जीवन के अंतरंग तथा बहिरंग, पक्षों के परस्पर समन्वय तथा संतुलन से ही सफलता मिलती है। अंतरंग भावों के बाद ही बाह्य पक्षीय भाषा की परिभाषा बनाई जा सकती है। आंतरिक पक्ष ही बाह्य पक्ष का श्रोत है, जन्मदाता है। उत्तम परिणाम की प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि अांतरिक पक्ष पर ध्यान दें। मंजिल पर पहुँचने के लिये उपयुक्त स्थान का टिकट लेना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उपयुक्त गाड़ी में बैठना भी आवश्यक है। दोनों की उपयुक्तता से ही मंजिल की प्राप्ति होती है। जीवन का संचालन आंतरिक तथा बाह्य पक्षों पर आधारित है। किन्तु अंतरंग पक्ष पर दृष्टि नहीं पड़ती तथा बाह्य पक्ष दिखाई देता है, इसीलिये मानव सहज ही दिखने वाले बाह्य पक्ष को ही प्रधान मान लेता है। वस्तुत: बाह्य पक्ष का श्रोत भीतरी पक्ष है। वायुयान बाहरी पक्ष है तथा अंदर बैठा चालक भीतरी पक्ष। दिशा सूचक यंत्र के माध्यम से दिशा निर्धारित कर, चालक सही संचालन कर वायुष्यान को मंजिल तक ले जाता है, किन्तु भीतरी पक्ष के रूप में विद्यमान चालक के सही न होने पर वायुयान मंजिल नहीं पा सकता। बालक जिसे भाषा का ज्ञान नहीं है, संकेतों से अपने भावों को प्रदर्शित कर माँग की पूर्ति करता है। भावों के प्रदर्शन को भाषा से मजबूती मिलती है किन्तु भाषा गौण है भाव प्रधान। जैसे भाव उत्पन्न होंगे वैसे ही भाषा प्रकटित होगी। प्यार की भावना से अबोध बालक को गाल पर काटने पर बालक की मुख मुद्रा हास्यमय हो जाती है किन्तु गुस्से में च्यूँटी काटने पर बालक की आँखें अश्रुमय हो जाती है। क्यों होता है ऐसा? इसीलिये कि जैसे भाव उत्पन्न होंगे वैसा ही परिणाम प्राप्त होगा। जैसा भाव वैसी भाषा तथा यही परिणाम का आधार है। धर्म, विवेक आतरिक भाव है; भाषा, चाल, रूप बाहरी पक्ष हैं। भीतर भावों में परिवर्तन आने पर बाह्य स्वयमेव बदल जाता है।
प्रकृति के भूषण को दूषित कर प्रदूषण मनुष्यों के द्वारा ही फैलाया जा रहा है। प्रकृति के नियमों का उल्लंघन पशुओं द्वारा नहीं होता। विचारों में उत्कर्ष पशुओं में भी होता है क्योंकि प्रकृति की परीक्षा में जानवर शत-प्रतिशत अंक लेकर उत्तीर्ण है जबकि मनुष्य अनुतीर्ण। माना यह जाता है कि वैचारिक क्षेत्र में मनुष्य प्रौढ़ होता है। किन्तु पशु कभी भी अपनी कार्य सीमा का उल्लंघन नहीं करते।
जब तक दंड का भय न हो मनुष्य के उद्दंड होने की संभावना बनी रहती है। इसीलिये चालाक कहा जाता है। गिरने के भय से ही चाल सही रहती है नहीं तो गिरकर दंडित होना पड़ता है। चलते समय अांतरिक भाव से जान लेते हैं कि नीचे देखकर चलना है, ऐसे ही चलने में तल्लीन है तथा बाहर आवाज सुनकर पलट कर देखते ही पैर डगमगा जाते हैं, ठोकर लगती है, गिरने का दंड भी भोगना पड़ता है। यदि अंदर के भावों के अनुरूप सावधानी बरती होती तो ठोकर भी नहीं लगती, न ही गिरने का दंड भोगना पड़ता। प्यार करने के लिये आवश्यक है कि दूसरा पक्ष भी विद्यमान हो तभी आप प्यार कर सकते हैं। अन्यथा