संसाररूपी महान् चक्की में सारा का सारा संसार पिसता जा रहा है, सुख की बाधा और दुख से भीति संसार के प्रत्येक प्राणी को है। फिर भी सुख की प्राप्ति और दुख का अभाव क्यों नहीं हो रहा है ?
जिसने धर्मरूपी कील का सहारा लिया है, जिसने रत्नत्रय का सहारा लिया है, वह तीन काल में पिस नहीं सकता, क्योंकि केन्द्र में हमेशा सुरक्षा रहती है और परिधि में हमेशा घुमाव। सुख के साथ प्राप्त हुआ जो ज्ञान है वह दुख के आने पर पलायमान हो जाता है। कपूर के समान उड़ जाता है। एक दोहा रखा जा रहा है आपके सामने जो आप लोगों को ज्ञात है और कण्ठस्थ भी होगा -
चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।
पिता और पुत्र दोनों हवा खाने जा रहे हैं। दवा खाने नहीं (हँसी), चर्चा चल रही है। पिताजी आध्यात्मिक हैं, दर्शन का अच्छा ज्ञान और उम्र के लिहाज से तो वृद्ध हैं ही और जाते-जाते कहते हैं अपने पुत्र से कि देख ले बेटा! उस ओर जिस ओर मेरी अंगुली है यह चक्की जो चल रही है, यही दशा इस संसार की है।
संसाररूपी महान् चक्की में सारा का सारा संसार पिसता जा रहा है सुख की बाधा और दुख से भीति संसार के प्रत्येक प्राणी को है, फिर भी सुख की प्राप्ति और दुख का अभाव क्यों नहीं हो रहा है? इसलिए नहीं हो रहा है क्योंकि बेटा-यह संसारी प्राणी संसार में ही रुलता रहा है। इसको दुख का अनुभव करना ही होगा क्योंकि दो पाटों के बीच में धान का दाना साबुत नहीं बच सकता। बेटा कहता है पिता जी जरा इस पर भी तो ध्यान दो, एक दोहा और भी तो सुनने में आता है
चलती चक्की देखकर करत कमाल ठिठोय |
जो कीले से लग गया मार सके नहिं कोय ||
पिता जी-यह कोई एकान्त नहीं है, यह कोई सिद्धांत/नियम नहीं है कि संसार के सारे के सारे प्राणी दुख का ही अनुभव करते हैं। कौन कहता है कि संसार के सारे जीव जन्म-मरण रूपी पाटों के बीच पिसते ही रहेंगे? जिसने धर्मरूपी कील का सहारा ले लिया है, जिसका जीवन ही धर्म बन गया है उसके लिए ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है दुनियाँ में जो मार सके, संसार में भटका सके। पिता जी इस रहस्य को हर कोई नहीं जानता और इस रहस्य को जानने की चेष्टा भी नहीं करता। इस संसारी प्राणी की क्या स्थिति है? तो आचार्य समन्तभद्र जी स्वयम्भू स्तोत्र में कहते हैं कि-
विभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो, नित्यं शिवं वाञ्छति नाऽस्य लाभः ।
तथापि बालो भयकामवश्यो, वृथा स्वयं तष्यत इत्यवादी:॥
यह अज्ञानी प्राणी मृत्यु से डरता है किन्तु उससे उसे छुटकारा नहीं मिलता और निरन्तर मोक्षसुख को चाहता है किन्तु उसकी प्राप्ति उसे नहीं होती फिर भी भय और काम के वशीभूत हुआ यह अज्ञानी प्राणी कष्ट सहता रहता है। वह कहता है पिता जी इन परिस्थितियों से वही डरता है जो इस रहस्य को नहीं जानता और वही इस संसार रूपी चक्की में पिसता रहेगा। इस रहस्य को जानने वाला ही इस संसार समुद्र से पार उतर सकता है। ऐसी कोई.कहीं से नौका नहीं आने वाली जो पार करा दे।
कबीर और कबीर का पुत्र, नाम क्या है भैया? जब कोई अच्छा कार्य करता है तो आप कहते हैं कि वाह.आपने तो ' कमाल' कर दिया! कमाल कर दिया!! कमाल कर दिया!!! समझ में नहीं आता था मुझे इसका मतलब, अब ज्ञात हुआ कि जब पिता जी से भी आगे बढ़ जाता है बेटा, तब उसका नाम पड़ता है 'कमाल'। वह पिताजी से कैसे आगे बढ़ता है देख लीजिए आप, यदि आप भी उसके अनुसार कमाल करें तो आपका भी नाम हो जाएगा कमाल! लेकिन आप लोग कुछ कमाल का काम नहीं करते। वह कहता है पिता जी ऐसी बात नहीं है। यह जो चक्की का उदाहरण आपने दिया वह उदाहरणाभास है, दृष्टान्त जो दिया वह दृष्टान्ताभास है, कैसे है बेटा? उत्सुकता जाग्रत हुई कम से कम देख तो लिया जाए क्या कहता है? लेकिन ऐसी गहराई में पहुँचा दिया कमाल ने कबीर को। वाह बेटा! कमाल कर दिया तुमने ऐसा कह दिया उन्होंने-ऐसी दृष्टि दी मुझे कि संसार को सुखी कैसे बना दिया जाए, दुख का अभाव कैसे हो? तो कहीं भागने की आवश्यकता नहीं है उसी चक्की में रहिए लेकिन चक्की के चक्कर में मत आइए। आप लोग चक्कर में आ जाते हैं इसलिए पिस जाते हैं। उस ही चक्की में रहिए लेकिन कहाँ पर रहिए? आजकल चक्की तो है नहीं, क्या बताएं? आप लोग पीसते ही नहीं।
