ईधन को पटकना बंद कर दो तो अग्नि धीरे-धीरे शान्त होती चली जाती है। इससे बोध का एक अवसर प्राप्त हो जाता है और यदि क्रोध बिल्कुल शान्त हो गया, तो बोध शोध में परिवर्तित हो जाता है। नहीं, तो शोध प्रतिशोध के रूप में भी सामने आकर खड़ा हो सकता है।बहुत पहले की बात है, वर्षों पहले एक पुरानी कारिका अपने को सुनने मिली थी। वह कारिका बहुत ही प्रासंगिक है |
पुष्पकोटिसमं स्तोत्रं स्तोत्रकोटिसमं जपः ।
जप: कोटिसम ध्यान ध्यानकोटिसम क्षमा॥
इसी के माध्यम से व्याख्या प्रारम्भ कर दें, तो बहुत अच्छा हो। कोई भी कार्य करते हैं, तो हमारे आचार्यों ने यह ही कहा है, कि उसमें आरम्भ सारंभ कम हो और कार्य पूर्ण हो अर्थात् खर्चा कम और आमद ज्यादा, यह उन्नति का लक्षण है। इस कारिका में पूरा का पूरा यही भाव आया है। किसी पूज्य के चरणों में करोड़-करोड़ फूल चढ़ाने के उपरान्त जो फल मिलता है। वह एक बार पूज्य की स्तुति/स्तोत्र पाठ करने से प्राप्त होता है। हाँ महाराज। ऐसी ही कुछ बातें बताया करो, ताकि हमारा कुछ खर्च न हो और बढ़ता जरूर चला जाये। लेकिन इतना ध्यान रखना, मुक्ति की बात है यह। इससे भी आगे बढ़ना है। स्तोत्रकोटिसमं जप: जो करोड़ों बार स्तोत्र पाठ करता है और जो एक बार जप करता है, तो दोनों को ही समान फ़ल मिलता है। और करोड़ों जाप करने का जो फल हो वह एक बार ध्यान करने से मिलता है, एक बार क्षमा करने से उसको उतना फल मिल जाता है। इसमें अहिंसा की धारा क्रमश: बढ़ती जा रही है।
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति ।
तेषामेवोत्पत्ति-र्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः॥
संतों ने कहा-जो हिंसा बाहर होती है, वह हिंसा तब होती है, जब पहले भीतर हो चुकी होती है। तभी भीतर होकर बाहर आती है। बाहर हो या न हो, किन्तु भीतर हो गई, तो हो गई। उसका परिणाम कालान्तर में या निश्चित एक अवधि के बाद सामने आता है। कई व्यक्ति आकर पूछते हैं, कि महाराज। हमने अपने जीवन में किसका बुरा किया है ? जो हमारी यह स्थिति बन गई है, और हम धर्म करने के लिए आ रहे हैं या करने जा रहे हैं और उसमें यह फल मिल रहा है। इसमें हमें धर्म में ही उदासीनता आ रही है। एक बार आपसे पूछ लू-उदासीन होऊँ या नहीं होऊँ ? सुनो। केवल वर्तमान की दशा को मत देखो, कुछ इतिहास भी खोलो What is your history हिस्ट्री को सुनने से आप हिस्टीरिया रोग से ग्रसित हो जायेंगे। ऐसी प्रत्येक की हिस्ट्री है।
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति ।
तेषामेवोत्पत्ति-र्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः॥
अहिंसा या क्षमा तक पहुँचने के लिये हमें क्या करना चाहिए? उस हिंसा को समाप्त करके अहिंसा पर हमें आरूढ़ होना है। उसके लिये क्या करना है ? क्षमा धर्म को प्राप्त करना चाहते हो, तो एक लाख का दान दे दो, दो लाख का दान दे दी, तीन लाख का दान दे दो, चार लाख का दान दे दी। महाराज। इससे हमारे पर विशेष कृपा कर देंगे, क्षमा कर देंगे। आपके या मेरे द्वारा क्षमा कर देने से सारे के सारे दोष निर्मूल हो जायें, तो मैं करने के लिये तैयार हूँ। इसमें कोई बाधा नहीं। किसी भी प्रकार से हो जाये। इससे स्व का कल्याण भी हो जाये और पर का भी कल्याण हो जावे। इस कारिका में कहा गया है कि जो व्यक्ति विषय सामग्री को पूजन सामग्री में परिवर्तित कर देता है, इस प्रकार बढ़ाता है, तो निश्चित है कि उसकी हिंसकवृत्ति कम होती चली जाती है।
प्रत्येक व्यक्ति की एक ही परिणति होती है, ऐसी बात नहीं है। अत: हमें उस राग-द्वेष की प्रणाली को समाप्त करना है। उसे किस ढंग से कम कर सकते हैं ? जिनके स्तोत्र पाठ करने से हमारा जीवन अपने आप ही शान्त होता चला जाता है। दहाड़ ने वाला सिंह, फुफकारने वाला सर्प, फन उठाये हुए सर्प, ये सब घातक हिंसक होते हुए भी क्षमा का रूप धारण कर लें। उपल खाज खुजावते वाली बात चरितार्थ हो जाती है। तुल्यावर्तितयो: आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्णव में यह लिखा है अर्थात् घातक और यजक दोनों में एक प्रकार से साम्य वृति रखने से हनकवृत्ति में भी कमी आ जाती है और यजकवृत्ति में विकास भी हो जाता है। यह सारा का सारा बाहरी वातावरण भीतरी वातावरण के ऊपर आधारित होता है। भजन में कुछ लोग कहा करते हैं |
