गर्भावस्था के संस्कार जीवन के अंतिम क्षणों तक जीव के साथ रहते हैं जैसे कौरव और पाण्डव दोनों के संस्कार अलग-अलग थे। इन्हीं पाण्डवों ने परिस्थिति वश कौरवों के साथ महाभारत युद्ध लड़ते हुए भारत में खून की नदियाँ बहा दी। लेकिन यही पाण्डव जब वन में दिगम्बर रूप धारण कर ध्यानारुढ़ हुए। तब उन्हीं कौरवों के द्वारा लोहे के गर्म-गर्म आभूषण पहनाये जाने पर भी ध्यान से जरा भी विचलित नहीं हुए। क्रोध का वातावरण उपस्थित होने पर भी उस रूप अपने परिणाम नहीं होने दिए। यही तो ज्ञानीपन है। ज्ञान की चर्चा करना अलग है तथा चर्या करना अलग। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने 'समयसार" में कहा है कि जिस प्रकार अग्नि से तपाये जाने पर भी स्वर्ण अपना स्वर्णत्व नहीं छोड़ता वैसे ही ज्ञानीजन कितना ही प्रतिकूल वातावरण उत्पन्न हो जाने पर अपना ज्ञानीपन नहीं छोड़ते। आचार्य
श्री ने लिखा है कि -
मंगलमय जीवन बने, छा जाये सुख छाँव।
जुड़े परस्पर दिल सभी, टले अमंगल भाव।
हमारी बाह्यवृत्ति जब भीतर हो जाती है तो मन में उठने वाली विसंगतियों की तरंगें स्वयमेव ही समाप्त हो जाती हैं। उसके कारण शरीर भले ही समाप्त हो जाय पर आत्मा समाप्त नहीं होती, बल्कि यह आप्त (भगवान्) बन जाती है। वैसे अपने आपको प्राप्त करना ही आप्त को प्राप्त करना है। मन यदि शांत रहता तो वचन और काय शांत हो जाते और बाहर भीतर शांति समता का साम्राज्य छा जाता है। क्रोध की नहीं क्षमा की बात होनी चाहिए क्योंकि क्षमा वीरता की पहचान है- "क्षमा वीरस्य भूषणम्।" अध्यात्म के रहस्य को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि शत्रु के प्रति प्रतिशोध नहीं रखना चाहिए। बाहरी शत्रु तो बाद में मित्र भी बन सकता है, यह कुछ काल के लिए ही शत्रु होते, पर कर्मरूपी शत्रु से तो हम अनादिकाल से हारते आ रहे हैं। "कर्मचोर चहुँ ओर सरबस लूटे सुध नहिं ।" एक बार क्षमारूपी अमोघ शस्त्र को धारण करने पर उसे चूर-चूर किया जा सकता है। अतएव बाहरी नहीं अपितु भीतरी शत्रु को निकालें, बाहर दृष्टि होने पर इन्द्रिय और मनरूपी खिड़कियाँ झट खुल जाती पर भीतरी दृष्टि होने पर आँखें भी अपने आप बंद हो जाती हैं। संसार के सभी पदार्थों के प्रति मात्र ज्ञेय-ज्ञायक संबंध हो जाने पर हमें कर्म कर्म में देह देह में आभूषण ही प्रतीत होते हैं। तब द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि सभी बाह्य महसूस होते हैं, ऐसे समय क्रोध निराश्रित हो जाता और क्षमा की सुगंध चहुँ ओर फैल जाती है।
क्रोध के कारणों को समझाते हुए आपने बताया कि आप क्रोध से सही रूप में परिचित नहीं हैं/क्रोध व्यक्तियों/प्राणियों पर नहीं करना अगर करना हो तो क्रोध पर ही क्रोध करें क्योंकि जो भीतर है वही तो बाहर आता है। उसके बाहर आने का रास्ता एक ही है, अत: जिस क्षण क्रोध या मान आदि प्रकट होते उसी समय हमें जागृत रहना और कर्म की मूल जड़ को ही समाप्त करना है। अग्नि के समाप्त हो जाने पर कितना भी ईधन इकट्ठा किया जाये वह किसी काम का नहीं होता, किन्तु अग्नि की छोटी-सी कणिका भी समस्त ईधन को समाप्त करने के लिए पर्याप्त है। अत: ध्यान रहे कि ज्ञान के बिना धर्म का पालन संभव नहीं होता। कर्म के होने अथवा आने के कारणों को जानने मात्र से ही वह दूर नहीं होते, उससे मुक्ति नहीं मिलती बल्कि यह तभी संभव है जब उसके उदय में आने पर भी हम उससे प्रभावित न हों। कषाय तो अन्य शरीर को धारण कराने में कारण होती है। यदि अन्य शरीर नहीं चाहिए तो उसके कारणों को भी छोड़ना होगा। जैसे रसोई बन जाने पर ईधन को बुझा देते हैं, क्योंकि तब वह निरर्थक हो जाता। वैसे ही क्रोध के दुष्परिणाम को जानकर क्रोध, मान, माया और लोभरूपी लकड़ी को जलाना बंद करें तभी जीवन में शांति का वातावरण हो सकता है। आचार्य श्री कहते हैं -
समता भजतज प्रथम तू, पक्षपात परमाद।
स्याद्वाद आधार ले, समयसार पढ़ बाद।
पाण्डव पुराण में पाण्डवों को लक्ष्य में रखकर कहा है कि ‘युद्धरत् पाण्डवों को अग्नि तो मात्र मन में लगी थी। वे यह महसूस कर चुके थे कि इसी तन के कारण आत्मा आज तक कषायों से जलती रही है, आज तपरूपी अग्नि से इस शरीर को ही जलाना अथवा कषायों की अग्नि पर क्षमारूपी जल का सिंचन करना है। ज्ञानीजन शत्रु या अन्य से नहीं बल्कि इस स्वयं के नश्वर शरीर से ही बदला लेते हैं। उनकी तन की ओर प्रवृत्ति न हो ऐसा सार्थक प्रयास होता है। वह भीम जब रणांगन में पहुँचता था तो शत्रु पक्ष की सेना सामने से भाग जाती थी। जैसे कि मृगराज सिंह जिस ओर से निकल जाता उस ओर से मदमस्त हाथी समूह भी भाग जाते हैं। वही भीम लाल-लाल गर्म लोहे के कड़े पहनाने पर विचलित नहीं होते। उन्हें गर्म लोहा और पुष्प दोनों समान हो गए ये ही समता का परिणाम है।
जब चित्त में स्थिरता भेद विज्ञान और वैराग्य प्रबल होता है तब शत्रु को जानते हुए भी उस ओर दृष्टि नहीं जाती। अध्यात्म के क्षेत्र में कषाय का होना पागलपन की निशानी है। आध्यात्मिक तत्ववेत्ता अपने अतीत पर रोता है, तभी वह उस अतीत की गलती को दूर करने के लिए सार्थक प्रयास करता है। क्षमा को प्रतिपल जीवन में आचरित करना होगा। कष्ट के क्षणों में प्रतिकार के भाव नहीं होना तथा कष्ट देने वाले के प्रति भी अभिशाप के भाव नहीं लाना ऐसी उत्तम क्षमा से ही मुक्ति प्राप्त होना संभव है। यही क्षमा, समता हमें बाहर से भीतर/अंतस् में प्रवृत्ति कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अत: सुखी होने के लिए क्षमा विनम्रता, सरलता और उदारता का जीवन में आना अनिवार्य है।
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