एक बार देखा था, जिस समय छोटा था, जो चक्की चलाने वाला था, वह बीच-बीच में हाथ डालकर यूँ यूँ (हाथ का इशारा) करता था, मैंने सोचा धान तो डालता नहीं है और अँगुली डालकर यूँ-यूँ करता है, क्या ये भी कमाल कर रहा है? उसके अन्दर अंगुली ले जाने की क्या आवश्यकता थी? तो हमने पास जाकर देखा चक्की चल रही है और वह बीच-बीच में यूँ-यूँ करता था। यूँ-यूँ करते-करते जो धान के दाने वहां नहीं जा रहे थे रुके हुए थे तो अँगुली के माध्यम से वे चक्की के चक्कर में आ जाते और पिस जाते, हमने सोचा वाह भाई वाह! धान में भी कमाल है और इसकी अंगुलियों में भी कमाल है क्योंकि अपनी अँगुली तो सुरक्षित बचा लेता है। कील का सहारा जिसने ले लिया उसको कोई कह नहीं सकता कि तूपिस जायगा। चाहे हजार बार चक्कर क्यों न लग जाए। केन्द्र में हमेशा सुरक्षा रहती है और परिधि में हमेशा घुमाव रहता है, केन्द्र में द्रव्य का अवलोकन होता है।
सुख और दुख यह सब अपनी-अपनी दृष्टि के ऊपर निर्धारित है। संसार में जितने जीव रहते हैं सभी को दुख होता है ऐसी बात नहीं है। ध्यान रखिये जेल में सबको दुख नहीं होता, जो कैदी हैं जिसने अपराध किया है, जो न्याय-नीति से विमुख हुआ है, जिसको जेल में बंद कर दिया है उसे ही दुख होता है किन्तु उस ही जेल में, उन्हीं सीखचों के अन्दर जेलर भी रहता है किन्तु उसको रंचमात्र भी दुख नहीं होता। उस जेलर को क्यों दुख नहीं होता? और कैदी को दुख क्यों? तो बंधन कैदी के लिए है जेलर के लिए नहीं। मजे की बात तो यह है कि कैदी फिर भी रात में आराम की नींद सो सकता है किन्तु रखवाली करने वाला जेलर सोता तक नहीं फिर भी खुश रहता है और प्रभु से यही प्रार्थना करता रहता है कि हे भगवन्! यह जेल कभी न छूटे इसमें हमारा दिन दूना-रात चौगुना विकास होता रहे किन्तु एक सुख का अनुभव कर रहा है और एक दुख का। इसका अर्थ यह हुआ कि सुख और दुख का अनुभव करने में कारण व्यक्ति की विचारधारा ही बनती है, मन की स्थिति के ऊपर ही आधारित है उसका संवेदन, बिना उपयोग के वह सुख और दुख संभव नहीं। समयसार में 'आचार्य कुन्दकुन्द देव' कहते हैं कि उपयोग की धारा जब भाव रूप में परिणत हो जाती है अर्थात् उन-उन पदार्थों की ओर अथवा कर्मफल की और वह जाती है, तो उस समय उस भाव के द्वारा कर्म का समार्जन हुआ करता है अन्यथा इन कर्मों को कोई बुला नहीं सकता। उदयमात्र बंध का कारण नहीं है किन्तु अपने अन्दर विद्यमान राग-द्वेष-विषय-कषाय एवं पर पदार्थों में ममत्व बुद्धि का होना ही बंध का कारण है। वस्तु बंध के लिए कारण नहीं है बल्कि उस वस्तु के प्रति हमारा जो अध्यवसान भाव है वही बंध का कारण है।
संसार में रहना तो अपराध है ही किन्तु संसार में लीन होकर रहना और महा अपराध है। इस अपराध से छुड़ाने के लिए ही संत लोग हमारे लिए हितकारी मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं उनका जीवन, उनका साहित्य भी हमें एक नई दिशा नया बोध दे रहा है, यह सारा का सारा उन्हीं के परिश्रम का फल है।....कमाल हो गया कबीर को ज्ञान हो गया कि वस्तुत: बात सही है कि जिसने धर्मरूपी कील का सहारा ले लिया रत्नत्रय का सहारा ले लिया, तो वह तीन काल में पिसेगा नहीं, चक्की के चक्कर में आएगा नहीं। संसार में आवागमन करते हुए भी जिसने संयम का आधार ले लिया अब उसको भटकाने-अटकाने वाली तीन लोक में कोई शक्ति नहीं। दूसरी बात यह है कि जहाँ कहीं भी धर्मात्मा पुरुष चला जाएगा वहाँ जाने से पहले लोग स्वागत सत्कार के लिए खड़े रहेंगे और हाथ जोड़कर कहेंगे कि किधर से आ रहे हैं आप? आइये हम आपकी सेवा के लिए तैयार हैं, हमारी सेवा मंजूर कर हम सभी को अनुग्रहीत कीजिए। महान् पुण्यशाली, महान् धर्म के आराधक होने का यह