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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • तपोवन देशना 15 - भटकाने वाला कौन

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    (आज आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज की २४वीं पुण्य तिथि थी इस अवसर पर ब्रह्मचारी अजयजी ने संचालन किया, क्षुल्लक चंद्रसागरजी, ऐलक निर्भयसागर जी, ऐलक अभय सागर जी, एवं मुनि श्री १०८ योगसागर जी महाराज ने अपनी अपनी भाव भीनी गुरूणां गुरु श्री ज्ञानसागरजी महाराज के प्रति श्रद्धांजलियाँ समर्पित की। इसी प्रसंग को लेकर आचार्य श्री ने कहा) अभी आप ने अनेक लोगों की भावाञ्जलियाँ सुनी।)

     

    काल अपनी गति से संसार के सारे पदार्थों को लेकर चल रहा है। काल अपनी गति से चलता है, किन्तु कभी-कभी जल्दी और कभी-कभी विलंब से भागता हुआ दिखाई देता है। आज गुरु महाराज की २४वीं पुण्य तिथि है किन्तु लगता नहीं कि २३ वर्ष हो गये। जब काल की ओर देखता हूँ तो वह स्थायी सा लगता है। जब किसी कार्य में लग जाता हूँ तो काल का पता ही नहीं चलता।

     

    जब परिणमन को देखता हूँ तो सत्ता ही नजर नहीं आती है और जब सत्ता को देखता हूँ तो परिणमन ही नजर नहीं आता है। कहा भी है -

    'सत्ता सव्व पयत्था सविस्स रुवा अनंत पजाया'

     

    यदि महासत्ता का आधार लिया जाये तो जो अभी आकुलतायें हो रही हैं, सब मिट जायेंगी। आचार्य श्री को हमेशा-हमेशा उसी महासता को देखने का अभ्यास रहता था। वे जल की ओर देखते थे लहर (तरंग) की ओर नहीं।

     

    अभी आत्मा में विकल्प ही विकल्प है परन्तु जब हम आत्मा की ओर देखने लग जाते हैं उसी से परिचय करने लग जाते हैं, तब सारे विकल्प अपने आप शांत हो जाते हैं। किसी ने कहा है -

    जमाने में उसने सबसे बड़ी बात कर ली।

    जिसने अपने आप से मुलाकात कर ली।

     

    मृत्यु महोत्सव इसलिये बड़ा लग रहा है कि हम जमाने की ओर देख रहे हैं जो संकल्प विकल्पों में ही रहता है, जो जमाने में रहता हुआ बहता नहीं जमा ही रहता है, वह संसार समुद्र में नहीं जाता। जो व्यक्ति जमता नहीं बहता ही रहता है, वह बहता-बहता समुद्र में जा कर डूब जाता है।

     

    ज्ञानसागर जी गुरु महाराज घर में बहुत ही शांतिमय जीवन जीते थे घर में पूरे समय तक व्रती रहे। व्रतों से कभी नीचे नहीं गिरे, वे पापों से बचकर रहते थे, प्रत्येक कदम बहुत अच्छे ढंग से जमाजमा कर रखते थे। उनका जीवन ऐसा जमा हुआ था कि उसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता। जब हम गीली मिट्टी पर चलते हैं तो अंगूठा गढ़ा कर चलने पर फिसलते नहीं। हाथ जमाकर लिखना नहीं होता किन्तु दिमाग में जम जाने से लिखना होता है।

    मेरी भावना है कि मैं जो कुछ भी बनूँ वह गुरु चरणों में चढ़े और वहीं जम जाऊं । इसी भावना से एक दोहा लिखा था -

    पंक नहीं, पंकज बनूँ, मुक्ता बनूँ, न सीप।

    दीप बनूँ, जलता रहूँ, गुरु पद पाद समीप।

     

    महापुरुष वीरता और साहस से काम लेते हैं, ऐसे उन महापुरुषों के माध्यम से साहस मिलता है और कमजोर व्यक्ति भी वैसे ही वीरता से सामने आता है, जैसे रणांगण में वीर हो तो कमजोर भी वीरता से सामने आता है।

     

    हमारा ज्ञान अनेक वस्तुओं में लगा होने से, हमारे ज्ञान में ज्ञान नहीं आ रहा है इसी कारण हम निर्वाण को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं ज्ञान जिस पदार्थ को देखना चाहता है, ज्ञान को उस पदार्थ रूप परिणमन करना होता है तभी वह पदार्थ दिखता है। इसी कारण पर पदार्थ को देखते समय ज्ञान-ज्ञान को नहीं दिखता है। हमें पदार्थ नहीं भटका रहा है, किन्तु ज्ञान भटका रहा है। आचार्य महाराज की दृष्टि पर पदार्थ की ओर नहीं, ज्ञान की ओर ही रहती थी इसीलिए वे संसार में फंसे नहीं। आज दुनिया में ऐसे बहुत से खेल है जिसमें ज्ञान को उलझाया जाता है दुनिया उसी में उलझना पसंद करती है। मुनि उस ज्ञान में रमते हैं उलझते नहीं। जानो देखो किन्तु उस ज्ञान से उलझी नहीं। ज्ञानी मुनि ज्ञान में रमते हैं उलझते नहीं, वे सदा खाली रहते हैं, आत्मा में रमते हैं परन्तु एक स्थान पर जमते नहीं।

     