ऊपर वाला पाँशा फेंके नीचे चलते दाँव।
इसमें थोड़ा-सा सुधार कर लेना चाहिए-भीतर वाला पॉशा फेंके, बाहर चलते दांव। ऊपर और नीचे कहने से भगवान् के ऊपर निर्भर (डिपेंड) हो जायें और नीचे हम सारे के सारे उदासीन बैठ जायें। ऐसा नहीं। भीतर वाला जो पॉशा फेंकता है, वह हमने कब फेंका ? हमें स्वयं पता नहीं, किन्तु जब उदय में आ जाता है, तब बाहर पांव चलने लग जाते हैं। इन्होंने किया...... इन्होंने किया। नहीं, जो कुछ भी कार्य हो रहा है, वह हमारे अतीत की ही घटना की एक फलश्रुति के रूप में सामने आ रहा है। हमने क्या-क्या कार्य किये हैं अतीत में ? उसको छुपाने की कोई आवश्यकता नहीं। कर्म एक ऐसा निष्पक्ष न्यायकर्ता है, जिससे कोई यदि छिपाना चाहे भी तो छिप नहीं सकता। देखो, ज्यादा छिपाना चाहोगे तो और हमारी अवधि बढ़ जावेगी। संक्रमण हो जायेगा। हमारी बात मान ली, अज्ञान दशा में कर लिया, कर लिया। एक बार कान पकड़ लो, तो बार-बार उठक - बैठक करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। नहीं, कैसे करूं ? ऐसा करोगे तो और मुश्किल हो जायेगी। वह सब पर्दाफाश कर देता है। बाहर लाकर रख देता है, कि तुमने ऐसा इतिहास रचा था। एक सैकेण्ड के भीतर ही इतिहास बन जाता है और बाहर आकर खड़ा हो जाता है। आप उसको किसी भी प्रकार से इंकार नहीं कर सकते। ज्ञानसागर महाराज जी कहा करते थे-बिना कान फड़फड़ाये सुनलो। इसको यूँ (हाथ से इशारा करते हुए) करोगे, तो कोई छुट्टी नहीं मिलने वाली है। सुनिये, इतिहास बहुत बुरा है। अच्छा तो किसी का इतिहास है ही नहीं। इतिहास अच्छा नहीं, तो भविष्य भी अच्छा नहीं होगा - ऐसा नहीं समझो। यही बात कही जा रही है, कि अतीत के इतने बुरे कर्मों को जब हम देखते हैं, तब आज यह अवसर है, कर्मों के ऊपर क्षमा नहीं करना। किन्तु नूतन भावों में ही इस प्रकार का कार्य करना है।
जिन्होंने कषायों को छोड़ दिया और साम्य मुद्रा में बैठ गये हैं। उनके स्तोत्र यदि आप पढ़ते चले जाओ, तो निश्चित रूप से आपकी क्रोध रूपी अग्नि शान्त होती चली जायेगी। क्योंकि नोकर्म मिलना समाप्त हो गया। भगवान् की जब स्तुति करेंगे, उस समय क्रोध के जो नोकर्म हैं, वे नहीं मिलेंगे। जैसे ईधन पटकते चले जाते हैं, तो अग्नि धधकती चली जाती है ऊपर की ओर। लेकिन ईंधन बन्द कर दें तो बस। पारा उतर जाता है। मूकमाटी में यही कहा गया है- ईंधन को पटकना बंद कर दो तो अग्नि धीरे-धीरे शान्त होती चली जाती है। इससे बोध का एक अवसर प्राप्त हो जाता है और यदि क्रोध बिल्कुल शान्त हो गया तो बोध, शोध में परिवर्तित हो जाता है नहीं तो शोध, प्रतिशोध के रूप में भी सामने आकर खड़ा हो सकता है। प्रतिशोध किसको कहते हैं ? प्रतिशोध का अर्थ होता है, बदले के भाव। और बदले के भाव क्रोध के बिना नहीं हो सकते। बोध और क्रोध एक म्यान में दो तलवार वाली बात नहीं हो सकती। और बोध तो घटता चला जाय, तब शोध तो कहीं आ ही नहीं सकता। वहाँ प्रतिशोध ही खड़ा होता है।
जिन्होंने शोध किया और बोध में लीन हो गये, तो उनके क्रोध का अभाव हो गया। उनके पास जाकर खड़े होकर स्तोत्र पाठ प्रारम्भ हो जाता है। इससे ज्यादा फल नहीं मिल रहा है, अर्थात् हमें आमदनी बढ़ाना है, जाप करो। अब ज्यादा बार-बार कण्ठ दुखाने की कोई आवश्यकता नहीं है। कम काम हो जाता है और फल ज्यादा मिल जाता है। सिद्धचक्र मण्डल विधान जब होता है, तब सिद्धचक्र मण्डल विधान होते हुए भी स्तोत्र पाठ क्यों नहीं किया जाता ? जाप क्यों किया जाता है ? एक-एक विधान के अपने-अपने जाप की संख्या नियत है। जाप क्यों ? स्तोत्र पाठ कर लें मण्डल विधान में तो ? स्तोत्र पाठ तो भी सिद्धों का गुणगान ही है, लेकिन जाप के माध्यम से उसका फल विशेष रूप से निखरकर के सामने आ जाता है। और अन्तिम दिन यही काम आता है। विधान में जाप की संख्या जितनी बढ़ेगी उतना ही वह सफलीभूत विधान माना जाता है।