परिश्रम है कि जहाँ कहीं भी धर्मात्मा चला जाये पग-पग पर उसकी पूजा हुआ करती है किन्तु जिसने धर्म का सहारा नहीं लिया ‘खाओ पीओ मौज उड़ाओ' वाली बात जिसके जीवन में है उसे तो कुछ समयोपरान्त पग-पग पर ठोकरें खाना पड़ेगी और अनंतकाल तक इसी संसार रूपी चक्की में ही पिसना पड़ेगा। असंयमी का जीवन महान् संक्लेशमय कष्टदायक होगा और एक समय ऐसी स्थिति आ जायेगी जैसी गर्मी के दिनों में होती है। छाया में आप बैठे हो आराम के साथ प्रवचन सुन रहे हो और यदि छाया नहीं होती तो क्या स्थिति होगी? ठीक वैसी ही स्थिति संयम के अभाव में संसारी प्राणी की होती है। ध्यान रखें संयोगवश कभी यह जीव देवगति में भी चला जाता है तो वहाँ पर भी संयम के अभाव में प्राप्त हुए इन्द्रिय सुखों के छूटते समय और अपने से बड़े देवों की विभूति को देखकर संक्लेश करता है जिस संक्लेश का परिणाम है कि उसका अध: पतन ही हुआ करता है और उसे दुख सहना पड़ता है।
'विषय चाह दावानल दह्यो, मरतविलाप करत दुख सह्यो' (छहढाला/पहली ढाल) जो सुख मिला है वह आत्मा के द्वारा किए हुए उज्ज्वल परिणामों का परिणाम है और जो दुख मिला है वह भी आत्मा के द्वारा किए हुए अशुभ परिणामों का फल है। यह संसार एक झील की भाँति है जो सुखदायक भी है और दुखदायक भी है। यदि नौका विहार करके झील को पार किया जाये तो आनन्द की लहर आने लगती है किन्तु असावधानी करने से सछिद्र नाव में बैठने से प्राणी उसी झील में डूब भी जाता है। इस बात को आप उदाहरण के माध्यम से समझ लीजिए, समय ज्यादा नहीं लेना है, बस थोड़े में ही कमाल करना है
अब देख लीजिए आप एक व्यक्ति Underground में है, उसका पालन-पोषण शिक्षण सब Underground में हो रहा है Ground भी Underground में बने हुए थे। आना-जाना, खाना-पीना, सोना, उठना-बैठना सब Underground में ही होते थे। वहाँ पर सारी की सारी व्यवस्था वातानुकूल (एयर कण्डीशन) और मनोनुकूल (मन के अनुरूप) थी। उनके लिए प्रकाश की व्यवस्था कैसी थी? सूर्यप्रकाश और बिजलियों का प्रकाश सहन करने की क्षमता उनकी आँखें में नहीं थी, देखते ही ऑखों में पानी आ जाता था, इसलिए हीरा-मोती वगैरह से बने हुए रत्नदीपक का प्रबन्ध रहता था, रत्नदीपक के प्रकाश में ही जिनका जीवन पल-पल, पल रहा था, बाहरी वातावरण को सहन करने की शक्ति जिनके शरीर में नहीं थी और यदि छोटा सा सरसों का दाना भी बिस्तर पर आ जाए तो उन्हें रात भर नींद नहीं आती थी। मुझे समझ में नहीं आता कि वहाँ पर सरसों का दाना गया ही क्यों? लेकिन सुख की उत्कृष्टता दिखलाने के लिए कवियों ने भेजा है। यह ध्यान रखना उनका शरीर इतना कोमल था कि सरसों का दाना तो फिर भी ठीक है यदि मुझसे पूछा जाय तो मैं तो यही कहूँगा कि मखमल के जो बाल हैं वह भी चुभते होंगे उनको। इससे संबंधित एक बात और सुनाऊँगा बाद में।.उनको भोजन के लिए कमल पत्रों में रखे हुए चावल का ही भात बनता था और उसे भी वह एक-एक दाना चुगते थे क्योंकि अन्य विधि से भात बना दिया जाये तो उन्हें हजम नहीं होता था, पेट में दर्द हो जाता था। अब आगे और कमाल की बात सुनाऊँ कि वह इतने सुकुमाल थे कि यदि उनके सामने ककड़ी का नाम ले दिया जाये तो उन्हें जुकाम हो जाता था (श्रोता समुदाय में हँसी). खाने की बात तो बहुत दूर रही। इस प्रकार होते हुए उनका जीवन कैसे चल रहा था, भगवान ही जाने। उनकी माँ थी, पत्नियाँ भी थी, सब कुछ कार्यक्रम जैसा आपका चल रहा है वैसा ही चलता था।