कोई दीवाल से प्यार नहीं करता सामने वाला पक्ष हो तब ही प्यार संभव है। एक पक्ष से कोई काम नहीं हो सकता। सामने वाले पक्ष के साथ-साथ देश, काल का भी महत्व है। श्री कृष्ण की पटरानी ‘रुक्मिणी' का पुत्र 'प्रद्युम्न' जन्म के बाद ही चला जाता है, बहुत तलाश की नहीं मिला, रुक्मिणी उदास हो जाती है पुत्र के वियोग में। सोलह वर्ष पश्चात् प्रद्युम्न अचानक वापस आता है युवा होकर। चारों तरफप्रसन्नता छा जाती है। माँ बेटे को देखते ही उदास हो जाती है। माँ! मैं आ गया हूँ, ठीक है, माँ प्रत्युतर में कहती है, फिर उदास क्यों? पूछने पर कहती है बेटा! जब तू गया था बालक था, आया तो जवान होकर, तो क्या हुआ? तुझे प्यार कर जो आनंद प्राप्त होता उससे वंचित हूँ, यह सोचकर उदास हूँ। माँ को आनंदित करने के लिये प्रद्युम्न को पुनः बालक का रूप धारण करना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि प्यार करने के लिये केवल दूसरे पक्ष की ही आवश्यकता नहीं, वरन् यह भी आवश्यक है कि देश काल के अनुरूप सुपात्र हो।
भरी सभा में खो जाना आश्चर्य जनक लगता है किन्तु खो सकते हैं। भीतरी पक्ष सोचतेसोचते तल्लीन हो जाते हैं तथा खो जाते हैं। भरी सभा में डूब जाते हैं विचारों में, बाह्य पक्ष के रूप में तो बैठा हूँ किन्तु फिर भी कहते हैं कि वह खो गया, कब? जब विचारों में लीन हो तब। अंदर की दशा देखकर ही कह देते हैं- वह खो गया। प्रधानता भीतरी पक्ष की है। बाहरी पक्ष से विचारों को जोड़ते ही समस्याएँ आ जाती है किन्तु भीतरी पक्ष में तल्लीन होते ही समस्याएँ समाप्त। समस्या बाह्य पक्ष के साथ है। भीतरी जगत् समस्या विहीन है। उत्तर तब ही दिया जाता है जब प्रश्न पूछने वाला हो। सुंदर वस्त्र धारण कर बाजार भ्रमण के लिए जाते है आप यदि बाजार बंद हो कोई न मिले तो आप वापस आकर सोचेंगे कि व्यर्थ ही सुंदर वस्त्र धारण किये जब कोई देखने वाला ही नहीं। दूसरा पक्ष न हो तो सुंदर वस्त्रों का धारण करना भी व्यर्थ है।
अपने दुख का स्मरण होते ही हमें उसकी अनुभूति हो जाती है। कोई पूछ ले तो दुखी हो जाते हैं क्षण भर पूर्व दुखी नहीं थे स्मरण आते ही दुख की अनुभूति। कैसा परिवर्तन? एकाएक दुखी हो गये। स्मरण हुआ, विचार आया, भाव उत्पन्न हुए तो दुखी, नहीं तो कंटकों में भी अमरकंटक की बहार का अनुभव कर सकते हैं। जैसे भाव होंगे वैसी अनुभूति होगी। दुख की सामग्री में भी सुख की अनुभूति दुख के प्रभाव को समाप्त कर देती है अन्यथा परम सुख की सामग्री सन्मुख होने पर भी अभाव की अनुभूति दुख का ही अनुभव कराती है। हम सुख के मार्ग को प्रशस्त कर सकते हैं विपरीत धारणा को समाधान बनाकर दुखी व्यक्ति के प्रति हम सहानुभूति प्रकट करते हैं -कहते है चिंता मत करो मेरा वरदहस्त है। इतना सुनते ही उसे दुख से छुटकारा मिल जाता है। सहानुभूति व्यक्त करने वाले का क्या खर्च हुआ? कुछ नहीं, किन्तु इतना भी नहीं कर सकते। भावों का खेल है, सब कुछ आपका है। अभय दान देकर भय दूर करो। बचना-बचाना हमारे हाथ में