अब जाप से भी आगे बढ़ना चाहते हैं। बढ़ना ही चाहिए। जितनी सीढ़ियां हैं, उतनी सीढ़ियाँ तो चढ़ना चाहिए। नीचे ही क्यों ? तट पर बैठकर ही क्यों ? अपितु भीतर पहुँचना चाहिए। निखार और आना चाहिए। जाप भी आपके लिये परेशानी पैदा कर सकता है। जाप जपते-जपते जीभ फिसल सकती है। जाप जपते जपते कंठ सूख सकता है। जिह्वा और तालु के बिना भी जाप किया जा सकता है, लेकिन उसमें भी कठिनाई का अनुभव हो सकता है। उसके उपरांत मानसिक जाप भी किया जा सकता है। क्या करें ? करोड़ जाप करने की अपेक्षा एक बार ध्यान करो। बहुत सस्ता है महाराज! कौन आपको रोक रहा है, महंगे की बात ही नहीं। सस्ता होता चला जा रहा है और फल ज्यादा मिलता जा रहा है। और नीचे जितने भी हैं वह महंगा होता चला जा रहा है और फल कम मिलता है। और क्या करना चाहिए। आपको ? महाराज! ऊपर का चाहिए। तो धीरे-धीरे ऊपर खिसकते आ जाओ। ध्यान की ओर आ जाओ। ध्यान नहीं लगता है, तो जाप में बैठा दी। जाप में नहीं बैठता है, तो स्तोत्र पाठ करो। स्तोत्रपाठ नहीं करते तो स्वाहा बोलो। बस जाप वह देता है और आप लोग बोलो स्वाहा, पुष्प चढ़ाओ। पुष्पकोटि का मतलब पुष्पकोटिसम स्तोत्र। बस स्वाहा, बस लोग कुछ करना नहीं चाहते। बस हमें तो फल मिलना चाहिए। करोड़ों-करोड़ों बादाम चढ़ाओ, गोले चढ़ाओ इसमें क्या बाधा है। लेकिन ध्यान रखो, बहुत देर तक काम करोगे तो भी उतना काम नहीं होता। सही बनिया तो वही होता है कि जो ऐसा व्यापार करना चाहता है कि पसीना भी ना आये और सीना भी फूलता जाये। समझ में बात आ जाती है, तो समझ जाते हैं आप लोग। बिल्कुल पसीना न आये और सीना भी फूलता जाए। भैया। क्या कहें? अरबों के आसामी हैं, खरबों का माल है। करोड़पति उनके नौकर-चाकर हैं। नौकरों के भी नौकर हैं। और नौकरों के भी चाकर हैं। कारोबार क्या है ? कहाँ तक है ? उसका कोई भी हिसाब-किताब नहीं है। कितने मुनीम जी हैं, पता नहीं ? मुनीम जी भी सेठ-साहूकारों से कम नहीं लगते।
सोचने की बात है, जब हम उपयुक्त साधना को अपना लेते हैं तो यही बात हमेशा-हमेशा मोक्षमार्ग में होती चली जाती है। हिंसा की मात्रा जितनी कम होगी, चारों ओर उतनी हरियाली छाती चली जायेगी। और जितनी हिंसा बढ़ती चली जाती है, तो बाहर भी उसकी लपटें आना प्रारम्भ हो जाती हैं। जब ध्यान के पास आप आ गये, तब करोड़ जाप करने की भी कोई आवश्यकता नहीं। यदि ध्यान सुरक्षित है तो वह मोक्ष का हेतु है। वह दो प्रकार का ध्यान अर्थात् धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये ही मोक्षमार्ग के हेतु हैं। मोक्ष देने वाले हैं।
अपरे संसारस्य हेतू करोड़ों रुपये खर्च होते हुए भी आप आर्तध्यान व रौद्रध्यान ही करते रहते हैं, इससे संसार का ही संपादन होता चला जा रहा है। सबसे सस्ता धर्मध्यान है। पैसा दान करो और घर भी बैठे रहो। कई लोग तो विधान करवाते हैं, करते नहीं। उनके संविधान में तो यही लिखा है कि भैया। दस-बीस हजार दे दो और हम तो उसी दुकान में बैठेगे। वहाँ पर बैठकर वे काम करेंगे। इधर जो हैं विधान करवायें, लेकिन संविधान कहता है कि भैया। ऐसा करने से आपको इतना लाभ नहीं मिल रहा है, क्योंकि यह नौकरों के द्वारा धर्मध्यान कराने की बात हुई। दुकानदारी तो आप नौकर-चाकर या मुनीम इत्यादि के माध्यम से चला सकते हैं। लेकिन मन्दिर में तो आपको स्वयं ही कमर कसनी होगी। यह बात इसलिए कही जा रही है कि धर्मध्यान दूसरे के माध्यम से नहीं होता। धर्मध्यान के लिये स्वयं ही कटिबद्ध होना अनिवार्य है। जो व्यक्ति ध्यान के उपायों को अपना लेता है उसको करोड़ों स्तोत्र पाठ, करोड़ों जप और करोड़ों पुष्पों का त्याग, यह सारा का सारा निचले स्तर पर रह जाता है। और हमेशा-हमेशा ध्यान करने वाला व्यक्ति स्थूल नहीं होता। वह सूक्ष्म होता है, क्योंकि वह बाहर से भीतर की ओर आ जाता है। ध्यान लगाता है और ध्यान जब बिगड़ने लग जाता है तो सूक्ष्म से स्थूल की ओर चला जाता है।
