बन्द हो जायेंगे, किन्तु यथार्थ दृष्टि से देखा जाये तो आप लोगों की यह धारणा गलत है।
मैं तो राग छोड़ने को भी नहीं कहता, राग अपनाना होगा, द्वेष अपनाना होगा। राग अपनी आत्मा से और जब द्वेष ‘द्वेष' से करने लगेंगे तभी आत्म-कल्याण की शुरूआत होगी, अपनी आत्मा को छोड़कर यदि तुम किसी से भी राग नहीं करोगे तो-आत्मा में ‘स्व” स्वभाव में स्थित हो जाओगे। जितना राग पर से किया, उतना राग आत्मा से किया जाये और जितना द्वेष वीतरागता से किया उतना द्वेष अब द्वेष से किया जाये तो समझ लो बेड़ा पार हो जायेगा। कैवल्य की उत्पत्ति हो जायेगी, संसार-समुद्र से तर जाओगे।
जैन-दर्शन जितना सरल है, उतना अन्य कोई दर्शन नहीं। सबसे प्यार करना कठिन है। बुरी अच्छी सबको कथचित् ठीक कहकर मान्यता देना बड़ा मुश्किल है। यह सब जैन-दर्शन के विशाल उदार हृदय की महानता है, इस प्रकार के मार्ग पर आप कभी चलते हैं क्या? तो आप चले नहीं घूमे। हैं, घूमना कोई चलना थोड़े है, चलना महान् है, चलने में सुगंधी है, चलने से दिशा मिल जाये, मंजिल मिल जाती है। अनादिकाल से भटकता हुआ यह यात्री छोर पा जाता है, इसको फिर बारबार चारों गतियों में घूमना-भटकना नहीं पड़ता। पर, आपको घुमावदार रास्ता ही पसन्द है, आपको उसी में मजा आ रहा है, कभी मनुष्य, कभी तिर्यञ्च, कभी नारकी, कभी देव . इस प्रकार आप कोल्हू के बैल की भाँति घूम रहे हैं.वहीं वहीं पर.इसी संसार में.!
उसी तूलि से बन्दर का चित्र बनता है, उसी तूलि से परमेश्वर का, सभी का उपादान एक ही है, काल भी वहीं पर मौजूद है, लेकिन परिणमन सब भिन्न-भिन्न हो रहे हैं।
अन्त में, हमारा आप सभी से यही कहना है कि आप अपनी दृष्टि बदलए, काल के समान दृष्टि को भी उदासीन बनायें, क्योंकि दृष्टि के बदलने से सृष्टि में भी बदलाहट आ जायेगी, क्योंकि कहा ही गया है कि- ‘जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि” इतना ही पर्याप्त है।