किन्तु समय ने पलटा खाया अब ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है उन्हें, जीवन के अन्दर एक किरण जाग्रत होती है, रत्नदीपक की किरणें तो मात्र बाहरी देश को आलोकित करती थीं, किन्तु भीतरी देश को प्रकाशित करने की क्षमता उनमें नहीं थी। अतः भीतरी देश को प्रकाशित करने के लिए ज्ञान की, वैराग्य की किरणें फूटती हैं। आत्मा के अन्दर उन किरणों ने कमाल कर दिया, जीवन की रूपरेखा ही बदल दी, अज्ञान अन्धकार समाप्त हो चुका, इसलिए रात्रि में वह चुपचाप उठता है, पत्नियाँ सोई हुई थी, इधर-उधर देखता है, रेशम की साड़ियाँ रखी हुई दिख जाती हैं, उन सभी को एकत्रित कर एक दूसरे से गाँठ बांध एक खिड़की से बांध देता है और बिना किसी से कहे साड़ियों के सहारे नीचे उतरना प्रारंभ कर देता है। जिसके पैर आज तक सीढ़ियों पर नहीं टिके आज वही रस्सी का Balance संभाले हुए है। एक साथ तो नीचे नहीं आए क्योंकि कार्य की पूर्णता क्रमश: हुआ करती है, ये सब क्रियायें कुछ समय को लेकर हुआ करती हैं, एक समय में नहीं हुआ करती। सभी कार्यों के लिए समय अपेक्षित रहता है बस केवल ज्ञान एवं वैराग्य जाग्रत होना चाहिए। प्रत्येक कार्य संपादित हुआ करते हैं और होते ही रहते हैं, असंभव कोई चीज नहीं है।
एक उदाहरण छोड़ दिया था हमने! कौन-सा है. हाँ रत्न कम्बल, जिसे ओढ़ने-बिछाने के लिए खरीदा था जिसको खरीदने की क्षमता वहाँ के राजा की नहीं थी। इतना अमूल्य था वह जिसे देखकर उसकी कीमत सुनकर राजा कहता कि यदि इसे खरीद लूतो मेरा सारा का सारा भण्डार खाली हो जायेगा, ले जाओ इसको मैं इसे नहीं खरीद सकता। उस रत्न कम्बल को उसी नगर में रहने वाले सेठजी ने खरीद लिया और बेटा सुकुमाल को उपयोग करने दे दिया लेकिन वह दूसरे ही दिन कहता है कि पिताजी इसके बाल मुझे चुभते हैं। कोई बात नहीं बेटा इसको अब हम वापिस तो नहीं कर सकते अत: माता-पिता ने अपनी बहुओं (सुकुमाल की पत्नियों)के लिए जूतियाँ बनवा दी...।
अब बोलिए आप! इनके सुख वैभव की पराकाष्ठा। इतना कोमल शरीर था किन्तु आज वही नंगे पैरों चला जा रहा है, पगतल लहूलुहान हो गए, कोमल-कोमल पगतल होने के कारण लाल-लाल खून बहने लगा, कंकर-काँटें चुभते जा रहे थे फिर भी दृष्टि नहीं उस तरफ और अविरल रूप से आत्मा और शरीर के पृथक्-पृथक् अस्तित्व की अनुभूति करने के लिए कदम बढ़ रहे थे, बाहर की ओर दृष्टि नहीं है यदि है तो वह कहती है कि यह मेरा स्वभाव नहीं है। चलिए मंजिल तक पहुँचना है और वह पगडंडी ढूँढ़ता-ढूँढ़ता एकाकी चला जाता है उस ओर जिस ओर से मांगलिक आवाज आ रही थी, जिस ओर अपना काम होना था।
वीतराग मुद्रा को धारण करने वाले एक मुनि महाराज से साक्षात्कार हो जाता है। रागी और विरागी का अनुपम मिलन! वह भी वीतरागी बनने के अभिमुख हुआ है, पगतल से खून निकल रहा है फिर भी काया के प्रति कोई राग नहीं, आह की ध्वनि तक नहीं आ रही है ओठों तक.और भीतर में भी रागात्मक विकल्प तरंगें नहीं उठ रही हैं। वह सोच रहा है तीन दिन के उपरान्त तो इस शरीर का अवसान होने वाला है, बहुत अच्छा हुआ, मैं अन्त समय में तो कम से कम इस मोहनिद्रा से उठकर सचेत हो गया और महान् पुण्य के उदय से सच्चे परम वीतराग धर्म की शरण मिल गयी। अब मुझे कुछ नहीं करना है, आत्म कल्याण करने के लिए बस उस उपादेयभूत वीतरागता को प्राप्त करना है, जो कि इस संसार में सर्वश्रेष्ठ और सारभूत है। जिसकी प्राप्ति के लिए स्वर्गों के इन्द्र भी तरसते रहते हैं, जिस निग्रंथ दशा के माध्यम से केवलज्ञान की उत्पत्ति होने वाली है, अक्षय अनंत ज्ञान की उपलब्धि मुनि बनने के बाद ही होती है। इस शुद्धात्मा की अनुभूति के लिए हमें राग-द्वेष विषय कषाय इन सभी वैभाविक परणतियों से हटना होगा, तभी हम उस निर्विकल्पात्मक ज्ञानीपने को प्राप्त कर सकेंगे। उस ज्ञानी आत्मा की महिमा क्या बताऊँ -
णाणी रागप्पजहो, सव्वदव्वेसु कम्म मज्झगदो।
णो लिप्पदि कम रयेण दुखकष्ट्रुम मज्झे जहा कणयं॥२२९॥
अण्णाणी पुण रत्तो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो।
लिप्पदि कम्मरयेण दुख, कडूममज्झे जहा लोहं॥२३०॥
(समयसार/निर्जराधिकार)