आज का युग कौन-सा है? परमाणु युग। हाँ। आणविक युग है। इसीलिये सूक्ष्मता की ओर आ रहा है। सूक्ष्म से सूक्ष्म ऐसे यन्त्रों का निर्माण कर रहा है, जिसके माध्यम से बहुत कम समय में वध हो सके। यह है आणविक युग। ध्यान भी आणविक युग का ही एक रूप है। वह अन्तर्जगत् का रूप है, और वह बहिर्जगत् का। त्याग की अपेक्षा से, जाप की अपेक्षा से, स्तोत्र की अपेक्षा से ध्यान में बहुत ज्यादा पोटेन्सी हैं। मन को शुद्ध करके सात्विक भावों के साथ सब जीवों के भले के लिये धर्मध्यान कर लेना चाहिए। महाराज! न हमने अपने जीवन में सिद्धचक्र मण्डल विधान किया। महाराज! हमने तो जम्बूद्वीप विधान भी नहीं किया। कल्पद्रुम की तो कल्पना भी नहीं की। ऐसे-ऐसे विधान हैं, हमें ज्ञात ही नहीं। जी! हम क्या कर सकते हैं ? हम तो थोड़े बहुत पशुओं का पालन कर लेते हैं। और बड़े-बड़े सेठ-साहूकार जो धर्मध्यान करते हैं, उनकी सराहना करते हैं। धन्य है, धन्य है, धन्य है भगवन्! ऐसे धर्मात्माओं के लिये धन्य हैं। ऐसा कह देते हैं ताकि इतना-सा भी धर्मात्मा नहीं बन पा रहे हैं। जो बढ़े तो बड़े बने। बढ़े सो पावे। ऐसा कहकर उनकी प्रशंसा कर जाते हैं। महाराज! ठीक हो रहा है। बहुत अच्छा हो रहा है, क्योंकि अपायविचय धर्मध्यान कर सकता है। कर्म के बारे में वही सोच सकता है जो संयम को धारण करेगा, वही इस प्रकार का ध्यान कर सकेगा। और अपायविचय धर्मध्यान स्वयं के लिये होता है, ऐसा नहीं है। देखो! वह संसारी प्राणी स्वार्थी है। महाराज! मेरे दुखों का अभाव कैसे हो ? कुछ न कुछ धर्मध्यान करो, मेरे नाम से। हमारे तो बहुत सारे काम हैं, हम कर नहीं पाते। और आपको तो कोई काम है ही नहीं। सब कुछ छोड़ रखा है आपने। इसीलिये कम से कम मेरा ध्यान रखिये महाराज। इस प्रकार के कई व्यक्ति आ जाते हैं। हाँ भैया! ज्ञान तो सभी का रखता हूँ। परन्तु ध्यान तो आत्मा का रखता हूँ। वह आत्मा मेरी आत्मा है। ऐसी बात नहीं कि आपकी आत्मा की बात करता हूँ।
आपका ध्यान नहीं करूंगा मैं। हे भगवन्! इसकी बुद्धि पलट जाये सुलट जाये और अपनी चिंता कर ले। इस प्रकार का मैं ध्यान करता हूँ। और कोई ध्यान नहीं। अत: आप लोगों को भी अपना अब ध्यान करना चाहिए।
साधु हमेशा-हमेशा स्व एवं पर, दोनों का ध्यान करता है। मन में ऐसी भावना करना - सब जीव सुख का अनुभव करें, यह भी ध्यान हुआ। करोड़ों जाप का भी उतना फल नहीं, जितना इसका है। करोड़ों बार स्तोत्र पढ़ने के बाद, भत्तामर का अखण्ड पाठ जीवन पर्यन्त भी करोगे, तो भी उतना फल नहीं मिलेगा, जितना कि आप पाँच मिनट बैठकर धर्मध्यान करने से पा सकते हैं। सब जीवों का कल्याण हो वहाँ अपने आप ही स्वार्थ मिट जाते हैं। ध्यान में एक काम बहुत अच्छा हो जाता है कि स्वार्थ समाप्त हो जाता है। भगवान् का ध्यान करना या संसारी प्राणियों का ध्यान करना, महाराज कौन-सा करना बताओ ? किसका करना चाहिए ? मैं तो आप लोगों से पहले यह कहूँगा - जो भगवान् बनने के योग्य हैं, उनका ध्यान करना चाहिए। जो भगवान् बन चुके हैं, उनका क्या ? उन्होंने तो यह कहा है जीवों का ध्यान करो। जड़ का ध्यान छोड़ दो। जीव का ध्यान करेंगे तो भगवान् दिखते हैं। और नहीं भी दिखते। सब जगह नहीं दिखते भगवान्। लेकिन होने योग्य भगवान् तो जहाँ जाओ वहाँ पर आपको मिलेंगे। यद्यपि वे होने वाले भगवान् हैं, किन्तु उनका वर्तमान कर्म सहित होने के कारण दिक्कत पूर्ण हो रहा है। उनके बारे में यह सोची, विचार करो और कुछ तन से, धन से, मन से, वचन से ऐसी भावना करो, ताकि उनका दुख दूर हो जाये। उनके कर्म कट जायें। उनका सुभिक्ष हो जाये। यह भावना अपने ही सुभिक्ष के लिये, अपने ही कर्म काटने के लिए हो रही है। हमारे यहाँ दो प्रकार के साधन बताये गये हैं-एक, उपादान रूप साधन और एक, निमित रूप साधन। अर्थात् दो मार्ग हैं- एक निश्चयमार्ग और दूसरा व्यवहारमार्ग। इसी तरह ध्येय दो हैं-स्व और पर। पर में भी दो ध्येय हैं- जीव और अजीव। अजीव हेय है। जीव उपादेय व ध्येय है। उसको यदि दृष्टि में रखोगे, तो पहचान हो जायेगी। आदर्श से देखोगे, जीव तत्व को सामने देखोगे तो अपनी पहचान होगी, दुख का संवेदन होगा। उसी प्रकार ध्यान के माध्यम से हमारी तड़फ या संवेदन रूप जो बहिर्मुखीपना है, वह समाप्त होता चला जाता है। और आणविक युग का अर्थ बहिर्जगत से सम्बन्ध छूट जाना है।