    नाव की शोभा पानी में है, नाव में पानी हो तो उसकी शोभा नहीं। नाव यदि खाली रहे तो पार हो जाते हैं और यदि नाव कुछ खा ले (अर्थात् पानी भर जाये) तो डूब जाते हैं। उसी प्रकार साधु की शोभा खाली रहने में है। एक व्यक्ति यदि सूखी लकडी का सहारा ले लेता है तो नदी पार हो जाता है। ज्ञान सागर जी गुरु महाराज हमारे लिए ऐसे ही लकड़ी के समान थे संसार समुद्र पार होने के लिए।

     

    यदि एक व्यक्ति करेंट में चिपका हो और दूसरा उसे निकालने जाय तो वह भी उसी से चिपक जाता है इस प्रकार हजारों व्यक्ति चिपक सकते हैं किन्तु यदि एक सूखी लकड़ी का सहारा ले ले, तो सब छूट सकते हैं। ज्ञानसागर जी महाराज ने यही किया।

     

    जब शरीर के किसी अंग पैर आदि में दर्द हो तो तेल या बाम आदि लगाते हैं। उसे लगाने से मात्र ठीक नहीं होता, उसे लगाने के बाद गर्मी देने से ठीक होता है। जब दिमाग में गर्मी आ जाती है और ज्ञान काम नहीं करता, वह अपसेट हो जाता है तो उसे करेंट दी जाती है। जिससे अपसेट माइंड सेट हो जाता है। ज्ञानसागर जी गुरु महाराज ने हमें ऐसी करेंट दी कि हमारा अनादिकालीन अपसेट माइंड सेट हो गया। करेंट कितना देना यह भी दिमाग होना चाहिए। ज्ञान छूट जाता है टूटता नहीं। अत: पहले ज्ञान ठीक करो नहीं तो पैर टूट जायेंगे। ज्ञानसागर जी महाराज ने पहले चारित्र नहीं दिया, बल्कि पहले दिमाग ठीक करके ज्ञान दिया, फिर बाद में चलने के लिए पैर (चारित्र)।

     

    जैसे समय पर योग्य कन्या का जब तक विवाह नहीं करते तब तक श्रावक (पिता) को चैन नहीं रहती। उसी प्रकार ज्ञानसागर जी को पद देने से पूर्व तक चैन नहीं रही, अत: उन्होंने उचित समय पर कन्यादान के समान अपने पद का दान किया और सब कुछ त्याग कर समाधि जो मुख्य लक्ष्य था उसकी ओर बढ़ गये। वे व्यक्ति ही अपने लक्ष्य को पा सकते हैं, जो अपने लक्ष्य प्राप्ति के साधनों के अलावा अन्य किसी पदार्थों से न चिपका ही। जैसे कागज चिपकाना हो तो हाथ में कागज न चिपके इसका ध्यान रखा जाता है, नहीं तो कागज हाथ में चिपककर फट जाता है वैसे ही साधक ध्यान रखता है।

     

    जैसे सर्कस में तार पर चलने वाला कलाकार तार की ओर नहीं, लगातार हाथ में ली गई लकड़ी की ओर ही देखता रहता है और तार को पैरों से ही देखते हुए चलकर लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार ज्ञानी साधक पुरुष होता है। उसमें ज्ञानसागरजी महाराज भी एक है। जैसे पैर बराबर जमीन मिलने पर भी आज आदमी चलता है तो सब को विस्मय होता है वैसे ही ज्ञानी दिगम्बर मुनि जब चलता है तो सब को विस्मय होता है। गुरु ज्ञानसागर जी महाराज ने ऐसी कला, साहस, और शक्ति दी कि अब हमें तार पर चलना तो सरल है ही, किन्तु दौड़ भी सकते हैं।

     

    लोहा पर पदार्थ (नमी) को पकड़ लेने से जंग खाकर अपने आपको खो देता है और स्वर्ण कभी पर पदार्थ को पकड़ता नहीं इसीलिए कभी नष्ट नहीं होता। अत: पदार्थों के इस प्रकार के स्वभाव को जानकर हम पर पदार्थों को पकड़े नहीं, उससे चिपके नहीं और अपने जीवन को स्वर्ण की भांति बनाये।

     

    गुरु महाराज के पास ऐसी सत्ता, संस्था और संपदा थी कि अन्य बाहरी सत्ता संस्था और संपदा की आवश्यकता ही नहीं होती थी। अपनी सत्ता और संस्थादि को जानकर उस स्व की संपदादि में इतने लीन रहते थे कि पर की चर्चा का समय ही नहीं था। ऊपरी ऊपरी ज्ञान से कुछ नहीं होता अत: वे तलस्पर्शी ज्ञान रखते थे। तलस्पर्शी ज्ञान किसी ग्रन्थ को एक बार बढ़ने से नहीं किन्तु अनेक बार पढ़ने से होता है। उन्होंने सभी को ऐसा ज्ञानरूपी प्रकाश दिया, मुझे भी मिला किन्तु अंत में।

     

    जब स्वयं ही नहीं चल पा रहा हो तो दूसरों को कैसे चला सकता है। जब स्वयं को दिशा बोध का ज्ञान न हो तो दूसरों को कैसे दे सकता है। अत: वे स्वयं चलते थे और समस्त ज्ञान रखते थे। पटरी पर यदि गाड़ी हो तो थोड़ा धक्का लगाने पर भी आगे बढ़ सकती है। ज्ञान सागर जी महाराज ने कृपा करके मेरी गाड़ी पटरी पर ला कर खड़ी कर दी। ऐसे उन गुरु महाराज के प्रति दिन गुण गान गाये और एक दिन भी न चले तो ठीक नहीं, किन्तु हम ३६४ दिन चले और एक दिन गुणगान गायें तो ठीक है।

    आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज की जय

    Edited by admin


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    रतन लाल

      

    कुंभकार मिट्टि को भी घड़ा बनाने की ताकत रखता है

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