कितनी सुन्दर हैं ये गाथा। आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि ज्ञानी वह है जो कर्मों के बीच में, विषयों के बीच में रहता हुआ भी अपने स्वभाव में रहता है जैसे कीचड़ के बीच में स्वर्ण रहते हुए भी अपने गुण धर्म को नहीं छोड़ता, निर्लिप्त रहता हुआ सदा अपने स्वरूप में ही स्थिर रहता है। जगत-जगत में रहता है किन्तु वह ज्ञानी जगत में भी जगत (जागृत) रहता है; अपने आप में जागृत रहता है औरों को भी जगाता है। वह अपनी आत्मभक्ति में ही दौड़ता चला जाता है, भागता रहता है और स्वभाव में लीन हो जाता है। बाहरी भागना यह पर्याय दृष्टि का प्रतीक है और भीतर ही भीतर भागना, भीतर ही भीतर विहार करना यह यथाख्यात विहार, विशुद्धि संयम का प्रतीक है। वह अपनी आत्मा में ही विहार करता जा रहा है। कोई तकलीफ नहीं कोई परेशानी नहीं। देख लीजिए मुनि महाराज के मुख से वचन सुनकर दिगम्बर दीक्षा धारण कर लेता है। दीक्षा लेने के उपरान्त और क्याक्या होता है, अब देखेंगे आप कमाल की बात- अब सूत्रपात होता है मोक्षमार्ग का। उपसर्ग और परीषहों से गुजरने वाला ही मोक्षमार्गी होता है। आचार्य कुन्दकुन्द देव, आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने अपने अध्यात्म ग्रन्थों में लिखा है कि जो सुख के साथ प्राप्त हुआ ज्ञान है वह दुख के आने पर पलायमान हो जाता है, कपूर के समान उड़ जाता है और जो कष्ट-दुख परीषह झेलकर ज्ञान अर्जित किया जाता है वह अनुकूल-प्रतिकूल वातावरण में भी स्थायी बना रहता है। ध्यान रखो पौधे को मजबूत करना है, तैयार करना है, अंकुरित बीज का विकास करना है तो मात्र खाद पानी ही पर्याप्त नहीं है उसे प्रकृति के अन्य वातावरण की भी आवश्यकता रहती है। यदि आप सोचते हो कि बीज को छाया में बोने से अच्छी सुरक्षा हो जाएगी, किन्तु यह ध्यान रखना वह बीज अंकुरित तो होंगे लेकिन पीले-पीले हो जायेंगे, टी०बी० के मरीज जैसे उसमें खून नहीं रहता है, उसमें ओज नहीं रहता है, किन्तु वही बीज यदि खुले मैदान में वो दिया जाये, खाद पानी मिले, सूर्य प्रकाश भी मिले तो वह पीला नहीं हरा-भरा रहता है। और वह सूर्य की प्रखर किरणों से दावे के साथ कहता है मेरे पास अब वह हिम्मत है कि मैं तुम्हें सहन कर सकता हूँ और तुम्हें पचाने के उपरान्त हमारा विकास ही होगा, विनाश नहीं।
इसलिए जिस प्रकार पौधे को पुष्ट बनाने के लिए, हरा-भरा बनाने के लिए कठिनाइयों से गुजरने की आवश्यकता पड़ती है ठीक उसी प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र को पुष्ट बनाने के लिए उपसर्ग और परीषहों से गुजरने की आवश्यकता पड़ती है। ज्ञान में विकास, ज्ञान में निखार एवं मजबूतपना चारित्र के माध्यम से आता है। आज तक ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो उपसर्ग और परीषह को जीते बिना केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्ध परमेष्ठी बन गया हो। महाराज भरत चक्रवर्ती को तो सिद्ध पद प्राप्त हुआ है। भैया! ग्रन्थ खोलकर देखिए तो मालूम पड़ जायेगा कि मुनि बने बिना तो उन्हें केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है। पर हाँ.यह बात जरूर है कि उन्हें अल्पकाल में केवलज्ञान प्राप्त हो गया लेकिन अल्पकाल होकर के भी छट्टा-सातवाँ, छट्टा-सातवाँ, सहस्त्रवार गुणस्थान परिवर्तित होता है यह आवश्यक है। आराधना के बिना संभव नहीं है, अल्पकाल हो या चिरकाल किन्तु आराधना के बिना आत्मा का उद्धार होने वाला नहीं है।
संयम को धारण करके कोमल-कोमल काया वाला वह सुकुमाल दीक्षित होकर जंगल में चला जाता है। ध्यान में एकाग्रचित होकर खड़े हो जाते हैं किन्तु पूर्वजन्म के बैर से बंधी हुई उसकी भावज रास्ते में पड़े हुए खून के दाग सँघती हुई उसी स्थान पर पहुँच जाती है जहाँ पर मुनिराज सुकुमाल स्वामी ध्यान मग्न थे। उनके असाता कर्म के तीव्रोदय से एवं स्वयं वैर के वशीभूत होकर उस स्यालिनी को क्रोध आ गया और वह झपट कर बच्चों सहित मुनिराज की काया को विदीर्ण करने लगी, खाने लगी, उसके साथ उसके छोटे-छोटे दो बच्चे भी थे।
