मौत का क्या ठिकाना, यह निश्चित मान लें
अत: आओ आज ही क्षमा माँग लें।
पयुर्षण पर्व के उपरांत क्षमावाणी पर्व की परम्परा बहुत पुरानी है। क्षमावाणी के पावन प्रसंग पर समाज के सारे लोग एकत्रित होते हैं और एक दूसरे के गले मिलते हैं और अपनी परस्पर की वैमनस्यता को मिटाते हैं, अपने दिल को साफ करते हैं, अपने आपकी सफाई करते हैं। इसी पावन परम्परा के मुताबिक ही सिद्धोदय तीर्थ नेमावर में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के सान्निध्य में यह पर्व मनाया गया। क्षमावाणी को मनाने मात्र से बैर की गाँठ खुल नहीं सकती, दिल की सफाई के लिए हमको अपने विवेक को जागृत करना होगा और दूसरों के दुख-दर्द को समझना होगा अन्यथा यह एक व्यंग्य नहीं अपितु एक सचाई है
हर पवाँ त्यौहारों को नाच गाकर मनाते हैं,
किन्तु झगड़ों झंझटों को कहाँ मिटाते हैं।
चेहरे देख-देख कर हाथ और गले मिलाते हैं,
भूखों को भूल भरपेटों को पकवान खिलाते हैं।
क्षमावाणी के पावन प्रसंग पर आचार्य श्री जी के प्रवचन हुए। अपार जनसमुदाय को संबोधित करते हुए आचार्य श्री ने कहा-क्षमा साधक की भीतरी परीक्षा है क्षमा उसी से माँगो जिससे तुम्हारा बैर हुआ है आपसी कलह हुआ है। मनमुटाव हुआ हो, लड़ाई हुई हो उसी से क्षमा माँगो। जिससे कुछ बिगड़ा ही नहीं उससे क्या क्षमा माँगना? यह कोई नियम नहीं है कि वर्ष में इसी दिन ही क्षमावाणी पर्व मनाएँ हमको चाहिए कि हम जिस वक्त जिससे जो कुछ खट-पट हुई हो उससे तुरन्त हमें क्षमा माँग लेना चाहिए। क्षमा माँगना बहुत अच्छा कार्य है लेकिन इससे भी अच्छा कार्य तो क्षमा करना होता है।
क्षमा करने में कुछ देर नहीं लगती यह तो एक तात्कालिक घटना है। क्षमा करने के लिए हमको कुछ हाथ पैर नहीं चलाना है। अपितु हमको अपने स्वोन्मुखी होना है। दीनता और तीव्रता दोनों नहीं करना ही उत्तम क्षमा पर्व का सार है। न दीनता करो न तीव्रता करो, बस तटस्थता से रहो। न किसी से बैर करो, न बुराई करो, न किसी का अपमान करो, न अपशब्द कहो।
आचार्य श्री जी ने कहा आज क्षमावाणी पर्व है हम भी आप से क्षमा माँगते हैं। सारे जनसमुदाय में तालियों के साथ जमकर हँसी फूट पड़ी, तो आचार्य श्री जी ने कहा कि क्या हो गया? क्या यह पर्व मात्र आप लोगों का है? क्षमा करें, क्षमा माँगे और अपने दिल को साफ करें। राग प्रमाद की जड़ है हमने आज तक न राग को समझा न प्रमाद को अन्यथा हम राग क्यों करते? प्रमाद क्यों करते? हमारे दुख का कारण हमारा राग है, हमारा प्रमाद है, हम राग का त्याग करें। प्रमाद का त्याग करें। अन्यथा हम अपनी भीतरी साधना की सुरक्षा नहीं कर सकते।
हम बाहरी निमित्तों पर टूट पड़ते हैं। अपने उपादान की ओर दृष्टिपात नहीं करते। यदि हम अपने भीतरी कर्म पर विश्वास कर लें तो गुस्सा कर ही नहीं सकते। हम गुस्सा क्यों करते हैं? अज्ञानता के कारण हम गुस्सा करते हैं प्रमाद और राग के कारण गुस्सा करते हैं। क्षमा को समझने के लिए हमको अपने स्वभाव को समझना होगा। हमारी आत्मा का स्वभाव गुस्सा करना नहीं है। हम गुस्सा करते हैं, अपनी आँखें लाल-लाल करते हैं, दूसरों को आँख दिखाते हैं, चिल्लाते हैं, गरजते हैं यह सब हमारी विवेक-हीनता का प्रतीक है।
वस्तुत: ऐसे आयोजन समाज में होने चाहिए, इससे समाज में एक अच्छा वातावरण तैयार होता है, जो कि बहुत अनिवार्य है। समाज में लड़ाई झगड़ा न हो, हिल-मिलकर रहें आपसी फूटन हो आपसी विवाद न हो इसके लिए यह अनिवार्य है कि हम समाज में ऐसे वातावरण को सदा तैयार रखें, जिससे वात्सल्यता, प्रेम, स्नेह, सहयोग, सहानुभूति, संवेदना आपस में बनी रहे। इन औपचारिक आयोजनों के द्वारा भी परमार्थ का रास्ता खुल सकता है इसमें हमारा उद्देश्य ठीक होना चाहिए।
हम अपने उद्देश्य को ठीक करें अपने लक्ष्य को बनाएँ और अपनी आत्मा को समझे यही क्षमावाणी पर्व की सफलता है। आचार्य श्री जी के प्रवचन के बाद भगवान् का अभिषेक पूजा भक्ति का कार्यक्रम हुआ, और इसके बाद लोगों में आपसी क्षमा याचना का सिलसिला शुरू हुआ।
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