गंध रहित फूल मूल्यहीन होता है वह धूल में मिल जाता है। धर्म एक सुगंध है। धर्ममय जीवन से प्रस्फुटित सुगंध अनेक नासिकाओं को संतृप्त करती है। धर्म सनातन होता है, अभेक्ष्य। किन्तु आज वह सनातन कम, तनातन अधिक है। कुशल भ्रमर गंध की गवेषणा कर ही लेता है। वह गंध विहीन फूल के निकट जाकर भी संतृप्त नहीं हो सकता। गंध विहीन गुलाब को रखने से स्वयं भी अतृप्त रहते हैं क्योंकि वह तो कृत्रिम था। धर्म सुगंध के समान है इसलिये वह आसपास के क्षेत्र को सुवासित कर देता है। धर्म का अनुभव होते ही ताजगी आ जाती है। फिर एक ताजगी, एकता जगी। हम गंध विहीन पुष्प से भ्रमित हो जाते हैं भ्रमर के समान। श्रमणों के पास आने के लिये श्रम तो करना पड़ता है किन्तु भ्रम दूर हो जाता है। धर्म को आधार नहीं मिलता तो वह पलायन कर देता है। गंध एक धर्म है, योग्यता शक्ति है। फूल का मूल्य गंध पर आधारित होता है। गंध रहित फूल कोई नहीं खरीदता। अहिंसा धर्म अपनाते ही राग कम होता जाता है तथा जीवन में खुशबू आने लगती है।
व्यक्ति में विद्यमान गुण धर्मों के माध्यम से ही उसके धार्मिक होने की पहचान होती है, जिस प्रकार अग्नि में तपा-तपाकर ही स्वर्ण की पहचान होती है। पीलापन पीतल में भी होता है और स्वर्ण में भी किन्तु स्वर्ण बहुमूल्य है। पीतल का मूल्य कम है। पीतल अपेक्षाकृत भारी है उसमें कड़ापन नहीं स्वर्ण मृदु है इसलिये कड़ा नहीं बनता उसका किन्तु कड़ा पीतल का बनता है। स्वर्ण का कड़ा भी सौ टंच सोने का नहीं बनता यदि बना तो कड़ा नहीं रहेगा। वह धर्मात्मा की पहचान वेश पर आधारित नहीं है नाही देश पर। धर्म सनातन होता है अभेद्य होता है, इस सनातन धर्म में अभेद्य आम तत्व पर ही दृष्टिपात करें। आज तो तनातन है। होना प्टनाटन चाहिये था सौ टंच खरा। इस सनातन आत्म धर्म पर तनातन का बट्टा लगने से धर्म गायब हो रहा है। जिस युग में बुरा भी बूरा (मीठा) सा लग जाये वही सतयुग है तथा जिस युग में खरा भी अखरता है वह कलयुग है। आज तो बात भी अखर जाती है, खरी बात तो और भी अखर जाती है। आप कहने लगते हैं कि उसने मुझे खरी-खरी बातें कहीं अखर गयी। वस्तु का दोष नहीं होता, दोष है तनातन का।
जिस प्रकार नर्मदा अमरकंटक से पश्चिम की ओर जाती है। पर वह किसी एक स्थान से नहीं बंधती, बहती रहती है, उसे सभी जन अपना मानते हैं यह बात पृथक् है, इसी तरह धर्मात्मा किसी देश का नहीं वह तो देशवासियों से जुड़ता है। धूप-वर्षा में चलता रहता है। रुकता नहीं वरन् रुकी गाड़ी भी चला देता है। सनातन धर्म हीरा कहलाता है किन्तु मुख से नहीं कहता। परख जौहरी करता है। सनातन अनन्त से आया है, सत् है। आत्मा सत्त भी है चित्त भी। सतचित मिट नहीं सकता यह त्रैकालिक सत्य है। हमारे पास सतचित है पर आनंद नहीं है। आनंद की अनुभूति स्वयं के विश्वास पर निर्भर है। यदि यह अनुभूति हो जाये तो फिर सच्चिदानंद अमर है। विश्वास के अभाव में कांटे की चुभन है। इस चुभन का कारण तनातन है। चित्त कुपित हो गया पित्त बढ़ जाता है। वात बढ़ा, सन्निपात हो गया, फिर सन्निपात ग्रसित को आठ-आठ आदमी पकड़े तो भी वश में नहीं आता तथा मूच्छित करने पर भी वश में नहीं रहता। सन्निपात समाप्त होते ही सनातन रूप सतचित आनंद की लहर आ जाती है। यह आनंद भी अलग-अलग तरह से लिया जाता है। मनुष्य को अपनी प्रशंसा सुनने में ही आनंद आता है, दूसरे की हो तो मुँह फेर लें। क्यों आनंदित हुए? मन को अच्छा लगा इसलिए। आप श्रोत है आनंद के। हम सन्निपात के रोगी हैं तथा वैद्य है वृषभादिक महावीर भगवान् पर्यत तीर्थकर भगवान् राम। यदि हमारा अपना ही तनातन दूर नहीं हुआ तो सन्निपात नहीं मिटेगा, भले ही कोई वैद्य हो। किन्तु यह मिट सकता है जबकि आस्था हो, विश्वास हो, रोगी को तब। रोगी को चिकित्सक पर विश्वास नहीं होगा तो न तो वह इलाज कराएगा न ही औषधि असरकारक होगी। विश्वास सबसे महत्वपूर्ण चीज है। सन्निपात का रोगी बकता है, रोता है-लातें मारता है। चिकित्सक रोगी के लात मारने से निष्प्रभावी रहता है। पित्त शांत हो, गुस्सा शांत हो तो आनंद की अनुभूति हो जाती है। हम भी भगवान् बन सकते हैं तनातन छोड़कर। पित्त हो तो रसगुल्ला भी कड़वा लगता है। मान को चढ़ाओ भगवान् के चरणों में, इसके बिना आनंद की अनुभूति नहीं। संतों के पास आनंद है। अत: संत बनो, संयमी बनो। संतोषी व्यक्ति पुष्ट हो जाता है थोड़े से भोजन से भी किन्तु जिह्वा असंतोषी है। पेट कहता है इंड (समाप्त) लेकिन जिह्वा कहे एंड (और), और अधिक कीर खाया तो परिणाम भयंकर। बंधुओं! यह लोभ, तृष्ण नागिन के समान है जो हमारी आत्मा को डसती है। यह नागिन तो एक बार ही डसती है किन्तु तृष्णा की नागिन भव-भव में डसती है। संत का सान्निध्य पाकर तृष्णा का विष शीघ्र ही उतरने लगता है।
संत पुरुष से राग भी, शीघ्र मिटाता पाप।
उष्ण नीर भी आग को, क्या न बुझाता आप ||
गर्म जल भी आग को बुझा देता है क्योंकि आग बुझाना उसका गुण धर्म है ऐसे ही संत से किया गया अनुराग भी पाप कर्मों का नाश करता है। गर्म होने पर भी जल अपना स्वाभाविक गुण धर्म नहीं छोड़ता किन्तु मनुष्य गर्म होकर क्यों अपना स्वभाव छोड़ देता है। यह सब विश्वास की कमी और वास्तविकता की पहचान के अभाव में हो रहा है। राम और महावीर के आदर्श को सामने रखकर अपने आतमराम को पहचानें और उसे ही पाने का प्रयास करें।
'महावीर भगवान् की जय!'