"एक स्यालनी जुग बच्चायुत पाँव भखयो दुखकारी।" (समाधिमरण पाठ) बड़ा वाला समाधिमरण पाठ है उसमें बहुत अच्छा विश्लेषण है उपसर्गों का और उन उपसर्गों को सहन करने वाले मुनियों के नाम भी दिए हैं। तो उस समय सुकुमाल मुनि और उनके दोनों पैरों को वह स्यालिनी खाना प्रारंभ कर देती है। अभी-अभी उदाहरण दिया गया था कि उन महाराज जी को चीटियाँ काट रही थी, वो महाराज जी तो हट्टे-कटे होंगे लेकिन हमारे महाराज तो भैया!. कमाल की बात है सुकुमाल की बात है और दूसरी बात यह है कि वहाँ पर चीटियाँ खाती थी किन्तु यहाँ पर स्यालिनी खाती है और वह भी जुग बच्चा युत। तीसरी बात यह है कि वहाँ पर चीटियाँ घी खाती थी और यहाँ पर घी नहीं खाती, Direct (सीधे) अन्दर जो मांसपेशियाँ हैं उन्हें अपना भोजन बना रही हैं। इस प्रकार तीन दिन तक अखंड उपसर्ग चला जो अपवर्ग का सोपान माना जाता है स्वर्ग का तो है ही। जिसके द्वारा स्वर्ग और मोक्ष के कपाट खोले जाते हैं।
....धन्य है वह जीव जिसको सरसों का दाना चुभता था, सूर्य प्रकाश को भी सहन करने की क्षमता जिनकी आँखों में नहीं थी और जिसमें यह बल नहीं था कि वह मोटे-मोटे चावलों से बने भात को खा सके और उन्हें पचा सके और वही संहनन वही काया सब कुछ वही, क्योंकि एक बार प्राप्त होने के उपरान्त जीवनपर्यन्त संहनन बदलता नहीं उसमें कोई Change नहीं, कोई गया, यह भीतरी अंतर है परिणामों की बदलाहट है। भीतरी गहराई में जब आत्मा उतर जाता है तब किसी प्रकार का बाहरी वातावरण उस पर प्रभाव नहीं डाल सकता।
"आचार्य वीरसेन" स्वामी ने एक स्थान पर कहा है कि जब एक अनादिकालीन संसारी प्राणी मिथ्यात्व से ऊपर उठने की भूमिका बनाता हुआ उपशमकरण करना प्रारंभ करता है तो ध्यान रखो। उस समय तीन लोक की कोई शक्ति उस पर प्रहार नहीं कर सकती, किसी भी प्रकार के उपसर्ग का
उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला और उपसर्ग की स्थिति में भी उसकी मृत्यु तीन काल में संभव नहीं है। यह सब माहात्म्य आत्मा की विशुद्धि, भीतरी परिणति का है। आत्मानुभूति के समय बाहर कुछ भी होने दीजिए किन्तु अंदर बसंत बहार चलती रहती है। कुछ लोग काश्मीर जाते हैं, कुछ लोग धूप का चश्मा पहनते हैं, मान लीजिए किसी को यह साधन नहीं मिला तो हम कहते हैं कि भीतरी वस्तु का विचार करिए और शिखर के ऊपर जाकर बैठ जाइये, जेठ की तपती दुपहरी हो तो भी वहाँ पर काश्मीरी तलहटी से कम नहीं.! उससे भी अधिक बसंत बहार बहना प्रारम्भ हो जायेगी। यह धारणा का ही परिणाम है, आस्था/विश्वास का ही परिणाम है। जिस भावना का प्रभाव जब दूसरे पर पड़ सकता है यहाँ तक कि जड़ पदार्थ पर भी पड़ सकता है.तो फिर क्या चेतन आत्मा के ऊपर प्रभाव नहीं पड़ सकता? धन्य है वह एकत्व की भावना, वह भावना कैसी थी -
अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइओ सदा रूवी।
णवि अत्थि मज्झ किंचिवि, अण्णं परमाणुमित्तंपि॥
(समयसार/४३)
धन्य है Underground में रहने वाले आज चौपात पर हैं, शिलाओं पर हैं। आज स्यालिनी के द्वारा शरीर खाया जा रहा है,लेकिन वह भाग्यशाली भीतर से बाहर नहीं आता। देखा तक नहीं कि स्यालिनी कुछ कर रही है। यदि छठे गुण स्थान में आ भी जाते हैं तो कहते हैं कि तेरी खुराक तू खा ले, मेरी खुराक मैं खा रहा हूँ। धन्य हैं वे. क्या परिणाम हैं? मैं सोच रहा हूँ कि आप तो उनसे अधिक बलवान हैं, उनको तो पसीना जल्दी आ जाता था लेकिन आप तो.यहाँ पर डेढ़ घण्टा हो रहा है और ज्यों के त्यों बैठे हुए हो, आसन में फर्क नहीं आया, यह बात अलग है कोई जगह नहीं मिलने से नहीं बदली है। परिणामों की विचित्रता है, अपने परिणामों को शरीर से पृथक् कर आत्मा की ओर तो कम से कम कर लीजिए। आप प्रवचन सुनते हैं, भगवान का अभिषेक पूजन करते हैं स्वाध्याय भी करते हैं लेकिन इसका धर्म क्या ? इसका अर्थ क्या है? यह किस प्रकार के भावों से किया जाए? यदि आप इस क्रिया को विशुद्धता पूर्वक संकल्प लेकर के करते हो तो असंख्यातगुणी निर्जरा एक सैकेण्ड में कर सकते हो। वह सम्यग्दृष्टि जीव आठ मूलगुणों का पालन कर सकता है। बारह व्रतों को ग्रहण कर सकता है और आठ वर्ष की उम्र से लेकर पूर्व कोटि वर्ष तक पालन कर सकता है। इस प्रकार जीवनपर्यन्त निर्दोष व्रतों का पालन करते रहने से उस असंयत सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा देशव्रती तिर्यच-मनुष्य की असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा प्रतिसमय होती रहती है। किन्तु समस्त पूर्ववर्ती आचार्यों ने तो असंयत सम्यग्दृष्टि के लिए यही कहा है कि उसकी गुणश्रेणी निर्जरा तो सिर्फ सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति काल में ही हुआ करती है अन्य समय में नहीं।. सामान्य निर्जरा का होना अलग बात है।
