रथ आगे बढ़ता जा रहा है। अश्व गतिमान है। गन्तव्य तक पहुँचना है। मंगल का अवसर है। जीवन में वह अवसर, वह घड़ी एक ही बार आती है। उस घड़ी की प्रतीक्षा में लाखों जनता लगी हुई है। यात्री रथ में है, और अबाधित पथ को लांघता हुआ चला जा रहा है। अपने मनोरथ की पूर्ति हेतु संकल्प उसके पास है। लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये वह आतुर है। लेकिन संयत होकर अपने कदम बढ़ा रहा है और कुछ ही दूरी रह गयी है पर लग रहा है कि संकल्प पूरा नहीं हो पायेगा। संकल्प परिवर्तन के योग्य भी नहीं है क्योंकि संकल्प तो जीवन की उन्नति के लिये जीवन के उत्थान के लिये किया जाता है।
संकल्प मात्र जीवन निर्वाह के लिये नहीं होता, वह तो जीवन के निर्माण के लिये होता है। लेकिन मुक्ति के स्थान पर बंधन नजर आने लगे। जीवन परतंत्रता में फंसता चला जाये तो वह संकल्प ठीक नहीं माना जायेगा। आनंद के स्थान पर चीत्कार सुनाई पड़े तो ठीक नहीं। यही बात हुई और उस पथिक ने कहा रोकिये, रथ को रोकिये। रथ रुक जाता है। वह यात्री नीचे उतर जाता है और कहता है कि ठहरिए आप लोग यहीं पर। मैं अकेला जा रहा हूँ और वह अकेला ही आगे बढ़ जाता है।
कोई उसके पीछे जाने का साहस नहीं कर सका। अब क्या संकल्प उसके मन में आया है, यह तो वही आत्मा जानता है या तीन लोक के नाथ जानते हैं। इतना अवश्य सभी के समझ में आ रहा है कि रास्ता बदल गया है। यह वार्ता हवाओं में फैलती चली गयी। सभी चकित हैं कि यह कैसे हुआ। हमने बहुत सोच समझकर मुहूर्त निकाला था लेकिन यह अकस्मात् परिवर्तन कैसे हो गया। सब किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। आप समझ गये होंगे। विवाह का मंगल अवसर था और पशुओं का क्रन्दन सुनकर उन्हें बंधन में पड़ा देखकर नेमिनाथ कुमार ने पथ परिवर्तित कर लिया।
अब जीवन का लक्ष्य बंधन मुक्त होना है। जीवन आज तक बंधनमय रहा, अब बंधन का सहारा नहीं चाहिए। अब आजादी के स्वर कानों में प्रविष्ट हो रहे हैं। मूक पशुओं की आजादी के साथ अपनी कर्म-बंधन से आजादी की बात आ गयी है। निमित्त मिल गया। निमित्त हमें भी मिलता है लेकिन हमारा पथ परिवर्तित नहीं होता और सारी बात सुनकर वहाँ एक दूसरी आत्मा भी उसका अनुकरण करती चली जाती है। वह रास्ता चला गया है गिरनार की ओर। गिरनार पर्वत का नाम पहले ऊर्जयन्त था, बाद में गिरनार पड़ा। राजुल ने जहाँ गिर गिरकर भी अपने संकल्प को नहीं छोड़ा। केवल स्वार्थ सिद्धि के लिये पथ बदलने वाली वह आत्मा नहीं थी।
जो अहिंसा का उपासक है यह उसी पथ पर बढ़ता है जिस पथ में अहिंसा का पोषण होता है। गिरनार के झाड़-झंखाड़ में भी उसे मार्ग प्रशस्त अनुभव हुआ। अहिंसा के पथ का पथिक अपने पथ का निर्माण स्वयं करता चला जाता है। पथ का निर्माण तो चलने से ही होता है। महाव्रती ही अहिंसा के पथ पर चल सकता है। महाव्रती इसीलिए कहा जाता है कि वह अकेला ही महान् पथ पर चल पड़ता है फिर उसके पीछे बहुतों की संख्या चली आती है।
"अयंनिजः परोवेत्ति गणना लघु-चेतसाम् उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।"
यह मेरा है, वह तेरा है, ऐसी मनोवृत्ति संकीर्णता का प्रतीक है। उदार आचरण वाले उदारमना तो सारी वसुंधरा को ही अपना कुटुम्ब मानते हैं, अपना परिवार मानते हैं। ऐसे ही उदार चरित्र वाले मुक्ति के भाजन बनते हैं। जिस पथ के माध्यम से मेरा उद्धार हो और दूसरे का पथ भी प्रदर्शित हो, ऐसे पथ पर वे चलते हैं। भले ही उस पथ पर कंटक बिछे हों। वह पथ मेरे लिये नहीं है जिसके द्वारा हिंसा का पोषण होता हो, जिसके द्वारा जीवों को धक्का लगता हो, जिसके द्वारा जीवन पतित बनता हो, जिसके द्वारा एक दूसरे के बीच दीवार खड़ी हो जाती हो, स्वार्थ परायणता आती हो, वह पथ अहिंसा का पथ नहीं है।