आज के आणविक युग का बहिर्जगत से सम्बन्ध छूटा, इसीलिये नहीं है कि, उनका ध्येय तो यह है कि मेरा स्वार्थ कैसे पूर्ण हो ? धर्म ध्यान और इस ध्यान में यही अन्तर है। यह आब्जेक्ट (Object) को लेकर चलता है। मोक्षमार्ग में ध्यान सब्जेक्ट को लेकर चलता है। इसका विषय जड़ है, तो उसका विषय चेतन। चेतन को तकलीफ होती है, जड़ को कभी तकलीफ नहीं होती। अब वह कब तक ? जब तक तकलीफ होती है। जड़ सामग्री के अभाव को प्राप्त हो जाने से तकलीफ होती है। उसमें भी ये जितने भी जीव हैं उन जीवों के बारे में आप ध्यान लगाना प्रारम्भ कर दोगे, तो आपका विकास निश्चित है। इसमें असंख्यातगुणी कर्म की निर्जरा ज्यादा होती है। महाराज! यह विषय थोड़ा कठिन जैसा लग रहा है। सो कोई बाधा नहीं, यदि इसमें पसीना भी आ रहा है, तो भी कोई बाधा नहीं।
आज क्षमा का दिन है, तो कहते हैं। भैया-
केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, तो अनन्त जीवों के लिये अभय प्रदान करने वाले केवली हो जाते हैं, तब कोई भी जीव उनसे भयभीत नहीं होंगे। अब आप लोगों को यह भी देखना है कि कौन-कौन से व्यक्ति हमको देखकर भयभीत हो रहे हैं ? जिस व्यक्ति के मन में कषाय जितनी मात्रा में है, वह व्यक्ति आगम के अनुसार स्व की उतनी हिंसा करता जा रहा है। इस बात की ओर हमारी दृष्टि बहुत कम जाती है। कषाय की घुटन में जीना, जीना नहीं है। जीना अर्थात् उन्नति की ओर जाना है। जीना बोलते हैं न आप लोग। जीना अर्थात् सीढ़ी। जीना चाहते हो ? जीना तो चाहते हैं महाराज! तो जीने पर चढ़ जाओ। धरती पर मौत है और जीने पर जीना। कैसे चढे महाराज ? तो वही चढ़ सकता है जो गुणस्थान में चढ़ता है। वह भी कषायों का अभाव करके चढ़ता है, मोह को समाप्त करके चढ़ता है। और यदि चढ़ने की तैयारी करता है तो अपने आपकी, अपने आप ही उन्नति देखने में आने लग जाती है। अन्तर्मुहूर्त नहीं लगता, वह सत्तर कोड़ाकोड़ी का स्थितिबन्ध अन्त:कोड़ाकोडी की स्थिति में आ जाता है। मिथ्यात्व दशा में इतना कम कर सकता है। बहिर्जगत् का सम्बन्ध छूटा नहीं और भीतरी जगत् की ओर दृष्टिपात नहीं किया कि यह हो जाता है। इसे भव्य भी कर सकता है और अभव्य भी कर सकता है। भव्वाभव्वेसु सामण्णा अन्तर्जगत् की बात है। यहाँ स्थूल से सूक्ष्मता की ओर आने से ऐसी बात बन जाती है इसका कोई भी बाहर से सम्बन्ध नहीं रहता। तत्व क्या है ? तत्व भाव परक स्थूल नहीं, सूक्ष्म है। द्रव्य नहीं भाव है। भाव के माध्यम से द्रव्य का एक प्रकार से लाभ हम ले सकते हैं। दुनियाँ में द्रव्य के कारण नहीं, माल के कारण नहीं, अपितु भाव के कारण मालदार बनते हैं। क्यों भैया ? मानली, गुड़ का भाव नीचे आ गया और भेलियां बहुत सारी गोदाम में भरी हुई हैं तो क्या होगा ? घाटा। अरे! इतना भरा हुआ है फिर भी ? घाटा हो जायेगा महाराज। यदि माल कम भी हो और भाव बढ़ जायें तो फिर क्या कहना! माल कम है इसलिए पैसा कम आता है, ऐसा नहीं है। भाव बढ़ गया तो दुगुना-तिगुना होता चला जाता है। उसी भाव की प्रतीक्षा में हम प्रतिदिन अखबार देखते रहते हैं। भाव यानि तत्व। किसका यह तत्व है ? आत्म तत्व की बात करो तो अपने आप भाव बढ़ने लग जाते हैं। भाव बढ़ा नहीं कि अपने आप ही सत्तर कोड़ाकोड़ी के स्थान पर अन्त:कोड़ाकोड़ी आ जाता है। यह अन्तर्मुहूर्त का काम है। अनन्तकाल में जो काम नहीं हुआ वह अन्तर्मुहूर्त में हो सकता है।
ऐसा भाव अपने भीतर आ जाय, हम दूसरों की रक्षा नहीं कर रहे हैं, किन्तु हम इन भावों के माध्यम से अपनी रक्षा करते हैं। अपनी रक्षा करते जाते हैं, तो दूसरों की रक्षा अपने आप हो जाती है। करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। करते समय हम दूसरे को निमित्त बनाकर कर सकते हैं। लेकिन करना तो अपने को ही है। पुरुषार्थ का क्षेत्र भले ही भिन्न हो, लेकिन यदि उद्देश्य भीतर का रहता है तो उसको उतना ही फल मिल जाता है। ध्यान के मामले में आचार्यों ने पाबन्दी लगा दी है। ध्येय के विषय में पाबन्दी नहीं लगाई। ध्यान होना चाहिए धर्मध्यान। लेकिन धर्मध्यान की सामग्री के लिये छ: द्रव्यों में से किसी भी द्रव्य की विषय करो और अच्छा है। यदि जीव अपने लिये नहीं दुनियाँ में जो कुछ भी है वह सभी। इससे स्पष्ट हो जाता है कि ध्येय कुछ भी हो किन्तु ध्यान का उद्देश्य यदि ठीक है, तो काम चाहे निमित्त का करो, चाहे उपादान को पकडो, काम आपका निश्चय रूप से होगा। आज क्षमा की विराटता आपके सामने आ रही है। क्या पशुओं का पालन करने वाला, जीवों को संरक्षण करने वाला पर्व नहीं माना जा रहा है ? क्या पशु दशलक्षण पर्व नहीं मना सकता है ? और जिनका पालन किया जा रहा है क्या वह पर्व नहीं मना रहे हैं ? मना सकते हैं। अपने यहाँ कछुआ, मगरमच्छ, मेंढक, गाय, भैंस आदि सारे के सारे पर्व मनाने वाले होते हैं। इतना अवश्य है, उनके सामने कोई टी.