गणेशप्रसादजी वर्णी कहा करते थे, देखो! ध्यान रखो कोई असंयत सम्यग्दृष्टि चक्रवर्ती है और वह भी सामायिक कर रहा है लेकिन उससे भी अधिक असंख्यात गुणी निर्जरा एक मामूली तिर्यञ्च जो घासोपयोगी है उसकी हुआ करती है। बड़ा अच्छा शब्द प्रयोग किया है वर्णीजी ने ‘घासोपयोगी' अर्थात् सिर्फ घास खाने में जिसका उपयोग है वह चक्रवर्ती से भी असंख्यात गुणी निर्जरा कर सकता है, यह किसका परिणाम है तो आचार्य कहते हैं कि यह देश संयम का परिणाम है क्योंकि तिर्यञ्च देश संयम से ऊपर उठने की सामथ्र्य नहीं रखते हैं। सकल संयम पालन करने की योग्यता मनुष्य पर्याय में ही संभव है। सकल संयम धारण करने से क्या होगा?. तो जिस समय वह अणुव्रती सामायिक में बैठा है चाहे महान् उपसर्ग को सहन करने वाला वह सुदर्शन सेठ क्यों न हो और एक मुनिराज या तो शयन कर रहे हैं या भोजन कर रहे हैं या फिर किसी शिष्य को डाँट रहे तो भी उनकी उस सामायिक में लीन देशव्रती से असंख्यात गुणित निर्जरा होती है। मैं पूछना चाहता हूँ शयन के समय, भोजन के समय, शिष्य को डाँटते समय में भी असंख्यातगुणी निर्जरा!. हाँ भैया! दुकान कौन सी है देख लो।
जिस प्रकार कई वर्षों के उपरान्त भी जौहरी की दुकान में ग्राहक आ जाने से दोनों (ग्राहक और दुकानदार) मालामाल हो जाते हैं, उसी प्रकार मोक्षमार्ग में भी। सामान्य दुकानदारों की तरह उस जौहरी की दुकान में उठक-बैठक नहीं हुआ करती है, ग्राहक के लिए भी बढ़िया गद्दी तकिया बैठने के लिए मिल जाती है, नौकर चाय-पान लाता है, बाद में अपना कीमती नग दिखाया जाता है, साइज में बहुत छोटा होता है, हाथ से उसे छू नहीं सकते.केवल दूर से ही देख सकते हैं फिर भी उसकी कीमत क्या है ? एक लाख .....दो लाख....तीन लाख इतनी अधिक होती है | "हाँ हीरा मुख से कब कहे लाख हमारा मोल"| बस उसके ऊपर जैसे जैसे पहलू निकलते चले जाते हैं, वैसे-वैसे उसका मूल्य बढ़ता चला जाता है। जिस प्रकार पंखे की हवा में बैठे रहने वाले उन हीरे-जवाहरात के व्यापारियों के लिए १ मिनट में करोड़ों की आमदनी हो जाती है बिना पसीना बहाए, उसी प्रकार मोक्षमार्ग में भी जैसे-जैसे एक-एक गुणस्थान बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे विशुद्धि बढ़ने के कारण असंख्यात गुणित कर्मों की निर्जरा बढ़ती जाती है। प्रशस्त पुण्य प्रकृतियों का बंध होता जाता है, परिश्रम कम होता जाता है एवं लाभ अधिक बढ़ता जाता है।
इसी प्रकार से एक-एक लब्धिस्थान बढ़ाते हुए मुनिराज सुकुमाल स्वामी कायोत्सर्ग में लीन थे। कायक्लेश तप भी एक महान् तप माना गया है किन्तु उन आत्मध्यानियों के लिए क्या कायक्लेश, उनका तो आत्मचिंतन चल रहा था, बाहर क्या हो रहा हैं पता भी नहीं था। बुन्देलखण्डी भाषा में काय अर्थात् क्या है क्लेश, तो कुछ भी नहीं है। क्लेश तो Underground में था यहाँ आने पर अब कुछ भी नहीं है। आप आगम के हर पहलुओं पर चिंतन करके देखेंगे तो ज्ञात होगा कि जो आभ्यन्तर तप के अलावा कायक्लेश आदि बाह्य तप है वह भी कर्म-निर्जरा कराने में कारण है। वह प्रवृत्ति, वह बाह्य तप भी शुभोपयोगात्मक है जो शुभोपयोग बंध की अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा कराता है और परम्परा से मोक्ष का कारण है किन्तु साक्षात् कारण तो शुद्धोपयोग ही है लेकिन यह बात भी ध्यान रखना उस शुद्धोपयोग का उपादान कारण तो शुभोपयोग ही है। सम्यग्दृष्टि साधक की जो कायक्लेश के माध्यम से निर्जरा होती है उसे वह क्लेश के रूप में नहीं देखता। छहढाला की वे पंक्तियाँ याद करने योग्य हैं उन्हें पुन: ताजा कर लीजिए।
