भगवान् महावीर के निर्वाणोत्सव के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न स्थानों पर समारोह आयोजित होने से प्रभावना बढ़ती है। यहाँ पर भी महावीर के उपासकों ने भगवान् महावीर की स्थापना करने का निश्चय किया। समतभद्राचार्य ने कहा है कि
अपत्य वित्तोत्तर लोक तृष्णाया,
तपस्विनः केचनकर्म कुर्वते।
भवान् पुनर्जन्म जराजिहासया,
त्रयीं प्रवृत्तिं समधीर-वारुणात् ॥
संसार के प्राणी भगवान् की उपासना किसी न किसी अपेक्षापूर्वक करते हैं। कुछ लोग संतान प्राप्ति के लिए, कुछ लोग वित्त वृद्धि के लिए, कुछ लोग समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए और कुछ लोग आगामी भव की आकांक्षा में यानि अगले भव में ज्यादा वैभव मिले इस अपेक्षा से भगवान की उपासना करते हैं। लेकिन समंतभद्राचार्य कहते हैं कि हे भगवन्! आपने उपरोक्त भावना को लेकर उपासना नहीं की अपितु भव का नाश करने, संसार की उलझनों को छोड़ने के लिए उपासना की। महावीर ने कर्म की विचित्रता के बारे में सोचा। कर्म का उदय है, तब तक मिलेगा, जब कर्म का अभाव होगा तब नहीं मिलेगा।
महावीर ने उस व्यक्ति को भक्त माना है जो वित्त वैभव के लिए, दूसरे जीवन की आकांक्षा से उपासना नहीं करता। आप लोग धर्म की ओट में भी वह काम करते हैं कि जिससे संसार की वृद्धि हो रही है। वित्त वैभव की वृद्धि के लिए उपासना चल रही है महावीर के सामने भी। एक सेठ के पास एक व्यक्ति कुछ मांगने गया, सेठ ने कहा जो चाहो वो मांग लो उस व्यक्ति ने मात्र रोटी माँगी। इसी प्रकार आप सोचो महावीर से हम क्या मांगे? दाता देने वाला तो है, पर पात्र नहीं। महावीर ने कहा कि तुम्हारे पास इतनी निधि (जल) है कि उसे ज्यादा खोदने की जरूरत नहीं, मात्र कचरा जो ऊपर लग गया है, उसे हटाना है। पानी बाहर नहीं, भीतर है। आपकी उपासना में इच्छा आकांक्षा न हो तभी वास्तविक वीतरागता, वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो जाएगा।
आज परिग्रह के पीछे जीवन इतना व्यस्त हो गया कि उपासना में भी विचारों की तरंगें चलती रहती हैं। मात्र कामना, खाना, पीना, सोना यही आप लोगों के सामने है। आप सोचते हैं कि महावीर जी में छोटे घड़े की नसियां में अथवा तिजारा में भगवान् की मूर्ति में चमत्कार है। लेकिन महावीर अथवा अन्य वीतरागी भगवान् कोई चमत्कार नहीं दिखाते। आज तक आपने उनके स्वरूप को समझा ही नहीं, महावीर को दुनियाँ से मतलब नहीं है। चमत्कार तो आप जैसे भक्त लोग दिखाते हैं और महावीर की प्रभावना करते हैं। नमस्कार चमत्कार के लिए नहीं। चमत्कार का बहिष्कार कर, विषयों का तिरस्कार कर, नमस्कार करें, इसी में कल्याण निहित है।