व्ही. नहीं होती, वीडियो कैसेट उनकी कोई नहीं बनाता। मैं अब यह कहना चाहता हूँ कि यहाँ पर वीडियो कैसेट न बनाकर के जहाँ कहीं भी इस प्रकार का प्रायोगिक कार्य, रचनात्मक कार्य हो रहा है उसको लाइट में लाने की आवश्यकता है। लाइट जलाने की कोई आवश्यकता नहीं है। हाँ! लाइट में लाने की आवश्यकता है।
वस्तुत: धर्म क्या है ? इसको हमें समझना है - प्रकृति कितनी शान्त रहती है? कोई किसी के लिये मारकाट नहीं करते, ऐसा नहीं। लेकिन वे हमेशा-हमेशा एक सीमा बनाये रहते हैं। क्या इस प्रकार की क्षमा हम नहीं अपना सकते ? जो निरपराध हैं, उनको यदि परेशानी या दुख दिया जा रहा है तो इस समय क्रोध करना भी क्षमा से कम नहीं। इस समय आप क्षमा छोड़ भी दोगे, तो क्षमा को एक बहुत विराट रूप मिल जाता है। सामने वाले व्यक्ति की कषाय को समाप्त करने के लिये यदि कषाय करें, तो इसमें कोई अधर्म नहीं। कषाय को मिटाने के लिये यदि कषाय की जाती है तो वह ठीक है। लेकिन ध्यान रखो, आज ऐसा धर्म बहुत कम मात्रा में देखने को मिलता है।
राम का हाथ पर हाथ रखकर न बैठना और रावण के ऊपर प्रहार करना भी धर्मध्यान का प्रतीक है। क्योंकि बार-बार क्षमा करने के उपरान्त भी रावण नहीं मान रहा है। तो कुछ अकल आ जाय, इसलिए धनुष व तीर लेकर सामने राम खड़े हो जाते हैं। फिर भी अन्तिम समय तक यही कहते हैं-संभल जा रावण। मेरी सीता को दे दे। वह कहता है-इस बात को बन्द करो। दूसरी बात करो। दुबारा तो मैं बात कर सकता हूँ, लेकिन दूसरी बात नहीं कर सकता। दुबारा कह देता हूँरावण अब तो छोड़ दे। कैसे छोड़ दे? क्षत्रियता मिटाना थोड़े ही है। यह धर्म नहीं है तुम्हारा। मांगना क्षत्रिय का धर्म नहीं होता। मैं आ रहा हूँ, रावण फिर भी मान ले, बार-बार यह कहते चले जा रहे हैं क्षमा, क्षमा, क्षमा। फिर तीर और कमान रख रखे हैं। उसके बिना रावण नहीं मानता, इसलिए ये आवश्यक हैं। तीर और कमान में जादू है।
कोई माँ गुस्सा कर दे। आँखें लाल कर दे। क्योंकि उसके बिना बदमाश बच्चा मानता नहीं तो क्या करें। कभी-कभी करुणा की आँखों में भी धधकती हुई ज्वाला देखी जा सकती है। लेकिन क्षणिक। उसमें वह एकदम डर जायेगा, तो वह करुणा के रूप में परिवर्तित हो जायेगा। इसलिए आप क्रोधाविष्ट होकर के यदि किसी को समझा रहे हैं तो भी आपका उद्देश्य उनकी रक्षा भाव का है। उसमें किसी प्रकार का दुध्यान नहीं माना जा सकता। ध्यान की कोई सींग, पूंछ नहीं है। ध्यान वही है जिसका उद्देश्य अच्छा है, ध्येय अच्छा है। परन्तु क्षेत्र कुछ भी हो। क्योंकि किसान किसानी करता हुआ ही पर्व मनायेगा। नौकरी छोड़कर पर्व थोड़े ही होते हैं। नौकरी अपने आप में पर्व का रूप धारण कर सकती है। अन्याय, अत्याचार से बचकर अपनी डयूटी, अपना कर्तव्य यदि कर रहा है, तो वहाँ पर भी पर्व मनाया जा रहा है। उसका प्रवाह, उसकी सुगन्धी चारों ओर फैलती चली जायेगी।
Duty is the beauty of right knowlege आप Beauiful तो होना चाह रहे है लेकिन dutyfull होना नहीं चाह रहे हैं। क्या करें ? डयूटी का अर्थ धर्मध्यान या कर्तव्यपरायणता है। यह धर्मध्यान का चिह्न है। कर्तव्य को छोड़कर आप यदि धर्मध्यान करना चाहते हैं, तो वह धर्मध्यान नहीं माना जाता है। और उसके द्वारा ज्ञान की शोभा नहीं होती। ज्ञान की शोभा तो संयम है। ज्ञान की शोभा तो अहिंसा है। ज्ञान की शोभा तो क्षमा है। ज्ञान की शोभा तो कषाय का अभाव है। यह निश्चित बात है इसलिए धीरे-धीरे धर्मात्मा उस साधन को अपनाते चले जाते हैं, जिसके माध्यम से चारों ओर हरियाली छा जाती है। ऐसा क्षमा धर्म आप लोगों के द्वारा आज किया जा रहा है, सुना जा रहा है, पाठ किया जा रहा है। सुबह से ही प्रारम्भ हो गया था। आज क्षमाधर्म का पूजन करके बाद में यहाँ आये हैं। तत्वार्थसूत्र का वाचन होगा, एक अध्याय का पूर्ण वाचन सुनेंगे। तत्वार्थसूत्र का पाठ भी होगा। इसके उपरान्त क्षमा