"आतम हित हेतु विरागज्ञान ते लखे आपको कष्टदान।"
(छहढाला/दूसरी ढाल)
जो मिथ्यादृष्टि हैं जिसकी बाहरी दृष्टि है वह वीतराग विज्ञान को क्लेश की दृष्टि से देखा करता है किन्तु सम्यग्दृष्टि मुमुक्षु प्राणी निर्जरा तत्व की ओर देखता है तब कहीं जाकर उसकी आमदनी ज्यादा होने लगती है। बंधुओ! अब आप लोगों को भी इस प्रकार की दुकान खोलना चाहिए। जिसमें आराम के साथ बैठे-बैठे काम कम करना पड़े और माला-माल हो जाए किन्तु आप लोग तो तेल, नोन, लकड़ी रखने वाले किराने की दुकान वाले हैं, जिसमें कालीमिर्च धनिया, जीरा बेचते रहते हैं। पाँच-पाँच पैसे के लिए बार-बार उठते-बैठते रहते हैं, कोई ग्राहक आता है मान लो आपकी उम्र से बहुत कम उम्र वाला एक छोटा सा लड़का आया है पाँच पैसे लेकर, वह कहता है एक पैसे का तो गुड़ दे दो और एक पैसे का कुछ और दे दी. बाकी पैसे वापिस कर दो। तो उसमें भी आप उठक-बैठक करेंगे, दस बार हाथ धोयेंगे और वह भी ठंड के समय पौष माह में (श्रोता समुदाय में हँसी) भले ही हाथ ठिठुर जाए और उसे ठीक करने में पैसे खर्च हो जायें। यह स्थिति आप आपकी दुकान से सेठ-साहूकार बनना मुश्किल है, आपकी दुकान में डेढ़ गुनी हानि वृद्धि का क्रम चलता रहता है। वह क्रम तो ऐसा होता है कि जैसा का तैसा ही रहता है उसमें वृद्धि नहीं होती तो इस प्रकार की हीन विशुद्धि वाले व्यापारियों को केवलज्ञान तीन काल में हो ही नहीं सकता, इसलिए संयम यह कहता है कि एक सैकेण्ड में करोड़ों की आमदनी।
इसको कहते हैं वीतराग विज्ञान का फल जो सुकुमाल स्वामी को प्राप्त हुआ, उनके द्वारा मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने के लिए एक आकस्मिक प्रयोग किया गया, जो सफल हुआ। जिसे प्राप्त करने उनकी एक धारणा थी, भावना थी, यह एक साधना का ही परिणाम था जो उत्तरोतर बढ़ता चला गया। और ऐसे महान् उपसर्ग को जीतकर उन्होंने सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त किया एवं अल्प समय में ही मोक्ष सुख प्राप्त करेंगे। इसी प्रकार की साधना एवं लक्ष्य बनाकर मंजिल की प्राप्ति के लिए कम से कम समय में विशेष कार्य करें। ज्ञान को साधना के रूप में ढालकर अध्यात्म को अपने जीवन में लाने का प्रयास करें। उसी परम आहलादकारी अध्यात्म को आत्मसात करें। तब कहीं जाकर आपका सुकुमाल जैसा कमाल का काम हो सकता है।
....सुकुमाल स्वामी की यह कथा बार-बार अपने चिंतन में लाओ क्योंकि आचार्य समन्तभद्र स्वामी कहते हैं कि भैया! शुद्धोऽह, बुद्धोऽहं तो बहुत जल्दी चौपट हो जाता है। इसलिए उसको स्थिर बनाने के लिए प्रथमानुयोग का अध्ययन करना जरूरी है।
प्रथमानुयोग का स्वरूप आचार्य समन्तभद्र जी ने स्नकरण्डक श्रावकाचार' में बताते हुए कहा है...
प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् ।
बोधि समाधि निधानं बोधति बोधः समीचीनः॥
महापुरुष की कथा, शलाका पुरुषों की जीवन गाथा,
गाता जाता बोधि विधाता, समाधि निधि का है दाता।
वही रहा प्रथमानुयोग है परम-पुण्य का कारक है,
समीचीन शुचि बोध कह रहा, रहा भवोदधि तारक है॥
(रयणमंजूषा)
एक पुरुष के कथानक को चरित्र कहते हैं। अनेक पुरुषों के कथानकों के वर्णन करने को पुराण कहते हैं। जो आज तक नहीं प्राप्त हुए ऐसे सम्यग्दर्शनादि गुणों की प्राप्ति को बोधि कहते हैं और प्राप्त हुए स्नत्रय की भलीभाँति रक्षा करते हुए उनकी उत्तरोत्तर वृद्धि करने को समाधि कहते हैं। धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान भी समाधि कहलाते हैं। इस प्रकार पुण्यवर्धक चरित्र और पुराणों को तथा धर्मवर्धक बोधि-समाधि के वर्णन करने वाले शास्त्रों को प्रथमानुयोग कहते हैं।
प्रथमानुयोग ग्रन्थों का अध्ययन जो कि बोधि-समाधि के निधान हैं, ज्ञान और वैराग्य की वृद्धि में सहायक होता है, ज्ञान और वैराग्य की वृद्धि आत्मोपलब्धि में सहायक है। अत: आत्मोपलब्धि के इच्छुक मुमुक्षुओं को प्रथमानुयोग का अध्ययन करना चाहिए ।