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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सिद्धोदयसार 37 - धर्म करने की चीज है पढने की नहीं

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    पहले युग में आदमी धर्म करता था लेकिन आज के युग में आदमी धर्म को पढ़ता है वस्तुत: धर्म करने की चीज है पढ़ने की नहीं क्योंकि जबसे धर्म की पढ़ाई शुरू हुई धर्म को पढ़ाया जाने लगा तभी से धर्म में अनेक उलझनें पैदा हो गई, अनेक परिभाषा बन गई, भाषा बन गई, मत मतान्तर बन गए और विभिन्न सम्प्रदायों का बँटवारा हो गया, आदमी का विभाजन हो गया, धर्म और उसका विकास पथ आज हमारे पास तक चार भागों में बटा हुआ आ पहुँचा है लेकिन उसको हम विकास क्रम नहीं कह सकते वह यह है कि पहले धर्म किया जाता था अथवा धर्म करते थे फिर धर्म को दिखाया जाने लगा और अन्त में पढ़ाया जाने लगा इस प्रकार धर्म चार भागों में बँट गया।


    लेकिन जब हम धर्म की मौलिकता पर विचार करते हैं तब हमको यह भली-भाँति ज्ञात होता है कि धर्म न दिखाने की वस्तु है, न सुनाने की वस्तु है, और न पढ़ाने की वस्तु है, धर्म तो करने की वस्तु है धर्म तो आत्मा की प्रकृति है, स्वभाव है, और वह स्वभाव, प्रकृति किसी के आश्रित नहीं होती किसी पर डिपेण्ड नहीं होती। जबसे हमने धर्म को पढ़ना प्रारम्भ कर दिया, पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया तभी से हमने उसको संकीर्ण कर दिया, संकीर्णता की चार दीवारी में हमने उसको बांध दिया इसलिए वह धर्म हमारे लिये हितकारी सिद्ध नहीं हुआ। धर्म अहिंसा का नाम है और वह अहिंसा पढ़ने की चीज नहीं वह दिल में पैदा करने की चीज है। हम किताबों में अहिंसा खोजते हैं लेकिन अहिंसा किताबों में नहीं मिल सकती, किताबों में तो अहिंसा की परिभाषा मिल सकती है अहिंसा नहीं।


    आज हम अहिंसा को किताबों में पढ़ रहे हैं इसलिए हमारे जीवन में अहिंसा की कमी होती जा रही है। यदि हम अहिंसा को अपने विचारों में प्रतिष्ठित करें जीवन में उतारें, व्यवहार में लायें तो हमको किसी भी पुस्तक पढ़ने की आवश्यकता नहीं। अहिंसा कागजी पुस्तकों की उपज नहीं वह तो हमारी चेतना की परिणति है, वह जड़ में नहीं मिल सकती। जड़ के पास धड़कन नहीं क्योंकि उसके पास दिल नहीं है। अहिंसा करुणा की धड़कन है, दिल की कंपन है, वह पढ़ने से पैदा नहीं होती, सुनने से पैदा नहीं होती, उसके लिए धर्म की मौलिकता को समझने की जरूरत होती है।


    धर्म दूसरों के लिए नहीं होता वह तो अपने स्वयं के लिए है। महापुरुष धर्म करते नहीं वे तो धर्म को जीवन में उतारते हैं। जब व्यक्ति धर्म को जीवन में उतारता है तब उसको पथ बतलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि उसके कदम ही पथ का निर्माण करते हैं। वह जहाँ से गुजरता है। वहीं से रास्ता बन जाता है, जहाँ पग रखता है वहीं पगडण्डी बन जाती है। यह भी सच है कि पग के बिना पगडण्डी नहीं बनती, पहले पग होते हैं बाद में पगडण्डी। महापुरुष ऐसे ही होते हैं। आज हम अपनी पगडण्डी बनाना चाहते हैं लेकिन जो महापुरुषों की पगडण्डी है उस पर चलना नहीं चाहते। यदि हम महापुरुषों के चरण चिहों पर चलना प्रारम्भ कर दें तो हम भी आज महान् बन सकते हैं। महापुरुषों के चरण चिह्न अहिंसा की पगडण्डी हैं, आज हमको अहिंसा की आवश्यकता है, जिसके अभाव में यह दुनियाँ पीड़ित है।


    मैं धर्म को सुनाने के पक्ष में तो हूँ लेकिन पढ़ाने के पक्ष में नहीं क्योंकि धर्म को पढ़ने के लिए शब्द चाहिए, भाषा चाहिए और शब्दों में धर्म को ढूँढ़ना पागलपन है। भाषा परिभाषा में धर्म को नहीं समझा जा सकता। धर्म भाषातीत वस्तु है। आज हम धर्म को पढ़ना चाहते हैं लेकिन हम अपनी आत्मा से पूछे कि हमने पढ़कर कितना धर्म सीखा है? जिस दिन हम धर्म सीख जायेंगे उस दिन पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। धर्म को समझे आत्मा के भावों से। धर्म भावों से समझा जा सकता भाषा से नहीं। हम वह भावों की भाषा सीखें जो बिना किसी परिभाषा के ही हमको धर्म सिखला सके, धर्म को समझा सके। आज धर्म को पढ़ाने, सुनाने, दिखाने की पद्धति बहुत तेजी से चल रही है और धर्म को करने की भावात्मक प्रणाली समाप्त होती जा रही है। आवश्यकता इस बात की है कि हम धर्म को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानकर, एक श्वांस मानकर उसको जीवन में उतारें। धर्म सत्य, अहिंसा की व्याख्या है सत्य की अभिव्यक्ति है अहिंसा का सम्मान है। सत्य अहिंसा को जीवन में उतारें। हिंसा, झूठ से बचें, दूसरों को बचायें इसी में अपना और राष्ट्र का कल्याण है। अहिंसा के अभाव में न किसी का कल्याण है और न निर्माण है।