समाप्त। क्योंकि बन्द कर दें ? क्षमा तो समाप्त हो ही गयी। अब तो मार्दव आ रहा है सामने। मार्दव क्या है मशीनवत् काम हो रहा है। हम सुनते थे विदेश में मशीनरी ज्यादा है। प्रभाव तो भारत के ऊपर भी पड़ गया। इसी प्रकार के आपके कार्यक्रम भी होते हैं। भीतर की बात क्यों ? महाराज, जो भीतर हो रहा है, वही बाहर हो रहा है। यह बात नहीं, क्योंकि मैं यह नहीं कह सकता, कि भीतर इसी के अनुरूप हो रहा है। उद्देश्य क्या है ? लक्ष्य क्या है ? लक्ष्य यदि नहीं है तो लक्षण भी घटित नहीं होता लक्षण के माध्यम से लक्ष्य की ओर तो यात्रा हो सकती है, लेकिन यदि लक्ष्य ही नहीं है तो कौन-सा लक्षण बनाओगे आप ? इस धर्मध्यान में आपका यदि लक्ष्य या ध्येय दयाधर्म के प्रति है, क्षमाभाव के प्रति है, संरक्षण भाव के प्रति है, स्व व पर कल्याण का लक्ष्य है, तो आपके पास वह लक्षण आ सकता है। ये जितने भी साधन हैं वे उस साध्य तक पहुँचने के लिये कार्यकारी हो सकते हैं। लेकिन कब हो सकते हैं ? जबकि आपका लक्ष्य बहुत बढ़िया हो। यह कमाल की बात है कि निशाना क्या है ? इसकी क्या आवश्यकता है ? शब्दभेदी शास्त्र को पढ़कर शब्दभेदी नहीं होता, अपितु शब्द को भी आप तभी छेद सकोगे, जब शब्द को अच्छी ढंग से सुन सकोगे। शब्द किधर से आ रहा है, यदि लक्ष्य नहीं है तो आप कमान व तीर रख लो चाहे, वे नये हों या पुराने, परन्तु काम नहीं आवेंगे। यदि आपका लक्ष्य ठीक है तो वह टूटा-फूटा भी काम कर सकता है। निश्चित रूप से वह निशाना भेद देगा। कोई शस्त्र के बिना भी, तीन-कमान के बिना भी, शब्द के बिना भी, भाव के माध्यम से निशाना साध सकता है। जिसके पास मन्त्रसिद्धि है वह यहीं पर एक बार णमोकार मन्त्र पढ़ ले, एक बार जाप कर ले, जिसकी उसके पास सिद्धी है, उस दिशा में मुख करने की भी कोई आवश्यकता नहीं, उच्चारण करने की भी कोई आवश्यकता नहीं। मन्त्र का एक मात्र स्मरण पर्याप्त हो जाता है। कभी-कभी कहा जाता है-एक माला फेर लो काम हो जायेगा। किसी-किसी को आधी माला फेरते ही काम हो जाता है। किसी-किसी को एक बार ही मन्त्र जाप करते काम हो जाता है। क्योंकि उसकी एकाग्रता उसका लक्ष्य, उसकी साधना अनूठी होने के कारण उसे लक्ष्य मिल जाता है। कार्य हो गया। ऐसा कह देता है-आपको पुनः इधर आने की कोई जरूरत नहीं। आपके पहुँचते-पहुँचते ही आपका कार्य हो गया, यह ध्यान रखना।
मन में जितना बल है, वचनों के बल से वह बहुत असीम है। वचनों में जितना बल है तन के बल से वह भी असीम है। तन का बल धन के बल से असीम है। इसलिए धन से जो काम होता है वह बहुत कमजोर होता है। तन से जो काम होता है, उससे बलजोर वचन वाला होता है। फिर मन से होता है। बैठे-बैठे भी हजारों व्यक्तियों से काम कराया जा सकता है। फिर वचनों से जो कार्य होता है, उससे भी बहुत-बहुत दूर तक मन अपना काम कर सकता है। और मन यदि संयत होकर कार्य करता है, तो फिर केवलज्ञान होने में देर नहीं। एक भी नियन्त्रित मन चाहे तो वह सब कुछ काम कर सकता है। आपके पास मन है कि नहीं ? सोच ली। है कि नहीं है, कहाँ है बताओ ? मन वहीं है महाराज, जहाँ हम छोड़ कर आये थे। इस प्रकार मन, वचन, काय और धन ये चार साधन आपके पास हैं। ज्यादा से ज्यादा आप धन का प्रयोग करना चाहते हैं। जबकि आप सात्विक भावना जगाइये। मन को प्रौढ़ बना दीजिए। तन नहीं है, कमजोर है तो भी चल जायेगा।
झुकाने वाला चाहिए, झूकने को दुनियाँ तैयार है। लेकिन जबरदस्ती नहीं। परमार्थ यदि है, तब झुको ऐसा भी कहने की आवश्यकता नहीं है। रुको कहने की कोई आवश्यकता नहीं। टिको कहने की कोई आवश्यकता नहीं। वह व्यक्ति अपने आप ही संभव जायेगा। क्योंकि भीतरी जो जगत् है उसका प्रभाव बाहर आये बिना नहीं रह सकता।