यही कारण था कि तोरणद्वार के पास पहुँचकर भी पथ बदल गया। कानों में वह दयनीय जीवों की आर्त ध्वनि पड़ गयी। लाखों जनता ने भी सुनी लेकिन इस पथिक का पथ बदल गया। मूक प्राणियों की वेदना भरी आवाज वास्तव में यदि किसी ने सुनी तो वे नेमिकुमार थे और उसका अनुकरण करने वाली राजुल थीं। उन्होंने अपना ही नहीं दुनियाँ का पथ प्रदर्शित किया। धन्य हैं अहिंसा के पथ के पथिक, बारात को खुश करने के लिये वन्य जीवों की हिंसा मेरे लिये ठीक नहीं है। आज पर्यावरण प्रदूषण की बात चलती है। बंधुओं! पर्यावरण के प्रदूषण में न वन्य प्राणियों का, न वनस्पति जगत् का, न ही अन्य किसी देवता का हाथ है, यह प्रदूषण मात्र मानव के मनोदूषण से उत्पन्न हो रहा है। अहिंसा के समर्थक जीवों के ऊपर दया करके अपनी सुख सुविधा को छोड़कर सबके कल्याण के मार्ग पर चलने वाले वे उदार-चरित्र नेमिनाथ जैसे महान् पुरुष ही वास्तव में पर्यावरण को सुरक्षित रखने में सहयोगी हैं।
यदि दया है तो जीवन धर्ममय है। दयामय धर्म अहिंसा-धर्म एक वृक्ष की तरह है। शेष सभी सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य उसी के संवर्धन-संरक्षण और पोषण के लिये हैं।
जैन समाज में परिग्रह की बात आती है कि परिग्रह बहुत है। बंधुओ, मात्र धन संपदा का संग्रह करना परिग्रह नहीं है। परिग्रह का अर्थ तो मूछी है। मूछों का अर्थ है गाफिलता, वस्तुओं के प्रति अत्यन्त आसक्ति। दयाधर्म के विकास के लिये शान्ति और आनंद के विस्तार के लिये जो अपने वित्त (धन सम्पदा) का समय-समय पर बूंद-बूंद कर संग्रह किया है यदि उसे वितरण कर देता है तो वह परिग्रह एवं पाप का संग्रहकर्ता नहीं माना जाता है। जैन समाज का इतिहास है, आज तक उसने राजा-महाराजाओं के लिये देश पर विपत्ति आने पर अपने भंडार खोल दिये हैं। संग्रहित धन का वितरण करके सदुपयोग किया है। अपनी इसी संस्कृति का अनुकरण करते हुए आज भी अपरिग्रह वृत्ति को अपने जीवन में लाने का प्रयास करना चाहिए। वीतरागता, उज्ज्वल परिणाम और परोपकार की भावना ही जैन धर्म की शान है।
धम्मो मंगल मुद्विट्ट अहिंसा संजमो तवो |
देवा वि तस्स पणमंति जस धम्मे सया मणो ||
अहिंसा, तप और संयम ही मंगलमय धर्म है। जिसका मन सदा उस धर्माचरण में लगा है उसे देव लोग भी नमस्कार करते हैं। यह जैन धर्म विश्व-धर्म है। आदिनाथ भगवान् के समय जो धर्म था वही तो जैन धर्म है और आदिनाथ भगवान् ही आदिब्रह्मा हैं। जिनका उल्लेख वेदों में आता है और उनके पुत्र भरत के नाम से ही यह देश भारत देश माना जाता है। हमें भी उन्हीं का अनुकरण करते हुए जीवन में अहिंसा को धारण करना चाहिए।
जैनियों ने कभी 'परस्परोपग्रहो जैनानाम्' नहीं कहा। जैनधर्म में तो 'परस्परोग्रहो जीवानाम्' की बात आती है। साम्प्रदायिकता के नाम पर अपने-अपने घर भरना, अपना स्वार्थ सिद्ध करना और अहं को पुष्ट करना ठीक नहीं है। आज अहं वृत्ति नहीं सेवा-वृत्ति को फैलाना चाहिए। जीवन भले ही चार दिन का क्यों न हो लेकिन अहिंसामय हो तो मूल्यवान है जो धर्म के साथ क्षणभर भी जीता है वह धन्य है।
भगवान् ऋषभदेव ने तपस्या के उपरान्त कैवल्य प्राप्त होने पर हमें यही उपदेश दिया कि प्रत्येक आत्मा अपना आत्मकल्याण करने के लिये स्वतंत्र है। हमें सभी जीवों के आत्म कल्याण में करुणावान होकर, दया धर्म से ओतप्रोत होकर परस्पर उपकार की भावना रखकर, यथा संभव मदद करनी चाहिए।