(आज सात ब्रह्मचारियों की क्षुल्लक दीक्षायें हुई एवं अक्षय तृतीया पर्व मनाया गया)
दंसणवय सामाइय, पोसह सचित्तराइभत्ते य।
बंभाऽरंभ परिग्रह अणुमण मुद्विट्ट देसविरदो य॥
यह अति प्राचीन गाथा है जिसमें दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित त्याग, रात्रि भुति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमति त्याग और उद्विष्ट त्याग, इन ग्यारह प्रतिमाओं का कथन किया है।
दर्शन प्रतिमा का अर्थ सच्चे देव शास्त्र गुरु के प्रति निष्ठा। जिसकी दर्शन प्रतिमा उज्वल होगी उसका उत्साह भंग नहीं होता और चरित्र में उत्तरोत्तर वृद्धि होगी।
दूसरी व्रत प्रतिमा है इस व्रत प्रतिमा में तीन मकार एवं पाँच उदुम्बर फलों (बड़, ऊमर, कटूमर, पीपल, पाकर का त्याग) पाँच अणुव्रत (अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत एवं परिग्रहपरिमाणाणुव्रत), चार शिक्षाव्रत, और तीन गुणव्रत होते हैं जिनका पालन करना होता है। इसके अन्तर्गत एक सल्लेखना व्रत भी रखा गया है जो आज के युग में बहुत कठिन हो रहा है अब अंत समय में अस्पताल की शरण में चले जाते हैं जो ठीक नहीं। यह सल्लेखना व्रत परीक्षा के समान है जिन्होंने घर छोड़ दिया हो उनके इसका पालन हो जाता है।
तीसरी प्रतिमा है सामायिक प्रतिमा, जिसका महत्व आज दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है। मुनियों के शुद्धोपयोग का स्वाद सामायिक के काल में ही आता है वह भी प्रमाद छोड़कर करने से, मात्र खाना पूर्ति करने से किसी को इसका स्वाद नहीं आ सकता है। सामायिक प्रतिमा में आरंभ आदि समस्त सावद्य का त्याग रहता है, अत: गाड़ी में चलने वालों के सामायिक प्रतिमा व्रत का पालन नहीं होता।
चौथी प्रोषधोपवास प्रतिमा है जो दिन में एक बार ही आहार लेते हैं उनका प्रतिदिन प्रोषध चलता है, अतः जब कभी उपवास करेंगे तो प्रोषधोपवास ही होता है। मुनियों का जब उपवास हो तो नियम से प्रोषधोपवास ही होता है।
पांचवी सचित त्याग प्रतिमा है इस प्रतिमा का धारी जल और भोजन सचित ग्रहण नहीं करता अचित्त (प्रासुक) ही ग्रहण करता है। प्रासुक में चलित रस न हो, किन्तु रस स्वाद परिवर्तित कर लेता है।
छठवीं प्रतिमा है रात्रिभुति त्याग और सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। सातवीं प्रतिमाधारी घर नहीं छोड़ता किन्तु घरवाली को अवश्य छोड़ देता है।
आठवीं प्रतिमा आरंभ त्याग प्रतिमा है इस प्रतिमा में घर गृहस्थी के समस्त आरंभ कार्य त्याग कर देता है, नौवीं परिग्रह त्याग प्रतिमा है यह प्रतिमाधारी आरंभ आदि क्रियाओं का त्याग करने के बाद जो आवश्यकतानुसार परिग्रह रख लिया है उसी से उदर पूर्ति करता है। शेष परिग्रह न रखता है न अनुमति देता है। दसवीं अनुमति त्याग प्रतिमा है, यह प्रतिमाधारी आरंभ परिग्रह आदि पाप क्रियाओं को स्वयं तो करता ही नहीं, उसकी अनुमति (अनुमोदना) भी नहीं देता है, भले ही घर में रहे घर का त्याग न करे। ग्यारहवीं उद्विष्ट त्याग प्रतिमा है। दसवीं प्रतिमा के बाद घर का भी त्याग हो जाता है। भिक्षा वृत्ति से भोजन आहार ग्रहण करता है। थाली में भोजन करने से भी भिक्षा वृत्ति नहीं पलती है। भिक्षा वृत्ति से आहार ग्रहण नहीं करने से जिह्वा इन्द्रिय पर विजय प्राप्त नहीं होती है।
बंधुओं चरित्र अपने आप आता नहीं ग्रहण किया जाता है जो मानते हैं कि चरित्र अपने आप आ जायेगा उसका जीवन यूं ही चला जायेगा परन्तु चरित्र नहीं आयेगा। साधू (क्षुल्लक) बनाना दीक्षा देना मात्र निमित्त होता, साधू बनाना नहीं बनता है। भाव लिंग को प्राप्त करना है। भाव लिंगी मुनि अनंतबार नहीं बनता किन्तु संयमा संयम और उपशम सम्यक्त्व को असंख्यात बार प्राप्त कर सकते हैं।
आगम में दो पद बताये है एक सागार दूसरा अनगार। क्षुल्लक सागार में आते हैं। इनके पास जो पिच्छिका कमंडलु शास्त्र है वह उपकरण में आते हैं किन्तु लंगोट दुपट्टा और कटोरा उपकरण नहीं वह तो परिग्रह है। उसे भी छोड़ना है जो लौकिक सम्बन्ध थे टेलीफोन करना रुपये पैसे रखना आदि अब नहीं हो सकता। भगवान् महावीर की इस परम्परा में आचार्य श्री शांतिसागरजी, आचार्य श्री वीर सागर जी, आचार्य श्री शिवसागर जी, आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज हुए उन्हीं की परम्परा में, मैं आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का शिष्य (आचार्य विद्यासागर जी) हूँ इसी परम्परा में आज सात क्षुल्लक दीक्षित हुए हैं।
- क्षुल्लक प्रज्ञासागरजी पूर्वनाम विनोदकुमारजी गढ़ाकोटा।
- क्षुल्लक प्रबुद्धसागरजी पूर्वनाम प्रदीपकुमारजी, जबलपुर।
- क्षुल्लक प्रशस्त सागर जी पूर्वनाम स्वतंत्रकुमारजी, सनावद।
- क्षुल्लक प्रवचनसागरजी पूर्वनाम चंद्रशेखरजी, बेगमगंज ।
- क्षुल्लक पुण्यसागरजी पूर्वनाम शांतिनाथ, लालाबडी (महाराष्ट्र)।
- क्षुल्लक प्रभावसागरजी पूर्वनाम मनोजकुमारजी, शाहगढ़।
- क्षुल्लक पायसागरजी पूर्वनाम पायप्पाजी (महाराष्ट्र)।
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