आज का दिन बड़ा महत्वपूर्ण दिन है। प्रारम्भ में जो रस आता है, उससे भी बहुत गुणा रस अन्तिम समय, उपसंहार होते समय भी आता है। आज का यह ब्रह्मचर्य धर्म आत्मा के साथ सम्बन्ध को लिए हुए है। ब्रह्मचर्य का मतलब सिर्फ यही नहीं कि चार संज्ञाओं में से मैथुन संज्ञा पर कंट्रोल करना। कथचित् मैथुन संज्ञा पर कंट्रोल को भी ब्रह्मचर्य का अंग कह सकते हैं। अपने रूप में उस प्रकार लवलीन होना जहाँ पर किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहता। अपने आप में लीन होना कहो या ब्रह्मचर्य कही एक ही बात है। आत्मा की टेढ़ी चाल होने के कारण बाहर के द्रव्यों की याचना करता हुआ भ्रमण कर रहा है, दुख का अनुभव कर रहा है। जिस प्रकार कस्तूरी नाभि से निकलती है, फिर भी मृग इधर-उधर भटकता है। उसी प्रकार इस जीव की स्थिति है। जो हम चाहते हैं, वह हमारे ही पास है, पर हम दूसरे द्रव्यों में खोज रहे हैं, फिर भी उस स्थिति को प्राप्त नहीं कर सके और प्राप्त करेंगे भी कैसे ?
जो कुछ हमारे पास है, उसका हमें ज्ञान ही नहीं होता, हम उसकी कीमत ही नहीं समझते, उसका अनादर करते हैं, वह हमें देखने में भी नहीं आता। यह उसी प्रकार है जिस प्रकार हम आँखों के द्वारा दूसरे पदार्थ को तो देख सकते हैं, पर अपनी आँख को नहीं देख सकते। उसमें पड़ी हुई चीज भी नहीं देख सकते।
हमें बाहरी पदार्थों में इसलिए रस आता है, क्योंकि वे अनेक है, अनन्त हैं, हम एक को छोड़ दूसरे में रम जाते हैं, दौड़ते रहते हैं। ब्रह्मचारी वह जो दूसरों को पकड़ने की चेष्टा न कर अपने आपमें रमण करने की चेष्टा करे। वह मन पर काबू करेगा। मन पर काबू करना दु:साध्य है, असाध्य नहीं। आप बाहर की अपेक्षा से आकिंचन्य धर्म से मुक्त हो सकते हैं, पर अन्दर की अपेक्षा नहीं। कल आप 'आकिंचन्य' से दूसरे के त्यागी हो गये थे। एकांत रूप से विवाह नहीं करना ब्रह्मचर्य नहीं है, किन्तु अनादि से जो भूला है उसे भी पकड़ना है। आपके पास जो निजी चीज है, उसे प्राप्त करना। शरीर के प्रति जब तक लिप्सा, सेवा सुश्रुषा है, तब तक ब्रह्मा को प्राप्त नहीं कर सकते। शरीर एक मात्र नौकर है, उसे हुकुम देने वाला ज्ञान है, उसे माध्यम मानते हुए अपने आपको प्राप्त कर सकते हैं।
जिस प्रकार (सन्निकट) गोद के बच्चे को कभी माता भूल कर अन्यत्र ढूँढ़ती है उसी प्रकार हमने बाहर को पकड़ रखा है। हम अपनी आत्मा को गिनते ही नहीं, इसलिए दुख का अनुभव करते हैं। आत्मा एक अकेला है। हम बाहर इसलिए ढूँढ रहे हैं, क्योंकि बाहर अनेक चीजें हैं। जब बाहर एक ही चीज दिखेगी, तब अन्दर अपने पास आ जाएगा। जिसे बाहर अनेक चीजें दिख रही हैं, वह अन्दर नहीं देख सकता है। ब्रह्मचर्य के अनुपालक अनेक सत्ता में एक ही सत्ता का अनुभव करते हैं, वह एक मात्र प्रेम का (ज्ञान का) सम्बन्ध रखते हैं। इसे आचार्यों ने संग्रह कहा है। सबके पास जो पाई जाये उसे सत्ता कहते हैं, इसलिए सबको तीन लोक में बाँध दिया। जब महा सत्ता की ओर दृष्टि हो जाती है, वह तब ही असली ब्रह्मचारी कहलाता है। ब्रह्मचर्य प्राप्त होने के बाद वह बाहर अनेक होने पर भी वह अन्दर एक को ही प्राप्त करता है। उसमें मात्र निरीहता की आवश्यकता है। जब मानव तत्व की ओर देखता है, तब वहाँ उपासना जन्म लेती है, और वासना खत्म हो जाती है।