    धर्म क्या है? जरा समझें! यदि आप अपने घर में भोजन कर रहे हैं और उसी दौरान एक व्यक्ति आता है और वह कहता है भैया! मुझको बहुत भूख लगी है, मैं तीन दिन का भूखा हूँ, मुझको रोटी दीजिए यदि आप अपनी थाली की रोटी उसको खिला देते हैं, उसकी भूख बुझा देते हैं बस यही है आहार दान, सही धर्म। इसी प्रकार आप किसी मार्ग पर पैदल जा रहे हैं गर्मी के दिन हैं आपके हाथ में छाता है उसी वक्त एक व्यक्ति आवाज लगाता है मुझको बचाओ, वह व्यक्ति रास्ते में गिर गया था उसको चोट लग गई थी, खून बह रहा था यदि आप रुक जाते हैं और अपना गमछा फाड़कर उसकी चोट के ऊपर उसको बांध देते हैं और उसका हाथ पकड़कर अपने साथ ले जाते हैं उसके गन्तव्य तक तो बस यही है औषधि दान। आपने भले उसको कोई दवा नहीं दी औषधि नहीं दी लेकिन उसके संकट में अपना हाथ लगाया इससे बड़ी और कौन सी दवाई हो सकती है।


    इसी प्रकार एक व्यक्ति रास्ते पर चला जा रहा है अचानक वह रास्ता भटक जाता है और यदि हमने उसको रास्ता बता दिया, उसकी भटकन दूर कर दी तो यही है ज्ञान दान। किसी भटके को सही रास्ता दिखा देना इससे बढ़कर और क्या हो सकता है ज्ञान दान। खोटे मार्ग से व्यक्ति को निकाल कर सन्मार्ग में लगा देना सबसे बड़ा ज्ञान दान है। इसी प्रकार एक व्यक्ति अकेला जा रहा है, रात्रि का समय है, वह भय से घबड़ा जाता है और चिल्ला पड़ता है बस उसी समय एक व्यक्ति वहाँ आ जाता है और कहता है कि आप घबराइए मत मैं आपके साथ हूँ और वह उसका साथ देता है वह व्यक्ति भय से मुक्त हो जाता है बस! यही है अभय दान। इस प्रकार हमने चार प्रयोगों द्वारा धर्म की बात समझी और उसके लिए पढ़ने की जरूरत नहीं क्योंकि किसी भूखे को भोजन खिलाना, रोगी को औषधि देना, भटके को रास्ता बताना और भयभीत को निर्भय करना, यह तो बिना पढ़े ही आ जाता है और आना चाहिए। इस प्रकार समझ लेते हैं धर्म की वास्तविकता को जो कि पूर्ण रूप से आडम्बर से रहित है। धर्म के लिए किसी विशेष सामग्री की आवश्यकता नहीं बस भावनाओं की जरूरत है।

     

    अपनी रक्षा करना धर्म नहीं दूसरों की रक्षा करना धर्म कहलाता है। जो अनाथ है, बेसहारा है, भूखा है, रोगी है, संकटग्रस्त है, गरीब है उसकी मदद करना उसके दुखों को दूर करना धर्म कहलाता है। पशु पक्षियों पर क्रूरता नहीं करना धर्म कहलाता है, पशु पक्षियों को नहीं सताना धर्म कहलाता है। आज के युग में पशु पक्षियों पर बहुत संकट छाया है उनका वध हो रहा है उन पर अत्याचार हो रहा है अत: उनका वध रोकना उनकी व्यवस्था करना सबसे बड़ा धर्म है। धर्म हमको यही तो सिखलाता है कि हम किसी पर अत्याचार न करें चाहे वह मनुष्य हो या जानवर।


    आज आवश्यकता इस बात की है कि हम गाँव-गाँव में पशु-पक्षी संरक्षणालय खोलें और जनता को पशुओं से प्रेम करने की भावनायें पैदा करें यह सबसे बड़ा धर्म है। जनता में ऐसा आन्दोलन छेड़ें कि जनता पशुओं के अधिकारों को समझ जाये और उनकी रक्षा के लिए सरकार से लड़ाई लड़े यही आज के युग में बहुत बड़ा धर्म है। अब हम रक्षा करना सीखें। अपनी-अपनी रक्षा तो सभी करते हैं लेकिन जो दूसरों की रक्षा करता है वह बहुत बड़ा वीर माना जाता है। बहादुरी अपनी रक्षा करने में नहीं अपितु दूसरों की जान बचाने में है।

    Edited by admin


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    रतन लाल

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    धर्म आत्मा का स्वभाव है

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