नहीं, किन्तु भाव उत्पन्न करते ही अनुभव करना-कराना हाथ में है। आज तो भावों का भी व्यापार हो रहा है। विश्व कल्याण कर सकते हैं, किन्तु भावों का प्रदर्शन तो शर्त के साथ होता है। तुम मेरे लिये क्या कर सकते हो? एक ही प्रश्न उठ रहा है सब तरफ। भाषा के प्रयोग से भावों को प्रकट करते हुए हाथ का संकेत भी करना होता है। केवल भाषा उतना काम नहीं करती, संकेतों की भी आवश्यकता होती है। चलते समय पैर के साथसाथ हाथ भी चलते हैं किन्तु चलना तो पैर से ही होता है। व्यवस्थित चलने के लिये हाथ भी चलाना होता है। दोनों पक्ष समन्वय से चले तभी चलना सरल है। चलते समय भाव पक्ष को सावधान रखना होता है अन्यथा पैर काँटो पर पड़ जाता है। भावों में शैथिल्य का परिणाम कष्ट देता ही है। भावपक्ष की विकृति का परिणाम चुभन है। अपने भावों में कोमलता की दृष्टि रखें थोड़े संयम के साथ। न तो बिलकुल ढीले रहने से काम चलने वाला है, न ही बिलकुल चुस्त–दुरुस्त रहकर। उचित अनुपात तथा देश काल को ध्यान में रखकर इतनी सुविधा से चलें कि गिरें नहीं।
बंधुओ! सावधान रहकर अनुपात का उचित प्रयोग आवश्यक है चाहे धार्मिक क्षेत्र हो या लौकिक अथवा पारलौकिक परिणामों की विशुद्धि ही धर्म है, नहीं तो बाम्बे का टिकट लेकर दिल्ली की गाड़ी में बैठने से बाम्बे नहीं आयेगा, टिकट भले ही बाम्बे की हो। मंजिल का आनंद तो दिशासूचक से देखकर सही दिशा में यात्रा करने से ही प्राप्त होगा। इस तरह यदि हम अपने आप ही सावधान हैं तो ठीक, अन्यथा समाधान भी नहीं मिलने वाला।
दान देने के लिये दान लेने वाले की भी आवश्यकता है तथा दान देना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना महत्वपूर्ण है सुपात्र त्यागी दान पाने वाला। 'पात्र के बिना दान नहीं दान के बिना पात्र नहीं' दोनों के गठबंधन से ही सार्थक होता है दान। हम कौन हैं ? हमारे कर्तव्य क्या हैं? यह जान लेने पर हमें उद्देश्य की पूर्ति करने में सरलता हो जाती है। आज जितनी सुविधा बढ़ती जा रही है मनुष्य के सामने उतनी ही दुविधायें बढ़ती जा रही हैं। आज आविष्कार आवश्यकता की पूर्ति के लिये नहीं, किन्तु आवश्यकता के कारक (करने वाले) हो रहे हैं। भारत वर्ष विकासशील राष्ट्र है विकसित नहीं क्योंकि यहाँ पर अब पहाड़ा भी पहाड़ सा हो रहा है। यदि केलकुलेटर न हो तो हम गणना भी नहीं कर सकते, स्मृति क्षीण होती जा रही है। क्या यही विकास है?
यात्रा की सफलता के लिये आवश्यक है कि यंत्र भी ठीक हो तथा चालक भी स्वतंत्र हो। गाड़ी अच्छी हो तभी यात्रा सफल होगी। दोनों पक्षों का समन्वय सफलता का आधार है। जिस गाड़ी में हॉर्न छोड़कर सब कुछ बजता हो और ब्रेक छोड़ कर सब कुछ लगता हो, उससे यात्रा केसे सफल होगी ? अंदर से चालक के रूप में ठीक से संचालन हो तभी यात्रा ठीक रहेगी।' अपने विचारों को देखें सम्हालें परिमार्जित करें तभी जीवन में निखार आयेगा”। अंत में इतना ही कहना चाहूँगा कि अंतरंग और बहिरंग पक्ष के समन्वय से ही हमारा कल्याण संभव है।
'महावीर भगवान् की जय!'