योगी निरीह तन से रहता तथा है।
पता पका फिर गिरा तरू से यथा है ॥
औ! ब्रह्म को यतन से जिसने लखा है।
तू क्यों सुदूर उससे रहता सदा है ॥
पते में जब तक स्निग्धता (चिकनाहट) है, बन्धन है, तब तक ही पेड़ उसे नहीं छोड़ता। जब पक जाता है, चिकनाहट खतम हो जाती है, तब पेड़ से अलग हो जाता है, फिर वह उड़ता रहता है। उसी प्रकार मुनि भी शरीर से निस्पृही ही रहते हैं। ब्रह्मचर्य में शरीर ही घातक है तथा माध्यम भी है। जो आत्मा का दास है, वह तकलीफ नहीं देता। जो आत्मा को दास बनाता है, फिर तो उसका दुर्भाग्य ही है। वास्तविक आराम शरीर को नहीं आत्मा को मिलना चाहिए। व्याख्यान सुनकर ज्ञान के माध्यम से आत्मा को ही आनन्द आता है, शरीर को नहीं। ज्ञान [आनन्द] का नाम ही ब्रह्मा है। विवाह के बाद स्वदारसंतोषी व्रत का पालन होता है जो महासता का अवलोकन करने के लिए भी साधन है। वह ब्रह्मा के सन्निकट पहुँच सकता है। हाँ! ब्रह्मा में नहीं। ब्रह्मचारी आत्मा की ओर देखता है और विषयी शरीर की ओर देखता है। वह विषयी शरीर के कृश होने पर दुखी होने लगता है। ब्रह्मचारी चैतन्य ज्योति को देखता है, जीव के साथ सम्बन्ध रखता है। प्रेम में और मोह में बड़ा अन्तर है। मोह में विषय वासना मुख्य हो जाती है, पर प्रेम में गौण रहती है। राम ने सीता की सुरक्षा के लिए नहीं, प्रेम की सुरक्षा के लिए लड़ाई की। प्रेम में जीव की तरफ लक्ष्य रहता है, मोह की तरफ नहीं। मोही अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता, प्रेमी अन्दर प्रवेश कर सकता है। प्रेम का नाम धर्म है। मोही खिड़की को (शरीर को) ही देखता है, पर वह तो इन्द्रिय गम्य है। ज्ञान का सम्बन्ध चैतन्य के द्वारा होता है, मोह के द्वारा नहीं। रावण ने मोह के साथ लड़ाई की। प्रेम दूसरों को मिटाने के लिए नहीं जबकि मोह दूसरों को मिटाने की चेष्टा करता है। जो संतोष धारण करता है, वही अन्दर की ओर दृष्टि करता है। आप ने तो विवाह को भी विवाद समझ लिया है। प्रेम का मतलब हरेक व्यक्ति सुखी रहे, मोही कहता है मैं ही जीवित रहूँ चाहे दूसरों का सत्यानाश हो जाये। संतोष वहाँ है, जहाँ प्रेम है और जहाँ प्रेम नहीं वहाँ तो फिर प्रेत है। विश्वासघात प्रेम पर आघात है। जो कुछ बाहर से प्राप्त करने की चेष्टा है, उसे भूलकर ब्रह्मा के पास जाने की चेष्टा करो। ब्रह्मचर्य की महिमा बहुत अनोखी है, उसे अपनाओ। जो ब्रह्मा में रमण कर रहा है, उसको शत-शत प्रणाम।