कस्तूरी के लिये शपथ देने की कोई आवश्यकता नहीं। यह कस्तूरी है, मैं सही कर रहा हूँ, सुन लेना। सामने वाला कहता है कि, भाई यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं। यदि आपको विश्वास नहीं हो रहा है, तो समझो अब विश्वास उठ गया है। क्योंकि आप कह क्यों रहे हैं ? कहते हुए भी इसकी गन्ध तो आ नहीं रही है। इससे स्पष्ट है कि दस बार बोलकर हमसे बुलवाना चाह रहे हो। किन्तु यह कस्तूरी नहीं है। कस्तूरी को तो डिब्बे में भी बन्द कर ताला लगा दो, दरवाजा बन्द कर दो और बाहर हो जाओ आप। फिर भी उससे पहले वह बाहर आती हुई दिखने में आ जाती है। कस्तूरी कोई मूर्ति है क्या ? तो क्या है ? कोई ठोस है, वह तो गन्धमात्र है। इसीलिये दरवाजा बन्द भी कर दो, तो भी आपसे पहले वह बाहर आ जायेगी। भावना भाइये, मन को प्रौढ़ बनाइये। मन को नियन्त्रण में रखिये। ध्यान लगाये। कैसे काम नहीं होता है देखें। दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं। यदि आप हैं तो दिखने में आ जायेंगे, यह निश्चित बात है। इसलिए धर्म की ओर जैसे-जैसे हम बढ़ेंगे, वैसे-वैसे स्व का तो विकास या उत्थान होगा, साथ ही पर का भी होगा। जो बिल्कुल पतन की ओर, गर्त की ओर जा रहा है, वह भी खड़ा होकर देखेगा और अपनी यात्रा की दिशा को बदल देगा और बाहर की ओर अपने आप ही आ जायेगा। गर्त में से निकालने की कोई आवश्यकता नहीं। यह गर्त है और तुम ऊपर आना चाहते हो तो आ सकते हो, डरने की कोई बात नहीं, कह सकते हो। लेकिन यह केवल बाहर ही बाहर रह गया है।
आणविक युग होते हुए भी एक वह युग है जो धर्म से सम्बन्ध रखता है। बाहर होते हुए भी वह भीतर ही रहता है। क्योंकि उसका लक्ष्य, उसका ध्येय हमेशा-हमेशा चेतन तत्व रहता है। और उसको मांजने में वह हमेशा-हमेशा लगा हुआ रहता है। उसको ठीक करना है। उसको जो ठीक करता है वह प्रत्येक क्षेत्र में कार्यकारी हो सकता है। जिसका वह ठीक नहीं है, तब बाहर से कुछ भी करो, कुछ नहीं होता। बाहर से जिसकी छाती जितनी बड़ी है, उतनी यदि भीतर से हो जाय तो गड़बड़ हो जाये। हार्ट जिसको बोलते हैं, वह छोटा होता है। यदि ऊपर से बढ़ने लगा तो यह कायबल में आ जाता है। भीतर में आप जो हैं, वही रही। उसको ज्यादा बढ़ाओ नहीं। उसको बढ़ावा देना गड़बड़ है। वह कब बढ़ जाता है, जब कि धुकधुकी ज्यादा हो जाती है। डर लगने लग जाता है। रक्तचाप बढ़ जाता है। चिन्ताएं बढ़ जाती हैं। तब हार्ट बढ़ने लगता है। जिसका हार्ट बढ़ रहा है उसकी उदार नहीं कहते।
विशाल हृदय का अर्थ बड़ा हृदय नहीं। किन्तु जिसके विचारों में, अभिप्रायों में, उद्देश्यों में विशालता आ जाती है, वही विशाल हृदयी माना जाता है। इसलिए यह ध्यान रखना कि काया की जो मात्रा है अर्थात् हाइट (ऊँचाई) और विट्थ बढ़ जाये, लेकिन भीतर का पार्ट तो ठीक होना चाहिए। चेतन न बढ़ता है और न घटता है। चेतन क्या करता है ? चेतन जो है, पतित हो जाता है। चेतन का पतन भावों के ऊपर डिपेंड है। चेतन का उत्थान भावों की सीढ़ियों पर चढ़ने से ही ज्ञात होता है। इसके लिये कोई बाहरी परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती। समय आपका हो गया।
आज क्षमा का दिन रहा। आप लोगों ने यह सुना था, या एक दिन अर्थात् आज पूजन आदि कार्यक्रम सम्पन्न किये। बहुत अच्छे-से किये हैं। यदि यह बीजारोपण बहुत अच्छा हुआ तो कुछ ही दिन लगेंगे, अंकुर फूटेंगे। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि खाद डाली है, पानी का सिंचन हुआ है, मिट्टी बहुत अच्छी है, भाव बहुत अच्छे हैं और पवन का योग भी बहुत अच्छा है। भीतर से अंकुर फूटना प्रारम्भ हो गये हैं। ऐसा नहीं समझ लेना कि अंकुरण में २-३ दिन लग जाते हैं। वह लगता तो जरूर है पर देखने में नहीं आता। एक-एक समय में उसका प्रभाव रहता है। यदि एक समय का प्रभाव उस पर नहीं पड़ा, तो फिर दूसरे समय का भी नहीं पड़ेगा। तो इस प्रकार समय-समय करते हुए एक घण्टा भी यूँ ही चला जायेगा। जब घण्टा चला जायेगा तो एक दिन भी चला जायेगा। तीन दिन के उपरान्त एक साथ वह अंकुरित नहीं हो सकता। यदि आप लोगों ने एक घंटे तक सुना तो अंकुर का प्रारम्भ होना हो गया, मैं ऐसा मान लेता हूँ। मान लें। ऊपर से ही कह रहे हो कि भीतर से कह रहे हो ? महाराज, भीतर से कह रहे हैं। निश्चित है कि हम अब जो पशु-पालक हैं, उनमें भी पर्व के दर्शन करना चाहेंगे। जो कर रहे हैं वह भी धर्मात्मा है, ऐसा समझेंगे और उनके बारे में संरक्षण करने के लिये भले ही क्रोधाग्नि हमारी भड़क जाय, कोई बाधा नहीं, हम कह देते हैं। आपकी क्षमा बिल्कुल सुरक्षित है, ऐसा समझकर के क्रोध कीजिये। इसमें कोई भी बाधा नहीं है।
अहिंसा परमो धर्म की जय